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जैन साधना-पद्धति में ध्यान
[ कन्हैयालाल गौड़, एम. ए., साहित्यरत्न
अनादिकाल से आज तक विश्व में जितनी भी वन्दनीय एवं पूजनीय महान मात्माएं हुई हैं, उन सभी ने अपनी दृढ़ साधना के बल पर ही उच्चता प्राप्त कर अपनी प्रात्मा का विकास किया है और आज भी साधक अपनी दृढ़ साधना के द्वारा आत्मा का विकास कर रहे हैं।
जब साधक के जीवन का प्राध्यात्मिक विकास हो जाता है तो उसके जीवन की साधना तेजस्वी होती है, उसके जान, दर्शन, चारित्र, तप, विनय, ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, दया, क्षमादि धर्म आदि सब पात्मिक गुणों में आत्मिक विवेक सहज, अकृत्रिम, तेजस्वी, सुदृढ़ एवं अविचल हो जाता है।
साधना-पथ पर पैर रखने पर कदम-कदम पर कष्टों और संकटों का सामना करना पड़ता है। साधक की तप-साधना कर्मक्षय के लिये होती है। साधना की तीन श्रेणियाँ हैं(१) ज्ञान (२) तप और (३) चारित्र ।
ज्ञान मनुष्य में मोक्ष और संसार संबंधी विवेक को जागृत कर देता है, प्रत्येक पदार्थ के स्वरूप का यथार्थ भान करा देता है, जिससे मनुष्य विवेक से हेय मार्ग को त्याग कर उपादेय मार्ग को अपना सकता है। इसीलिये भगवान् महावीर का कथन है-"ज्ञान समस्त वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने के लिए है, अज्ञान और मोह को मिटाने के लिये है।"
जैनधर्म अन्तरंग की साधना पर विशेष बल देता है, बाह्य साधना पर नहीं। साधना किसी भी तप-जप की हो अथवा व्रत-नियम की हो, वह हृदय की पवित्रता से ही सिद्ध होती है । यदि साधना प्रारंभ करने से पूर्व साधक का मन पवित्र नहीं है, कलुषित है, विकारों से अोतप्रोत है, तो वह क्षम्य नहीं। संयमव्रत ग्रहण करने से मन में पवित्रता आती है। यदि साधक संयमव्रत को ग्रहण कर साधना करे तो उस साधना में बल पा जाता है। साधक का मन भी पवित्र विचार और स्पष्ट चिन्तन देता रहता है।
साधना में ध्यान का लक्षण
साधना में ध्यान का विशेष महत्त्व है। यदि साधना में चित्त एकाग्र नहीं है तो वह साधना निष्फल जायगी। अतः साधक को साधना करते समय चित्त को एकाग्र रखना आवश्यक है। चित को एकाग्र रखना ही ध्यान है । अथवा अपने लक्ष्य या ध्येय की अोर मन को एकाग्र करने को ही ध्यान कहा है । अपने लक्ष्य में चित्त की एकाग्रता ही ध्यान है।
एक ही वस्तु में अंतर्मुहूर्तमात्र जो चित का अवस्थान-एकाग्रता है, वह छानस्थिक का ध्यान और योग का निरोध जिनेश्वरों का ध्यान है।
महर्षि पतञ्जलि द्वारा रचित योगशास्त्र में ध्यान के लक्षण को स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि धारणा में जहाँ चित्त को धारण किया गया है वहीं पर जो प्रत्यय की एकाग्रता है
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विसदृश परिणाम को छोड़ कर जिसे धारणा में पालम्बनभूत कहा गया है, उसी के पालम्बन रूप से जो निरन्तर ज्ञान की उत्पत्ति होती है उसे ध्यान कहते हैं।' प्राचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने ध्यान का लक्षण स्पष्ट करते हुये बताया-शुभ प्रतीकों पर एकाग्रता अथवा पालम्बन पर चित्त का स्थिरीकरण मनीषी-ज्ञानी जनों द्वारा ध्यान कहा जाता है। वह दीपक की स्थिर लौ के समान ज्योतिर्मय होता है, सूक्ष्म तथा अन्तःप्रविष्ट चिन्तन से समायुक्त होता है।
ध्यान के फलस्वरूप वशित्व-आत्मवशता, प्रात्म-नियंत्रण या जितेन्द्रियता अथवा सर्वत्र प्रभविष्णुता, सब पर अक्षुण्ण प्रभावशीलता, मानसिक स्थिरता तथा संसारानुबन्ध-भवपरंपरा का उच्छेद जन्म-मरण से उन्मुक्त भावसिद्ध होता है।
