Book Title: Jain Sadhna aur Dhyan
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 2
________________ जैन संस्कृति का आलोक ध्यानस्थ हुए, तब वहाँ प्रतिदिन आनेवाले व्यक्तियों ने अंगों को, इंद्रियों को यथावत् आत्मकेन्द्रित रखा। एक उनसे पूछा - यहाँ भीतर कौन है? भगवान् ने उत्तर दिया, रात्रि की महाप्रतिमा स्वीकार की। यह क्रम आगे विहार"मैं भिक्षु हूँ।" उनके कहने पर भगवान् वहाँ से चले चर्या में चालू रहा। " गये। श्रमण का यही उत्तम धर्म है। फिर मौन होकर भगवान् के तपश्चरण का यह प्रसंग उनके ध्यान, ध्यान में लीन हो गये। मुद्रा, आसन-अवस्थिति आदि पर इंगित करता है। इसके सूत्रकृतांग में भगवान् महावीर अनुत्तर सर्वश्रेष्ठ ध्यान । आधार पर स्पष्ट रूप में तो कुछ नहीं कहा जा सकता, के आराधक कहे गये हैं तथा उनका ध्यान हंस, फेन, किंतु इतना अवश्य अनुमेय है कि उनके ध्यान का अपना शंख और इंदु के समान परम शुक्ल अत्यंत उज्ज्वल कोई विशेष क्रम अवश्य रहा, जिसका विशद, वर्णन हमें बताया गया है। जैन आगमों में प्राप्त नहीं होता। व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र का एक प्रसंग है। वास्तव में जैन परंपरा की जैसी स्थिति आज है, भगवान् महावीर अपने अंतेवासी गौतम से कहते हैं - भगवान् महावीर के समय में सर्वथा वैसी नहीं थी। आज "मैं छद्मस्थ-अवस्था में था। तब ग्यारह वर्ष का लंबे उपवास, अनशन आदि पर जितना जोर दिया जाता है, साधु-पर्याय पालता हुआ, निरंतर दो-दो दिन के उपवास उसकी तुलना में मानसिक एकाग्रता चैतसिक वृत्तियों का करता हुआ, तप एवं संयम द्वारा आत्मा को भावित नियंत्रण, विशुद्धीकरण, ध्यान, समाधि आदि गौण हो गये स्वभावाप्तुत करता हुआ, ग्रामानुग्राम विहरण करता हुआ हैं। परिणामतः ध्यान संबंधी अनेक तथ्यों तथा विधाओं का सुंसुमार नगर पहुंचा। वहाँ अशोक वनखंड नामक उद्यान में लोप हो गया है। अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी पर स्थित शिलापट्ट के पास स्थानांगसूत्र स्थान ४, उद्देशक १, समवायांग सूत्र आया, वहाँ स्थित हुआ और तीन दिन का उपवास स्वीकार समवाय ४ तथा आवश्यक नियुक्ति, कार्योत्सर्ग अध्ययन किया। दोनों पैर संहृत किये - सिकोडे, आसनस्थ हुआ, आदि में इनके व्याख्यापरक वाङ्मय में तथा और भी भुजाओं को लंबा किया – फैलाया। एक पुद्गल पर दृष्टि अनेक आगम ग्रंथों और उनके टीका-साहित्य में एतद्विषयक स्थापित की, नेत्रों को अनिमेष रखा, देह को थोड़ा झुकाया, सामग्री बिखरी पड़ी हैं। १. अयमंतरंसि को एत्थ, अहमंसि त्ति भिक्खू आहटु । अयमुत्तमे से धम्मे, तुसिणीए स कसाइए झाति।। -आचारांग सूत्र, ६.२.१२ २. अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता अणुत्तरं झाणवरं झियाइ। सुसुक्क सुकं अपगंडसुकं, संखिंदु एगंत वदात सुक्कं।। - सूत्रकृतांग सूत्र १-६-१६ ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! छउमत्थ कालियाए, एक्कारसवास चरियाए, छटुं छटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे पुवाणुपुद्धिं चरमाणे गामाणुगाम दुइज्जमाणे जेणेव सुंसुमार पुरे नगरे जेणेव असोयसंडे उज्जाणे, जेणेव असोयवरपायवे, जेणेव पुढवीसिलावट्टए तेणेव उवागच्छामि । उवागछित्ता असोगवर पायवस्स हेट्टा पुढवी सिलावट्टयंसि अट्ठमभत्तं पगिण्हामि, दो वि पाए साहटु वग्यारिय पाणी, एग पोग्गल निविट्ठदिट्ठी अणिमिस णयणे, ईसिपब्भार गहणंकाएणं, अहापणिहिएहिं गत्तेहिं सबिंदिएहिं गुत्तेहिं एग राइयं महापडिमं उवसंपज्जेत्ता णं विहरामि। - व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र ३.२.१०५ जैन साधना और ध्यान ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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