Book Title: Jain Sadhna Paddhati me dhyan
Author(s): Kanhiyalal Gaud
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 10
________________ जैन साधना-पद्धति में ध्यान | ५३ रूप से प्रतीत हुए निरंजन निराकार निर्मल सिद्ध भगवान् का प्राश्रय लेकर उनके साथ अपनी प्रात्मा के ऐक्य का अपने हृदय में एकाग्रतापूर्वक चिन्तन किया जाय तो उसे रूपातीत ध्येय कहते हैं ।२७ पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और प्राकाश-यह पाँच तत्त्व हैं। इन पांचों तत्त्वों का प्रत्येक पदार्थ पिण्ड बना है । इस पंचतत्त्व का ध्यान ही पिण्डस्थ ध्यान है। धर्मध्यान की प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए निम्न बातों की ओर साधक का ध्यान प्राकृष्ट किया गया है- (१) ध्यान की भावनाओं (२) देश (३) काल (४) प्रासन-विशेष (५) पालम्बन (६) क्रम (७) ध्यातव्य (८) ध्याता (९) अनुप्रेक्षा (१०) लेश्या (११) लिंग और (१२) फल, इनको जानकर धर्मध्यान करना चाहिये। तत्पश्चात धर्मध्यान का अभ्यास कर लेने पर शुक्लध्यान करना चाहिये ।२८ धर्मध्यान का फल-प्राचीन ऋषि-मुनियों का यह कथन है कि यह धर्मध्यान वैराग्य को सजीव करने वाला है, लेश्या की शुद्धि करने वाला है, अशुभ कर्मों के ईंधन को जलाकर भस्म करने वाला है, काम-विकार रूपी अग्नि को बुझाने के लिये अंभोधर-मेघ के समान है, प्रथम पालम्बन सहित है, तो भी निरन्तर के अभ्यास से ज्यों-ज्यों विशुद्ध होता जाता है, त्यों त्यों ध्यान को पालम्बनरहित और निर्मल शुक्लध्यान की सीमा में क्रमशः पहुँचा देता है।२८ प्राचार्य श्री हेमचन्द्राचार्य धर्मध्यान के फल के विषय में कहते हैं अस्मिन्नितान्त वैराग्यव्यतिषङ्ग तरङ्गिते। जायते देहिनां सौख्यं स्वसंवेद्यमतीन्द्रियम् ॥ अर्थात् इस ध्यान में अत्यन्त वैराग्य रस के संयोग से तरंगित हुए योगियों को स्वतः अनुभव में आने वाला अतीन्द्रिय आत्मिक सुख प्राप्त होता है। यह प्रात्मिक सुख ही चित्त की राग-द्वेष रहित समस्थिति का पर्यायवाचक है। सालंब ध्यान में धर्मध्यान उच्च शिखर पर विराजमान है और निरालंब ध्यान में प्रवेश करने का वह अन्तिम सोपान है। योगिजन यह कहते हैं कि शुक्लध्यान के योग्य इस समय मनुष्यों का शारीरिक संगठन नहीं रह गया है। कारण कि शरीर के टुकड़े हो जाने पर भी चित्त की समस्थिति में क्षेप-विक्षेप उत्पन्न न हो, ऐसा शरीर संस्थान होना चाहिये और वह इस काल में नहीं होता; अतएव धर्मध्यान शुक्लध्यान का प्रवेश मार्ग होने पर भी आधुनिक काल में धर्मध्यान ही सर्वथा उपयोगी और अभ्यास करने और ग्रहण करने योग्य ध्यान है। शास्त्रीय दृष्टि से शुक्लध्यान का स्पर्श कराने वाला धर्मध्यान ही है। (४) शुक्लध्यान-जिस ध्यान में इन्द्रियों को विषय की समीपता प्राप्त होते ये भी वैराग्य बल से चित्तवृत्ति बिल्कुल बहिर्मुख न हो, किसी शस्त्र से शरीर का छेदन करने अथवा काटने पर भी स्थिर हुमा चित्त तनिक भी न कम्पित हो, उस ध्यान को शुक्लध्यान कहा जाता है। इसके भी चार प्रकार हैं। यह ध्यान स्वरूपाभिमुख है और राग-द्वेष तथा कषाय का सर्वथा २७. क० को०, पृ० ५७०-५७१ २८. ध्यान शतक, प्रस्ता० पृ० ५ क० को०, पृ० ५७८-५८० आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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