Book Title: Jain Sadhna aur Dhyan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ ३ -अरूपावचर चित्त - इस अवस्था में चित्त का आलम्बन रूपवान् बाह्य पदार्थ नहीं है। इस स्तर पर चित्त की वृत्तियों में स्थिरता होती है लेकिन उसकी एकाग्रता निर्विषय नहीं होती। उसके विषय अत्यन्त सूक्ष्म जैसे अनन्त आकाश, अनन्त विज्ञान या अकिन्चनता होते हैं। ४ -लोकोत्तर चित्त - इस अवस्था में वासना-संस्कार, राग-द्वेष एवं मोह का प्रहाण हो जाता है। चित्त विकल्पशन्य हो जाता है इस अवस्था की प्राप्ति कर लेने पर निश्चित रूप से अर्हत पद एवं निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है। योगदर्शन में चित्त की पाँच अवस्थाएँ - योगदर्शन में चित्तभूमि (मानसिक अवस्था) के पाँच प्रकार हैं -१. क्षिप्त, २. मूढ़, ३. विक्षिप्त, ४. एकाग्र और ५. निरूद्ध। (२५) १ -क्षिप्त चित्त - इस अवस्था में चित्त रजोगुण के प्रभाव में रहता है और एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है। स्थिरता नहीं रहती है। यह अवस्था योग के अनुकूल नहीं है, क्योंकि इसमें मन और इन्द्रियों पर संयम नहीं रहता। २ -मढ चित्त - इस अवस्था में तम की प्रधानता रहती है और इससे निद्रा. आलस्य आदि का प्रादर्भाव होता है। निद्रावस्था में चित्त की वृत्तियों का कुछ काल के लिए तिरोभाव हो जाता है, परन्तु यह अवस्था योगावस्था नहीं है। क्योकि इसमें आत्मा साक्षी भाव में नहीं होता है। ३ - विक्षिप्त चित्त - विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए एक विषय में लगता है, पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर दौड़ जाता है और पहला विषय छूट जाता है। यह चित्त की आंशिक स्थिरता की अवस्था है। ४ -एकाग्र चित्त - यह अवस्था है, जिसमें चित्त देर तक एक विषय पर लगा रहता है। यह किसी वस्त पर मानसिक केन्द्रीकरण या ध्यान की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त किसी विषय पर विचार या ध्यान करता रहता है। इसलिए इसमें भी सभी चित्तवृत्तियों का निरोध नहीं होता, तथापि यह योग की पहली सीढ़ी है। ५ -निरूद्ध चित्त - इस अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का (ध्येय-विषय तक का भी) लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक स्थिर, शांत अवस्था में आ जाता है। जैन, बौद्ध और योग दर्शन में मन की इन विभिन्न अवस्थाओं के नामों में चाहे अन्तर हो, लेकिन उनके मूलभूत दृष्टिकोण में कोई अन्तर नहीं है, जैसा कि निम्न तालिका से स्पष्ट है। जैन दर्शन बौद्ध दर्शन योगदर्शन विक्षिप्त कामावचर क्षिप्त एवं मूढ़ यातायात रूपावचर विक्षिप्त श्लिष्ट अरूपावचर एकाग्र सुलीन लोकोत्तर निरूद्ध ३५. भारतीय दर्शन (दत्ता), पृ. १९० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29