Book Title: Jain Sadhna aur Dhyan
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 7
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि होता है, योगोन्मुख साधक का आत्मरमण का भाव जागृत होता है। ___ सारांश यह है कि धर्मध्यान वैराग्य/पर - पदार्थों की विरक्ति तथा आत्मसौख्य में अनुरक्ति-अनुराग तत्परता उजागर करता है। उससे जो आत्मसौख्य/आध्यात्मिक आनंद प्राप्त होता है, उसे केवल स्वयं के द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है, जो इंद्रियगम्य नहीं है, आत्मगम्य है।२ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि धर्मध्यान चित्त शुद्धि या चित्त-निरोध का प्रारंभिक अभ्यास है। शुक्ल ध्यान में वह अभ्यास परिपक्व हो जाता है। १. प्रथक्त्व-वितर्क सविचार २. एकत्ववितर्क अविचार ३. सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति तथा ४. व्युपरत क्रिया निवृत्ति । पृथक्त्व वितर्क सविचार जैन परंपरा के अनुसार वितर्क का अर्थ श्रुतावलंबी विकल्प है। पूर्वधर - विशिष्ट ज्ञानी मुनि पूर्वश्रुत-विशिष्ट ज्ञान के अनुसार किसी एक द्रव्य का आलंबन लेकर ध्यान करता है, किंतु उसके किसी एक परिणाम या पर्याय (क्षण-क्षणवर्ती अवस्था विशेष) पर स्थिर नहीं रहता। वह उसके विविध परिणामों पर संचरण करता है - शब्द से अर्थ पर, अर्थ से शब्द पर तथा मन-वाणी और देह में एक-दूसरे की प्रकृति पर संक्रमण करता है। अनेक अपेक्षाओं में चिंतन करता है। ऐसा करना पृथक्त्व-वितर्क सविचार शुक्लध्यान है । शब्द, अर्थ, मन, वाक् तथा देह पर संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही रहता है। अतः उस अंश में मन की स्थिरता बनी रहती है। इस अपेक्षा से उसे ध्यान कहने में आपत्ति नहीं है। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में सवितर्क समापत्ति (समाधि) का जो वर्णन किया है, वह पृथक्त्व-वितर्क सविचार शुक्ल ध्यान से तुलनीय है। वहाँ शब्द-अर्थ और ज्ञान इन तीनों के विकल्पों से संकीर्ण-सम्मिलित समापत्ति समाधि को सवितर्क-समापत्ति कहा गया है। शुक्ल ध्यान मन सहज ही चंचल है, विषयों का आलंबन पाकर वह चंचलता बढ़ती जाती है। ध्यान का कार्य उस चंचल और भ्रमणशील मन को शेष विषयों से हटाकर किसी एक विषय पर स्थिर कर देना है। ज्यों-ज्यों स्थिरता बढ़ती है, मन शांत और निष्पकम्प होता जाता है। शुक्लध्यान के अंतिम चरण में मन की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध-पूर्ण संवर हो आता है, अर्थात् समाधि अवस्था प्राप्त हो जाती है। आचार्य उमास्वाति ने शुक्लध्यान के चार भेद बतलाए १. नाना द्रव्य गतानन्त पर्याय परिवर्तनात् सदा सक्तं मनो नैव, रागायाकलतां व्रजेत्।। - योगशास्त्र १०.१५ २. अस्मिन्नितान्त वैराग्य व्यतिषंग तरंगित जायते देहिनां सौख्यं स्वसंवेयमतीन्द्रियम्।। - योगशास्त्र १०.१७ ३. “शुचं क्लमयतीति शुक्लम् ।" - तत्त्वार्थ राजवार्तिक ४. पृथक्त्वैकत्व वितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरत क्रियानिवृत्तीनि। - तत्त्वार्थ सूत्र ६.४१ ५. एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्म विषया व्याख्याता - योगसूत्र १.४४ ६८ जैन साधना और ध्यान Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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