प्राचार्य हेमचन्द्राचार्य रचित योगशास्त्र में निर्दिष्ट किया है-समत्व का अवलम्बन लेने के पश्चात योगी को ध्यान का प्राश्रय लेना चाहिये। समभाव की प्राप्ति के बिना ध्यान के प्रारम्भ करने पर अपनी प्रात्मा विडम्बित होती है। क्योंकि बिना समत्व के ध्यान में भली-भांति प्रवेश नहीं हो सकता । महर्षि कपिलमुनि द्वारा लिखित सांख्यसूत्र में राग के विनाश को और निविषय मन को ध्यान कहा गया है। विष्णपुराण में ध्यान का लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा गया है-अन्य विषयों की ओर से निस्पृह होकर परमात्मस्वरूप को विषय करने वाले ज्ञान की एकाग्रता सम्बन्धी परम्परा को ध्यान कहा जाता है। यह यम, नियमादि प्रथम छह योगांगों से सिद्ध किया गया है।' ध्यान अनुभव की ओर जाने वाला मार्ग है। ध्यान की प्रक्रिया में दो प्रवृत्तियाँ सक्रिय रहती हैं-पाकर्षण, विकर्षण । विकर्षण लौकिकता से और आकर्षण प्रलौकिकता के प्रति यानी प्रात्मस्वरूप के प्रति । यानी इस प्रक्रिया में हम पुद्गल से जीव का जो प्रगाढ़ पाश्लेष है, उसे सम्यग्ज्ञान की प्रखरता के औजार से तोड़ने का प्रयत्न करते हैं, साधन अन्तःज्ञान ही होता है, ध्यान मात्र उसे प्रखरता/तीव्रता/ तीक्ष्णता प्रदान करता है। कहें हम कि ज्ञान, ध्यान पर शान चढ़ाता जाता है और ज्यों-ज्यों हम प्रखर होते हैं, उक्त श्लेष ढीला पड़ता जाता है। ध्यान में संतुलन, समत्व और सम्यक्त्व का शीर्ष महत्त्व है। तत्त्वार्थसूत्र में अनेक अर्थों का पालम्बन लेने वाली चिन्ता के निरोध को, अन्य विषय की ओर से हटा कर उसे किसी एक ही वस्तु में नियंत्रित करने को ध्यान कहा है । अथवा उत्तम (प्रथम तीन) संहनन वाले जीव का किसी एक विषय पर एकाग्ररूप चिन्ता का निरोध ध्यान है।" तत्त्वार्थसूत्र के समान तत्त्वानुशासन में भी एकाग्र
१. तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम्। -योगसूत्र ३-२ २. जैन योगग्रन्थचतुष्टय, प्राचार्य हरिभद्र सूरि, पृ. १८१-१८२ (हिन्दी अनुवाद) ३. समत्वमवलमब्याथ, ध्यानं योगी समाश्रयेत् ।
बिना समत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्मा विडम्ब्यते। योगशास्त्र १०५-११२ ४. रागोपहतिया॑नम् । -सांख्यद., ३-३० एवं ६-२५ ५. तद्रूप प्रत्ययैकाग्रय सन्ततिश्चान्य निःस्पृहा।
तद्ध्यानं प्रथमैरङ्गः षभिनिष्पाद्यते नृप ।। -वि० प्र० ६-७-८९
तीर्थकर मासिक, जैन-ध्यान-योग विशेषांक, अप्रेल-८३, पृष्ठ १० ७. उत्तम संहननस्यै काग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ॥ -त० सूत्र०९।२७
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके nश्वस्त जम
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चिन्तानिरोध को ध्यान का लक्षण निदिष्ट किया गया है। प्राचार्य अमितगति (प्रथम) विरचित योगसारप्रभूत में ध्यान के लक्षण का निर्देश करते हए यह कहा है कि प्रात्मस्वरूप का प्ररूपक रत्नत्रयमय ध्यान किसी एक ही वस्तु में चित्त को स्थिर करने वाले सन्त के होता है, जो उसके कर्मक्षय को करता है। तत्त्वार्थाधिगम भाष्यानुसारिणी सिद्धसेनगणि विरचित टीका में प्रागमोक्त विधि के अनुसार वचन, काय और चित्त के निरोध को ध्यान कहा गया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने ध्यान को सम्यग्दर्शन व ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य के संसर्ग से रहित कहा है।'० भगवती आराधना की विजयोदयाटीका में राग-द्वेष और मिथ्यात्व के सम्पर्क से रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है, उसे ध्यान कहा गया है। वहाँ आगे एकाग्र चिन्ता-निरोध को भी ध्यान कहा गया है । प्रादि पुराण में स्थिर अध्यवसान को-एक वस्तु का आलम्बन लेने वाले मन को ध्यान कहा गया है ।''
ध्यान की आवश्यकता
