Book Title: Jain Sadhna Paddhati me dhyan Author(s): Kanhiyalal Gaud Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 7
________________ पंचम खण्ड / ५० अर्चनार्चन ध्यान के योग्य स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त स्थान उद्यान, कदलीगह, पर्वत की गुफा, द्वीप, दो नदियों अथवा नदी और समुद्र का संगमस्थान, गांव का एकान्त घर, पर्वत-शिखर, वृक्ष, समुद्रतट आदि स्थान जहाँ स्त्री, पशु, नपुंसक, बालक आदि का आवागमन न हो और किसी प्रकार का कोलाहल न होता हो, ऐसा शांत स्थान संयमी मनियों के ध्यान की सिद्धि के लिए उत्तम है। ध्यान का स्थान पवित्र और किसी भी प्रकार के उपद्रव से रहित होना चाहिए। कारण कि ऐसे अनुकल स्थान के न मिलने से यदि प्रतिकुल स्थान पर ध्यान किया जाता है तो ध्यान भंग हो जाता है। हठयोगप्रदीपिका में कहा है कि अति आहार, परिश्रम, अधिक बोलना, नियम का अनादर, मनुष्यों का समागम और चंचलता, इन छह दोषों से योग का विनाश होता है और उत्साह, साहस, धैर्य, तत्त्वज्ञान, निश्चय तथा जन-समागम का परित्याग, इन छह नियमों से योग की सिद्धि होती है। दुर्जन के समीप वास, अग्नि का तापना, स्त्री-संसर्ग, तीर्थयात्रागमन, प्रातःस्नान, उपवासादि और शरीर को क्लेश देने वाली क्रियायें-इन सबका योगाभ्यासकाल में त्याग कर देना चाहिए। सब ओर से समान, पवित्र, कंकड़, अग्नि, रेती, कोलाहल और जलाशय से रहित मन के अनुकूल, मच्छरों से रहित, अतिवायु से रहित गुफा आदि स्थान में साधक को योगाभ्यास करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सब प्रकार से अनुकूल और निरुपद्रव स्थान ध्यान के लिए पसन्द करना चाहिए । ध्यान की स्थिति ध्यान के लिए शास्त्र में पूर्व अथवा उत्तर दिशा को उत्तम माना गया है। अतः इन दिशाओं की ओर मुख करके यथोचित समय, योग्य आसन लगाकर शान्तमुख, विक्षेप और प्रमाद से रहित मन वाले मुनि को नासिका के अग्रभाग पर दोनों नेत्रों को अत्यन्त स्थिर करके ध्यान के लिए बैठना चाहिए। ध्यान के लिए पूर्व या उत्तराभिमुख, योग्य समय और योग्य प्रासन लगाकर बैठना चाहिए। ध्यान में ध्याता का अपना मन विक्षेप तथा प्रमादयुक्त न बनने देना चाहिए । ध्यान-स्थिति के लक्षण प्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान, इन पांचों का योग जब सुष्ठरीति से होता है, तभी ध्यान सफल होता या यथार्थ ध्यान हुमा समझा जाता है। ध्यान के प्रकार . ध्यान चार प्रकार का है-(१) मार्त (२) रौद्र (३) धर्म और (४) शुक्ल । १८ इनमें प्रार्त और रौद्र ये दो ध्यान संसार के कारण हैं और धर्म तथा शुक्ल ये दो ध्यान मुक्ति के कारण हैं। विशेष रूप से प्रार्तध्यान को तिर्यंचगति का, रौद्रध्यान को नरकगति का, धर्मध्यान को देवगति का और शुक्लध्यान को मुक्ति का कारण माना गया है।" १७. कर्त्तव्यकौमुदी-पृ० ५५७, ५५८, ५५९, ५६० १८. प्रातरौद्रधर्मशुक्लानि । -त० सूत्र ९।२९ १९. परे मोक्षहेतु। -त० सूत्र ९।३० . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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