Book Title: Jain Sadhna aur Dhyan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 6
________________ शारीरिक पीड़ाओं को भूल जाते हैं, जैसे एक व्यापारी व्यापार में भूख-प्यास आदि को भूल जाता है। अतः ध्यान में दैहिक पीड़ाओं का एहसास भी अल्पतम हो जाता है। आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग, जो ध्यान साधना की अग्रिम स्थिति है, के लाभों की चर्चा करते हुए आवश्यक नियुक्ति में लिखा है कि कायोत्सर्ग के निम्न पाँच लाभ हैं (२२) १. देह जाड्य शुद्धि-श्लेष्म एवं चर्बी के कम हो जाने से देह की जड़ता समाप्त हो जाती है। कार्योत्सर्ग से श्लेष्म चर्बी आदि नष्ट होते हैं, अतः उनसे उत्पन्न होने वाली जड़ता भी नष्ट हो जाती है। २. मति जाड्य शुद्धि-कायोत्सर्ग में मन की प्रवृत्ति केन्द्रित हो जाती है, उससे बौद्धिक जड़ता क्षीण होती है। ३. सुख-दुःख तितिक्षा, (समताभाव) ४. कायोत्सर्ग में स्थित व्यक्ति अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का स्थिरतापूर्वक अभ्यास कर सकता है। ५. ध्यान-कायोत्सर्ग में शुभ ध्यान का अभ्यास सहज हो जाता है। इन लाभों में न केवल आध्यात्मिक लाभों की चर्चा है अपितु मानसिक और शारीरिक लाभों की भी चर्चा है। वस्तुतः ध्यान साधना की वह कला है जो न केवल चित्त की निरर्थक भाग-दौड़ को नियंत्रित करती है, अपितु वाचिक और कायिक (दैहिक) गतिविधियों को भी नियंत्रित कर व्यक्ति को अपने आप से जोड़ देती है। हमें यह एहसास होता है कि हम अस्तित्व चैत्तसिक और दैहिक गतिविधियों से भी ऊपर हैं और हम उनके न केवल साक्षी है, अपितु नियामक भी हैं। ध्यान आत्म साक्षात्कार की कला - मनुष्य के लिये, जो कुछ भी श्रेष्ठतम और कल्याणकारी है, वह स्वयं अपने को जानना और अपने में जीना है। आत्म बोध से महत्वपूर्ण एवं श्रेष्ठतम अन्य कोई बोध है ही नहीं। आत्म साक्षात्कार या आत्मज्ञान ही साधना का सारतत्व है। साधना का अर्थ है अपने आप के प्रति जागना है। वह 'कोऽहं' से 'सोऽहं' तक की यात्रा है। साधना की इस यात्रा में अपने आप के प्रति जागना सम्भव होता है ध्यान के द्वारा। ध्यान में आत्मा, आत्मा के द्वारा आत्मा को जानता है। यह अपने आप के सम्मुख होता है। ध्यान से ज्ञाता अपनी ही वृत्तियों, भावनाओं, आवेगों और वासनाओं को ज्ञेय बनाकर वस्तुतः अपना ही दर्शन करता है। यद्यपि यह दर्शन तभी सम्भव होता है, जब हम इनका अतिक्रमण कर जाते हैं, अर्थात् इनके प्रति कर्ताभाव से मुक्त होकर साक्षी भाव जगाते हैं। अतः ध्यान आत्मा के दर्शन की कला है। ध्यान ही वह विधि है, जिसके द्वारा हम सीधे अपने ही सम्मुख होते हैं, इसे ही आत्म साक्षात्कार कहते हैं। ध्यान जीव में जिन का, आत्मा में परमात्मा का दर्शन कराता है। ___ध्यान की इस प्रक्रिया में आत्मा के द्वारा परमात्मा (शुद्धात्मा) के दर्शन के पूर्व सर्व प्रथम तो हमें अपने 'वासनात्मक स्व' (Id) का साक्षात्कार होता है- दूसरे शब्दों में हम अपने ही विकारों और वासनाओं के प्रति जागते हैं। जागरण के इस प्रथम चरण में हमें उनकी विद्रूता का बोध होता है। हमें लगता है कि ये हमारे विकार भाव हैं -विभाव हैं, क्योंकि हम में ये 'पर' केनिमित्त से होते हैं। यही विभाव दशा का बोध साधना का दूसरा चरण है। साधना के तीसरे चरण में साधक विभाग से रहित शुद्ध आत्म-दशा की अनुभूति करता है- यही परमात्म दर्शन है। स्वभावदशा में रमण है। यहाँ यह विचारणीय है कि ध्यान इस आत्म-दर्शन में कैसे सहायक होता है? ध्यान में शरीर को स्थिर रखकर आँख बन्द करनी होती है। जैसे ही आँख बन्द होती है व्यक्ति का सम्बन्ध बाह्य जगत से टूटकर अन्तर्जगत से जुड़ता है, अन्तर का परिदृश्य सामने आता है। अब हमारी चेतना का विषय बाह्य वस्तुएं न होकर मनोसृजनाएं होती है। जब व्यक्ति इन मनोसृजनाओं २२ आवश्यक नियुक्ति १४६२ (५८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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