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के चार भेदों की चर्चा के पश्चात् धर्म ध्यान के अन्तर्गत पदों के जाप और पंच परमेष्ठी के स्वरूप का भी निर्देश किया गया है (६९) । इसके टीकाकार ब्रह्मदेव ने यह भी बताया है कि जो ध्यान मात्र वाक्यों के आश्रित होता है वह पदस्थ है। जिस ध्यान में स्वआत्मा का चिन्तन होता है वह पिंडस्थ है, जिसमें चेतना स्वरूप या चिद्रूपता का विचार किया जाता है वह रूपस्थ है तथा निरंजन व निराकार का ध्यान ही रूपातीत है (७०), अमितगति (७१) अपने श्रावकाचार में ध्येय या ध्यान के आलम्बन की चर्चा करते हुए पिण्डस्थ आदि इन चार प्रकार का ध्यानों की विस्तार से लगभग २७ श्लोकों में चचा की है। यहाँ पिण्डस्थ से पहले पदस्थ ध्यान को स्थान दिया गया है। और उसकी विस्तृत चर्चा भी की गई है। शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में पदस्थ आदि ध्यान के इन प्रकारों की पूरे विस्तर के साथ लगभग २२७ श्लोकों में चर्चा की है। परवर्ती आचार्यों में वसुनन्दि, हेमचन्द्र, भास्करनन्दि आदि ने भी इनकी विस्तार से चर्चा की है। पुनः पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, वारुणी, और तत्वभू ऐसी पिण्डस्थ ध्यान की जो पाँच धारणाएँ कही गईं हैं उनका भी प्राचीन ग्रन्थों में कहीं उल्लेख नहीं मिलता है । तत्वार्थसूत्र और उसकी प्राचीन टीकाओं में लगभग ६ठीं- ७वीं शती तक इनका अभाव है। इससे यही सिद्ध होता है कि ध्यान के प्रकारों, उपप्रकारों, लक्षणों, आलम्बनों आदि की जो चर्चा जैन परम्परा में हुई है, वह क्रमशः विकसित होती रही है और उन पर अन्य परम्पराओं का प्रभाव भी है।
(७२)
प्राचीन आगमिक साहित्य में स्थानांग में ध्यान के प्रकारों लक्षणों, आलम्बनों और अनुप्रेक्षाओं का जो विवरण मिलता है वह इस प्रकार है -
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१(७ आर्तध्यान - आर्त्तध्यान हताशा की स्थिति है। स्थानांग के अनुसार इस ध्यान के चार उप प्रकार हैं अप्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर उसके वियोग की सतत् चिन्ता करना यह प्रथम प्रकार का आर्त्तध्यान है। दुःख के आने पर उसे दूर करने की चिन्ता करना यह आर्त ध्यान का दूसरा रूप है। प्रिय वस्तु का वियोग हो जाने पर उसकी पुनः प्राप्ति लिए चिन्तन करना तीसरे प्रकार का आर्त ध्यान है और जो वस्तु प्राप्त नहीं है उसकी प्राप्ति के लिए इच्छा करना चौथे प्रकार का आर्त ध्यान हैं। तत्वार्थ सूत्र के अनुसार यह आर्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत में होता है। इसके साथ ही मिथ्या दृष्टियां में भी इस ध्यान का सद्भाव होता है। सैद्धान्तिकदृष्टि से मिथ्या दृष्टि, अविरत सम्यक्दृष्टि तथा देशविरत सम्यक्दृष्टि में आर्त्तध्यान के उपभोक्ता चारों ही प्रकार पाये जाते हैं, किन्तु प्रमत्त संयत में अन्य निदान को छोड़कर अर्थात् अप्राप्त की प्राप्ति की आकांक्षा को छोड़कर अन्य तीन ही विकल्प होते हैं। स्थानांगसूत्र में इसके निम्न चार लक्षणों का उल्लेख हुआ है।
(७४)
१. क्रन्दनता २. शोचनता ३. तेपनता
४. परिदेवनता
६९.
७०.
७१.
७२.
७३.
७४.
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उच्च स्वर से रोना ।
दीनता प्रकट करते हुए शोक करना । आँसू बहाना।
करुणा - जनक विलाप करना ।
द्रव्य संग्रह (नेमीचन्द्र) ४८-५४
द्रव्यसंग्रह टीका (ब्रह्मदेव) गाथा ४८ की टीका
श्रावकाचार (अमितगति) परिच्छेद १५
ज्ञानार्णव ( शुभचन्द्र) सार्ग ३२-४०
स्थानांगसूत्र ४ / ६०-७२
स्थानांगसूत्र ४ / ६२
(७२)
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