कर्म का सर्वथा विलय होना मोक्ष है। यानी कर्म और दुःख के बन्धन से सर्वथा छुट जाना मोक्ष है और प्रात्मा का भान हुए बिना उसका होना संभव नहीं है । चित्त की साम्यावस्था के बिना संयमी को भी प्रात्मा का भान होना सुलभ नहीं है, चित्त की साम्यावस्था भी मल और विक्षेप को दूर करने वाले शुभ ध्यान के बिना सर्वथा संभव नहीं है। इसलिए संयमधारियों को मोक्षप्राप्ति के लिए परम्परा से धर्मध्यान और शुक्लध्यान का प्राश्रय लेना चाहिए ।।२
शुभ ध्यान का फल प्रात्म-साक्षात्कार है और आत्म-साक्षात्कार मोक्ष का साधन है। इसलिए शास्त्रों में ध्यान की परमावश्यकता बतलाई है। जब तक चित्त ध्यान के द्वारा साम्यावस्था नहीं प्राप्त करता और साम्यावस्था के लिए चित्त के मल विक्षेप रूपी दोषों का नाश नहीं होता तब तक मुमुक्षु को आत्मा का भान नहीं होता। इसीलिए कहा है--जो कोई सिद्ध हुए हैं, सिद्ध होते हैं और सिद्ध होंगे वे सब शुभाशय वाले ध्यानतप के बल से ही सिद्धता प्राप्त करते हैं।१४ निर्जरा करने में बाह्यतप से प्राभ्यान्तर तप श्रेष्ठ है, इसमें भी ध्यानतप
८. तत्त्वानुशासन-५६ ९. ध्यानशतक तथा ध्यानस्तव प्रस्ता० पृ० २७ उद्धृत १०. दंसण-णाणसमग्गं झाणं णो अण्णदग्वसंजुत्तं ।-पंचा० का० १५२ ११. भगवती आराधना विजयोदयाटीका-२१ व ७० १२. आदिपुराण-२१-९ १३. मोक्षः कर्मक्षयात्मकः स च भवेनैवात्मभानं विना ।
तम्दानं सुलभं भवे न यमिनां चित्तस्य साम्यं विना ।। साम्यं सिद्धयति नैव शुद्धिजनकं ध्यानं विना सर्वथा ।
तस्माद् ध्यानयुगं श्रयेन्मुनिवरो धम्यं च शुक्लं पुनः ॥ -कर्तव्यकौमुदी, २०१४५५४ १४. सिद्धाः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति यावन्तः केऽपि मानवाः ।
ध्यानतपोबलेनैव ते सर्वेऽपि शुभशयाः ॥ -वही ५५५ पृ०
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महासतीजी अपनी सुशिष्याओंनी प्रतिभाजी एवं नी सुप्रभाजीक साथ ध्यान योग में लीन | उदयमंदिर,जोधपुर सं.२०३७ *
परम साधिका श्रीमती इन्दर बाईभण्डारी महासती जी के साथ
ध्यान में मग्न।
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एकछत्र है, चक्रवर्ती है, मुनिगण ऐसा कहते हैं । १५ ध्यान के बिना आत्मा का भान नहीं होता और केवल शुभध्यान से ही ग्रात्मभान होने पर संसार तर जाने के उदाहरण मिलते हैं । मुंडकोपनिषद् में भी कहा गया है - ' ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः' अर्थात् ध्यान करने वाला पुरुष ही मन शुद्ध होने पर परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार करता है । 'ध्यानबिन्दु उपनिषद् में कहा गया है यदि पर्वत के समान ऊँचे और अनेक योजन तक विस्तार वाले पाप हों तो भी ब्रह्म का ध्यान करने से उन सब पापों का भेदन हो जाता है, अन्य किसी भी उपाय से नहीं होता ।
ध्यान का महत्त्व
विश्व का प्रत्येक प्राणी सुख का इच्छुक है, दुःख कोई नहीं चाहता है । पर वह सुख क्या है और कहाँ है और उसके प्राप्त करने के उपाय क्या हैं? जो वस्तुतः सुख-दुःख के कारण नहीं हैं उन बाह्य पदार्थों में सुख-दुःख की कल्पना करके राग-द्वेष व मोह के वशीभूत होते हुए कर्म से सम्बद्ध होते हैं। इस प्रकार कर्मबन्धन में बंधकर वे सुख के स्थान में दुःख ही अनुभव किया करते हैं। अज्ञानी प्राणी जिसे सुख मानता है वह यथार्थ में सुख नहीं, पर सुख का प्रभास मात्र है। ऐसे इन्द्रियजनित क्षणिक सुख के विषय में कहा गया है - वह पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त होता है, अतः प्राप्त भी हुआ तो वह जब तक पुष्य का दुःखों से व्यवहित है। उस सुख के पुण्यकर्म के क्षीण हो जाने ऐसे दुःखमिश्रित सुख को
काल्पनिक सुख प्रथम तो सातावेदनीय श्रादि पराधीन है। दूसरे पुण्यकर्म के संयोग से यदि वह उदय है, तभी तक संभव है। तीसरे उसकी उत्पत्ति पश्चात् पुनः अनिवार्य दुःख प्राप्त होने वाला है । कारण यह कि पर दुःख के कारणभूत पाप का उदय अवश्यंभावी है। श्रद्धेय कहा गया है ।
