Book Title: Jain Sadhna aur Dhyan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ विचलन में शरीर भी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। हम शरीर और इन्द्रियों के माध्यम से ही बाह्य विषयों से जुड़ते हैं और उनकी अनुभूति करते हैं। इस अनुभूति का अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव हमारी चित्तवृत्ति पर पड़ता है। जो चित्त विचलन का या राग-द्वेष का कारण होता है। चित्त (मन) और ध्यान - जैन दर्शन में मन की चार व्यवस्थाएँ- जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में चित्त या मन ध्यान साधना की आधारभूमि है, अतः चित्त की विभिन्न व्यवस्थाओं पर व्यक्ति के ध्यान साधना के विकास को ऑका जा सकता है। जैन परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र ने मन की चार अवस्थाएँ मानी है -१. विक्षिप्त मन, २. यातायात मन, ३. श्लिष्ट मन और, ४. सुलीन मन (३३। १ - विक्षिप्त मन - यह मन की अस्थिर अवस्था है, इसमें चित्त चंचल होता है, इधर-उधर भटकता रहा है, इसके आलम्बन प्रमुखतया बाह्य विषय ही होते हैं। इसमें संकल्प-विकल्प या विचारों की भाग-दौड़ मची रहती है, अतः इस अवस्था में मानसिक शान्ति का अभाव होता है। यह चित्त पूरी तरह वहिर्मुखी होता है। २ -यातायात मन - यातायात मन कभी वाह्य विषयों की ओर जाता है तो कभी अपने स्थिर होने का प्रयत्न करता है। यह योगाभ्यास के प्रारम्भ की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त अपने पूर्वाभ्यास के कारण बाहरी विषयों की ओर दौड़ता रहता है, वैसे थोड़े बहुत प्रयत्न से उसे स्थिर कर लिया जाता है। कुछ समय उस पर स्थिर रहकर पुनः वाह्य विषयों के संकल्प-विकल्प में उलझ जाता है। जब-जब कुछ स्थिर होता है तब मानसिक शान्ति एवं आनन्द का अनुभव करने लगता है। यातायात चित्त कथचित् अन्तर्मुखी और कथचित् बहिर्मुखी होता है। ३ -श्लिष्ट मन - यह मन की स्थिरता की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त की स्थिरता का आधार या आलम्बन विषय होता है। इसमें जैसे-जैसे स्थिरता आती है, आनन्द भी बढ़ता जाता है। ४- सुलीन मन - यह मन की वह अवस्था है, जिसमें संकल्प-विकल्प एवं मानसिक वृत्तियों का लय हो जाता है। इसे मन की निरूद्धावस्था भी कहा जा सकता है। यह परमानन्द की अवस्था है, क्योंकि इसमें सभी वासनाओं का विलय हो जाता है। बौद्ध-दर्शन में चित्त की चार अवस्थाएँ - अभिधम्मत्थसंगहो के अनुसार बौद्ध दर्शन में भी चित्त (मन) चार प्रकार का है -१. कामावचर, २. रूपावचर, ३. अरूपावचर और ४. लोकोत्तर (३७। १ . कामाववर चित्त - यह चित्त की वह अवस्था है, जिसमें कामनाओं और वासनाओं का प्राधान्य होता है। इसमें वितर्क एवं विचारों की अधिकता होती है। मन सांसारिक भोगों के पीछे भटकता रहता है। २ -रूपाववर चित्त - इस अवस्था में वितर्क-विचार तो होते हैं, लेकिन एकाग्रता का प्रयत्न भी होता है। चित्त का आलम्बन बाह्य स्थूल विषय ही होते हैं। यह योगाभ्यासी चित्त की प्राथमिक अवस्था है। ३३. योगशास्त्र, १२/२ ३४. अभिधम्मत्थसंगहो, पृ.१ (६२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29