इसलिए
ध्यान तप का प्रमुख कारण है, वह तप संवर व निर्जरा का कारण है तथा वे संवर व निर्जरा मुक्ति के कारण हैं । इस प्रकार परम्परा से मुक्ति का कारण ध्यान ही है । जिस प्रकार अग्नि चिरसंचित ईंधन को भस्मसात् कर देती है उसी प्रकार ध्यान चिरसंचित कर्म रूप ईंधन को भस्मसात् कर देता है । प्रथवा जिस प्रकार वायु के श्राघात से मेघों
का समूह छिन्न-भिन्न हो जाता है उसी प्रकार ध्यान रूप समूह क्षण भर में विलीन हो जाता है । इतना ही नहीं ध्यान के मानसिक और शारीरिक दुःखों से भी संतप्त नहीं होता । इस सामर्थ्य है ।
वायु के प्राघात से कर्मरूप मेघप्रभाव से इस लोक में प्रकार ध्यान में अपूर्व
धौर मोह से
होता है वहाँ
ध्यान पर पारूढ़ हुआ ध्याता चूंकि इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष रहित हो जाता है, इसलिए उसके जहाँ नवीन कर्मों के प्रागमन का निरोध ध्यान से उद्दीप्त तप के प्रभाव से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा भी होती है। इस प्रकार वह ध्यान परम्परा से निर्वाण का कारण है ।१६
१५. निर्जराकरणे बाह्यात्छु ष्ठमाभ्यन्तरं तपः । तत्राप्येकातपत्रत्वं ध्यानस्य मुनयो जगुः ॥ १६. ध्यानशतक तथा ध्यानस्तव, प्रस्तावना पृ०
कर्तव्यकौमुदी पृ० ५५५ १०-११
आसमस्थ तम
आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड / ५०
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ध्यान के योग्य स्थान
ध्यान के लिए उपयुक्त स्थान उद्यान, कदलीगह, पर्वत की गुफा, द्वीप, दो नदियों अथवा नदी और समुद्र का संगमस्थान, गांव का एकान्त घर, पर्वत-शिखर, वृक्ष, समुद्रतट आदि स्थान जहाँ स्त्री, पशु, नपुंसक, बालक आदि का आवागमन न हो और किसी प्रकार का कोलाहल न होता हो, ऐसा शांत स्थान संयमी मनियों के ध्यान की सिद्धि के लिए उत्तम है।
ध्यान का स्थान पवित्र और किसी भी प्रकार के उपद्रव से रहित होना चाहिए। कारण कि ऐसे अनुकल स्थान के न मिलने से यदि प्रतिकुल स्थान पर ध्यान किया जाता है तो ध्यान भंग हो जाता है। हठयोगप्रदीपिका में कहा है कि अति आहार, परिश्रम, अधिक बोलना, नियम का अनादर, मनुष्यों का समागम और चंचलता, इन छह दोषों से योग का विनाश होता है और उत्साह, साहस, धैर्य, तत्त्वज्ञान, निश्चय तथा जन-समागम का परित्याग, इन छह नियमों से योग की सिद्धि होती है। दुर्जन के समीप वास, अग्नि का तापना, स्त्री-संसर्ग, तीर्थयात्रागमन, प्रातःस्नान, उपवासादि और शरीर को क्लेश देने वाली क्रियायें-इन सबका योगाभ्यासकाल में त्याग कर देना चाहिए। सब ओर से समान, पवित्र, कंकड़, अग्नि, रेती, कोलाहल और जलाशय से रहित मन के अनुकूल, मच्छरों से रहित, अतिवायु से रहित गुफा आदि स्थान में साधक को योगाभ्यास करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सब प्रकार से अनुकूल और निरुपद्रव स्थान ध्यान के लिए पसन्द करना चाहिए । ध्यान की स्थिति
ध्यान के लिए शास्त्र में पूर्व अथवा उत्तर दिशा को उत्तम माना गया है। अतः इन दिशाओं की ओर मुख करके यथोचित समय, योग्य आसन लगाकर शान्तमुख, विक्षेप और प्रमाद से रहित मन वाले मुनि को नासिका के अग्रभाग पर दोनों नेत्रों को अत्यन्त स्थिर करके ध्यान के लिए बैठना चाहिए।
ध्यान के लिए पूर्व या उत्तराभिमुख, योग्य समय और योग्य प्रासन लगाकर बैठना चाहिए। ध्यान में ध्याता का अपना मन विक्षेप तथा प्रमादयुक्त न बनने देना चाहिए । ध्यान-स्थिति के लक्षण प्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान, इन पांचों का योग जब सुष्ठरीति से होता है, तभी ध्यान सफल होता या यथार्थ ध्यान हुमा समझा जाता है। ध्यान के प्रकार .
ध्यान चार प्रकार का है-(१) मार्त (२) रौद्र (३) धर्म और (४) शुक्ल । १८ इनमें प्रार्त और रौद्र ये दो ध्यान संसार के कारण हैं और धर्म तथा शुक्ल ये दो ध्यान मुक्ति के कारण हैं। विशेष रूप से प्रार्तध्यान को तिर्यंचगति का, रौद्रध्यान को नरकगति का, धर्मध्यान को देवगति का और शुक्लध्यान को मुक्ति का कारण माना गया है।"
१७. कर्त्तव्यकौमुदी-पृ० ५५७, ५५८, ५५९, ५६० १८. प्रातरौद्रधर्मशुक्लानि । -त० सूत्र ९।२९ १९. परे मोक्षहेतु। -त० सूत्र ९।३० .
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होने पर उनके वियोग की जो चिन्ता भविष्य में उनके पुनः संयोग न होने की रोगजनित पोड़ा के होने पर उसके संयोग न होने की जो चिन्ता होती प्रकार का है अभीष्ट विषयों का संयोग होने विषयक और वर्तमान में यदि उनका संयोग नहीं
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(१) आतं ध्यान -प्रनिष्ट विषयों का संयोग होती हैं और उनका वियोग हो जाने पर भी जो चिन्ता होती है, उसे आतंध्यान माना गया है। वियोग की चिन्ता के साथ भविष्य में उसके पुनः है, उसे प्राध्यान कहा गया है। यह दूसरे पर उनका भविष्य में कभी वियोग न होने है तो उनकी प्राप्ति किस प्रकार से हो इसके लिए भी जो चिन्ता होती है, उसे तीसरा प्रातंध्यान माना जाता है। यदि संयम का परिपालन अथवा तपश्चरण द्यादि कुछ अनुष्ठान किया गया है तो उसके फलस्वरूप इन्द्र व चक्रवर्ती मादि की विभूतिविषयक प्रार्थना करना इसे चौथे प्रार्त्तध्यान का लक्षण कहा गया है । ध्यानशतक की तरह तत्त्वार्थ सूत्र में भी प्रिय वस्तु का संयोग हो जाने पर उसका वियोग होने के लिए पुनः पुनः विचार करना अनिष्टसंयोग नामक प्रथम प्राध्यान है। २० वेदना पीड़ा से छूटने के लिए जो चित्त की एकाग्रता होती है वह पीड़ा चिंतन नामक दूसरा प्रार्त्तध्यान है । २ इष्ट (प्रिय) वस्तु का वियोग हो जाने पर उसका संयोग होने के लिए पुनः पुनः विचार करना इष्टवियोग नामक तीसरा प्रातध्यान है।" तपश्चर्या यादि के फलस्वरूप परलोक में सांसारिक विषयों का संकल्प करना निदान नामक चौथा प्रातंध्यान है। ये चार प्रकार के प्राध्यान अविरत, देशबिरति धौर प्रमत्तसंयत जीवों को ही हुआ करते हैं। *४ प्राध्यान का स्वरूप वर्णित करते हुए उसके फल, लेश्या, लिंग और स्वामियों का निर्देश किया गया है ।
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(२) रौद्रध्यान हिंसा, असत्य, चोरी रौद्रध्यान है। यह अविरत और देशविरत क्रोध व लोभ के वशीभूत होकर दूसरों की उसे रौद्रध्यान समझना चाहिये ।
और विषयों की रक्षा के लिये सतत चिन्तन जीवों के ही सम्भव है। अथवा जिसका मन धन सम्पत्ति आदि के अपहरण में लगा रहता है
(३) धर्मध्यान- धर्मध्यान के कुल चार प्रकार हैं- (१) प्रज्ञा-विचय, (२) अपाय- विचय, (३) विपाक - विचय और (४) संस्थान- विचय। मन की एकाग्रता धर्मध्यान है ।
आत्मा के उद्धार के लिये इसका चिन्तन किया जाय और इस पर मन को एकाग्र कर लिया जाय तब धर्मध्यान के प्रथम प्रकार 'प्राज्ञा-विचय' की निष्पत्ति होती है। राग, द्वेष और कषाय के दोषों से क्या-क्या हानियां होती हैं, जब इनका चिन्तन किया जाय और इन दोषों की शुद्धि के लिये दृढ़ विचार करते हुए उन पर मन को एकाग्र कर लिया जाय तो 'अपाय विषय 'धर्मध्यान का दूसरा प्रकार सिद्ध होता है।
२०. प्रार्त्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥ त. सू. ९।३१
२१. वेदनायाश्च ।। त. सू. ९३२
२२. विपरीतं मनोज्ञानाम् । त. सु. ९१३३
२२. निदानं च । त. सू. ९०३४
२४. तदविरतदेशवित्तप्रमत्तसंयतानाम् । त. सू. ९३५
२५. हिंसानृतस्य विषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेश विरतयोः ॥ त. सू. ९०३६
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पंचम खंड / ५२
अर्चनार्चन
विपाक-विचय और संस्थान-विचय विश्व की सर्व सम्पत्ति अथवा विपत्ति, सुख या दुःख, संयोग या वियोग, पूर्व-जन्म के उपाजित अपने पुण्य या पाप के ही फल हैं, जब यह विचार किया जाय और इस पर अपने मन को एकाग्र कर लिया जाय तब विपाक-विचय नामक धर्मध्यान के तीसरे प्रकार की सिद्धि होती है और जब इस लोक-जगत के नख से शिख तक के आकार और उसमें जीव का जाना और प्राना-जन्म और मरण अथवा परिभ्रमण को अपने एकाग्र हुए निर्मल मन में चिन्तन किया जाय, तो संस्थान-विचय नामक धर्मध्यान का चौथा प्रकार सिद्ध होता है। प्राचार्य श्री हेमचन्द्राचार्य कहते
नानाद्रव्यगतानन्तपर्याय-परिवर्तनात् ।
सदासक्त मनो नव रागाद्याकुलतां व्रजेत् ।। अर्थात इस लोकस्वरूप पर विचार करने से, द्रव्यों के अनन्त पर्यायों के परावर्तन करने से, निरंतर उसमें आसक्त रहने वाला मन रागादि की आकुलता नहीं प्राप्त करता। इस प्रकार धर्मध्यान के चारों प्रकार प्रात्मा के निर्मल करने में साधन रूप हैं। धर्मध्यान के आलम्बन और भावना
धर्मध्यानरूपी पर्वत पर चढ़ने के लिये शास्त्र में चार प्रकार के पालम्बन-सहारे-बताये गये हैं-(१) आध्यात्मिक और (२) तात्त्विक शास्त्रों का पठन, परियटणा-मनन-करने योग्य विषय पर ऊहापोह करना और अभ्यस्त तत्त्वों पर कथा कहना । यह चार पालम्बन ध्यान के इच्छुक को ग्रहण करना चाहिए। ध्यान की विशुद्धि के लिए अनित्य भावना, अशरण भावना, संसार भावना और एकत्व भावना, यह चार भावनायें तब तक करते रहना चाहिये, जब तक उत्कृष्ट से उत्कृष्ट रुचि उत्पन्न न हो जाय ।" ध्येय के चार प्रकार
ध्यान की विधि में ध्येय के चार प्रकार शास्त्रों में मिलते हैं-पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । इनमें पार्थिवी प्रादि धारणा के रूप में एकाग्रता से प्रात्मा का चिन्तन किया जाय, उसे ध्येय के चार प्रकारों में से प्रथम पिण्डस्थ ध्येय कहते हैं।
पदस्थ ध्येय-नाभि में सोलह पंखुड़ियों वाले, चित्त में चौबीस पंखड़ियों वाले और मुख में पाठ पँख ड़ियों वाले कमल की कल्पना करके, उस पर प्रत्येक पंखड़ी पर कोई प्रक्षर बनाकर, एकाग्रतापूर्वक उसका या पंच परमेष्ठि मंत्र के शब्दों का एकाग्र मन से स्थिरतापूर्वक चिंतन करने को पदस्थ ध्येय अथवा ध्यान कहते हैं।
रूपस्थ और रूपातीत-भगवान महावीर की शान्त अवस्था का निर्मल स्वरूप, स्थिर और एकाग्र चित्त में स्थापित करके प्रति निर्मलता से समय निर्धारित कर उसका चिन्तन किया जाय, तो वह रूपस्थ ध्येय कहलाता है।
२६. धर्मध्याननगाधिरोहणकृते शास्त्रोक्तमालंबनं ।
ग्राह्य वाचनप्रच्छनोहन कथेत्येवं चतुर्भेदकम् ।। संसाराशरणेकता क्षणिकता रूपाश्चतुर्भावना। भाव्या-ध्यानविशुद्धये समुदिपाद्यावत्प्रकृष्टा रुचिः ॥ -कर्त्तव्यकौमुदी ५६७१२०६ .
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रूप से प्रतीत हुए निरंजन निराकार निर्मल सिद्ध भगवान् का प्राश्रय लेकर उनके साथ अपनी प्रात्मा के ऐक्य का अपने हृदय में एकाग्रतापूर्वक चिन्तन किया जाय तो उसे रूपातीत ध्येय कहते हैं ।२७
पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और प्राकाश-यह पाँच तत्त्व हैं। इन पांचों तत्त्वों का प्रत्येक पदार्थ पिण्ड बना है । इस पंचतत्त्व का ध्यान ही पिण्डस्थ ध्यान है।
धर्मध्यान की प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए निम्न बातों की ओर साधक का ध्यान प्राकृष्ट किया गया है- (१) ध्यान की भावनाओं (२) देश (३) काल (४) प्रासन-विशेष (५) पालम्बन (६) क्रम (७) ध्यातव्य (८) ध्याता (९) अनुप्रेक्षा (१०) लेश्या (११) लिंग और (१२) फल, इनको जानकर धर्मध्यान करना चाहिये। तत्पश्चात धर्मध्यान का अभ्यास कर लेने पर शुक्लध्यान करना चाहिये ।२८
धर्मध्यान का फल-प्राचीन ऋषि-मुनियों का यह कथन है कि यह धर्मध्यान वैराग्य को सजीव करने वाला है, लेश्या की शुद्धि करने वाला है, अशुभ कर्मों के ईंधन को जलाकर भस्म करने वाला है, काम-विकार रूपी अग्नि को बुझाने के लिये अंभोधर-मेघ के समान है, प्रथम पालम्बन सहित है, तो भी निरन्तर के अभ्यास से ज्यों-ज्यों विशुद्ध होता जाता है, त्यों त्यों ध्यान को पालम्बनरहित और निर्मल शुक्लध्यान की सीमा में क्रमशः पहुँचा देता है।२८ प्राचार्य श्री हेमचन्द्राचार्य धर्मध्यान के फल के विषय में कहते हैं
अस्मिन्नितान्त वैराग्यव्यतिषङ्ग तरङ्गिते।
जायते देहिनां सौख्यं स्वसंवेद्यमतीन्द्रियम् ॥ अर्थात् इस ध्यान में अत्यन्त वैराग्य रस के संयोग से तरंगित हुए योगियों को स्वतः अनुभव में आने वाला अतीन्द्रिय आत्मिक सुख प्राप्त होता है। यह प्रात्मिक सुख ही चित्त की राग-द्वेष रहित समस्थिति का पर्यायवाचक है। सालंब ध्यान में धर्मध्यान उच्च शिखर पर विराजमान है और निरालंब ध्यान में प्रवेश करने का वह अन्तिम सोपान है। योगिजन यह कहते हैं कि शुक्लध्यान के योग्य इस समय मनुष्यों का शारीरिक संगठन नहीं रह गया है। कारण कि शरीर के टुकड़े हो जाने पर भी चित्त की समस्थिति में क्षेप-विक्षेप उत्पन्न न हो, ऐसा शरीर संस्थान होना चाहिये और वह इस काल में नहीं होता; अतएव धर्मध्यान शुक्लध्यान का प्रवेश मार्ग होने पर भी आधुनिक काल में धर्मध्यान ही सर्वथा उपयोगी और अभ्यास करने और ग्रहण करने योग्य ध्यान है। शास्त्रीय दृष्टि से शुक्लध्यान का स्पर्श कराने वाला धर्मध्यान ही है।
(४) शुक्लध्यान-जिस ध्यान में इन्द्रियों को विषय की समीपता प्राप्त होते ये भी वैराग्य बल से चित्तवृत्ति बिल्कुल बहिर्मुख न हो, किसी शस्त्र से शरीर का छेदन करने अथवा काटने पर भी स्थिर हुमा चित्त तनिक भी न कम्पित हो, उस ध्यान को शुक्लध्यान कहा जाता है। इसके भी चार प्रकार हैं। यह ध्यान स्वरूपाभिमुख है और राग-द्वेष तथा कषाय का सर्वथा
२७. क० को०, पृ० ५७०-५७१ २८. ध्यान शतक, प्रस्ता० पृ० ५
क० को०, पृ० ५७८-५८०
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विलय कराके साक्षात् परम-मोक्ष का देने वाला है ।
शुक्लध्यान के चार प्रकारों में से प्रारम्भ के दो प्रकार बुत, शब्द और घयं तथा योगमन, वचन, काय के व्यापार का प्रालम्बन करते हैं। यानी प्रथम के दो प्रकार सालम्बन हैं और प्रन्त के दो प्रकार निरालम्बन हैं । अर्थात् प्रथम प्रकार सवितर्क और सविचार है । वितर्क नाम श्रुत का है और विचार शब्द, अर्थ और योग के संक्रमण - परिवर्तन को कहते हैं । दूसरा प्रकार सवितर्क और अविचार है। इसमें श्रुत की एक ही अर्थ की एक ही पर्याय का एक योग द्वारा ध्यान होता है । ये दो प्रकार दवें गुणस्थान से १२वें गुण स्थान तक होते हैं तथा तीसरा प्रकार १३ गुणस्थान में और चौथा प्रकार चौदहवें गुणस्थान में होता है ।
शब्द, अर्थ और योग का संक्रमण -- शब्द, अर्थ और योग का आश्रय लेकर जिनेश्वरों ने तीन प्रकार का संक्रमण बतलाया है। एक शब्द की आलोचना करके दूसरे शब्द की घोर बढ़ना, शब्द संक्रमण है। इसी प्रकार एक योग का आश्रय लेकर फिर दूसरे योग में प्रवेश करना योग का संक्रमण है और एक अर्थ का विचार करके दूसरे अर्थ की घोर जाना अर्थ संक्रमण है। यानी शब्द संक्रमण, योग संक्रमण तथा संक्रमण हैं । शुक्लध्यान के प्रकार में जो सविचार उक्त संक्रमण के अर्थ में व्यवहार किया गया है। होता है 10
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अर्थ संक्रमण यह वीन प्रकार के शब्द आता है, उसमें विचार शब्द सविचार यानी संक्रमण - सहित यह अर्थ
पंचम खंड / ५४
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शुक्लध्यान का दूसरा प्रकार - शुक्लध्यानी की जिस अवस्था में तीन योगों में से एक ही योग होता है, उस समय बहुत्व के प्रभाव से संक्रमण नहीं होता, इसलिए उस समय अविचार नामक शुक्लध्यान का दूसरा प्रकार संभव हो मोहनीय कर्म का सर्वथा उच्छेद होने पर चारों घातिकर्मों का चौतीस प्रतिशयों के साथ निर्मल केवलज्ञान प्रकट होता है ।"
सकता है। इस अवस्था में
विलय हो जाता है और
वीतराग को केवलज्ञान प्राप्त होने पर अपना निज का कल्याण तो हुआ, परन्तु जिनतीर्थंकर नामकर्म के उदय और अनन्त भावश्या के प्रवाह से जगत् का कल्याण करने की ओर थपने आप ही उनकी वृत्ति हो जाती है । इसलिए केवली भगवान् सत्य तत्त्वरूपी श्रमृत की वर्षा करके इस पृथ्वी को परम शीतल बना कर जगत् को मुक्ति का मार्ग दिखलाकर जगत्-सेवा करते हैं।
२९. क० कौ० ५८३।२११
३०. क० कौ० ५८६।२१२-२१३ ३१. क० कौ० ५०९।२१४
शुक्लध्यान का तीसरा प्रकार - जिस अवस्था में केवली भगवान् श्रन्त समय में स्थूल काययोग में रहकर वचनयोग और मनोयोग को सूक्ष्म बना लेते हैं और मन-वचन-योग में रहकर स्थूल काययोग को सूक्ष्म बना लेते हैं और उसमें रहकर भी मन-वचन-योग को रोकते हैं, उस समय केवल सूक्ष्म काय योग की सूक्ष्म क्रिया रहती है। इससे सूक्ष्म क्रिया नामक शुक्लध्यान का तीसरा प्रकार निष्पन्न होता है।
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________________ जैन साधना-पद्धति में ध्यान / 55 शुक्लध्यान का चौथा प्रकार-अरिहन्त भगवान जब मुक्तिपद में प्रयाण करते हैं तब सूक्ष्म काययोग का भी निरोध करके पांच ह्रस्व स्वरों का उच्चारण करने जितने समय तक मेरु पर्वत की तरह निश्चल प्रयोग अवस्था में-शैलेशी अवस्था में रहते हैं। यही व्युच्छिन्नक्रिय नामक ध्यान का चौथा प्रकार है / इसमें सकल अर्थों की समाप्ति हो जाती है और शिव पद प्राप्त हो जाता है / 32 आलम्बन और भावना-संयमियों को शुक्लध्यान में बढ़ने के लिए क्षमा, निर्लोभता, ऋजुता-सरलता और मृदुता-यह चार पालम्बन बतलाये गये हैं / इसी प्रकार शुक्लध्यान की जीव अनन्त पूदगलपरावर्तन द्वारा संसार में भ्रमण करता है और जगत नश्वर चलायमान हैयह चार भावनाएं माननी चाहिये / 33 दुष्करता-शुक्लध्यान की अवस्था प्राप्त करने के लिये प्रात्मा की पूर्ण दृढ़ता और प्रात्मा का अपरिमित वीर्य-सामर्थ्य चाहिये और अत्यन्त दृढ़ वैराग्य भाव चाहिये। इस समय यदि वह संभव न हो तो भावी की प्राशा रख कर तब तक शुक्लध्यान की भावना भानी चाहिये, जब तक कि अपरिमित वीर्य प्रादि साधन सामग्री पूर्णरूप में प्राप्त न हो जाये / 34 आधुनिक समय के लिये धर्मध्यान ही इष्ट, शुभ है। 17, लाला लाजपतराय मार्ग उज्जैन (म. प्र.), 456009 32. क. कौमुदी, 592 / 216-217 33.. क. कौमुदी, 594 / 218 34. क. कौमुदी, 596 / 219 आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम