________________
जैन साधना-पद्धति में ध्यान | ४७
विसदृश परिणाम को छोड़ कर जिसे धारणा में पालम्बनभूत कहा गया है, उसी के पालम्बन रूप से जो निरन्तर ज्ञान की उत्पत्ति होती है उसे ध्यान कहते हैं।' प्राचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने ध्यान का लक्षण स्पष्ट करते हुये बताया-शुभ प्रतीकों पर एकाग्रता अथवा पालम्बन पर चित्त का स्थिरीकरण मनीषी-ज्ञानी जनों द्वारा ध्यान कहा जाता है। वह दीपक की स्थिर लौ के समान ज्योतिर्मय होता है, सूक्ष्म तथा अन्तःप्रविष्ट चिन्तन से समायुक्त होता है।
ध्यान के फलस्वरूप वशित्व-आत्मवशता, प्रात्म-नियंत्रण या जितेन्द्रियता अथवा सर्वत्र प्रभविष्णुता, सब पर अक्षुण्ण प्रभावशीलता, मानसिक स्थिरता तथा संसारानुबन्ध-भवपरंपरा का उच्छेद जन्म-मरण से उन्मुक्त भावसिद्ध होता है।
प्राचार्य हेमचन्द्राचार्य रचित योगशास्त्र में निर्दिष्ट किया है-समत्व का अवलम्बन लेने के पश्चात योगी को ध्यान का प्राश्रय लेना चाहिये। समभाव की प्राप्ति के बिना ध्यान के प्रारम्भ करने पर अपनी प्रात्मा विडम्बित होती है। क्योंकि बिना समत्व के ध्यान में भली-भांति प्रवेश नहीं हो सकता । महर्षि कपिलमुनि द्वारा लिखित सांख्यसूत्र में राग के विनाश को और निविषय मन को ध्यान कहा गया है। विष्णपुराण में ध्यान का लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा गया है-अन्य विषयों की ओर से निस्पृह होकर परमात्मस्वरूप को विषय करने वाले ज्ञान की एकाग्रता सम्बन्धी परम्परा को ध्यान कहा जाता है। यह यम, नियमादि प्रथम छह योगांगों से सिद्ध किया गया है।' ध्यान अनुभव की ओर जाने वाला मार्ग है। ध्यान की प्रक्रिया में दो प्रवृत्तियाँ सक्रिय रहती हैं-पाकर्षण, विकर्षण । विकर्षण लौकिकता से और आकर्षण प्रलौकिकता के प्रति यानी प्रात्मस्वरूप के प्रति । यानी इस प्रक्रिया में हम पुद्गल से जीव का जो प्रगाढ़ पाश्लेष है, उसे सम्यग्ज्ञान की प्रखरता के औजार से तोड़ने का प्रयत्न करते हैं, साधन अन्तःज्ञान ही होता है, ध्यान मात्र उसे प्रखरता/तीव्रता/ तीक्ष्णता प्रदान करता है। कहें हम कि ज्ञान, ध्यान पर शान चढ़ाता जाता है और ज्यों-ज्यों हम प्रखर होते हैं, उक्त श्लेष ढीला पड़ता जाता है। ध्यान में संतुलन, समत्व और सम्यक्त्व का शीर्ष महत्त्व है। तत्त्वार्थसूत्र में अनेक अर्थों का पालम्बन लेने वाली चिन्ता के निरोध को, अन्य विषय की ओर से हटा कर उसे किसी एक ही वस्तु में नियंत्रित करने को ध्यान कहा है । अथवा उत्तम (प्रथम तीन) संहनन वाले जीव का किसी एक विषय पर एकाग्ररूप चिन्ता का निरोध ध्यान है।" तत्त्वार्थसूत्र के समान तत्त्वानुशासन में भी एकाग्र
१. तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम्। -योगसूत्र ३-२ २. जैन योगग्रन्थचतुष्टय, प्राचार्य हरिभद्र सूरि, पृ. १८१-१८२ (हिन्दी अनुवाद) ३. समत्वमवलमब्याथ, ध्यानं योगी समाश्रयेत् ।
बिना समत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्मा विडम्ब्यते। योगशास्त्र १०५-११२ ४. रागोपहतिया॑नम् । -सांख्यद., ३-३० एवं ६-२५ ५. तद्रूप प्रत्ययैकाग्रय सन्ततिश्चान्य निःस्पृहा।
तद्ध्यानं प्रथमैरङ्गः षभिनिष्पाद्यते नृप ।। -वि० प्र० ६-७-८९
तीर्थकर मासिक, जैन-ध्यान-योग विशेषांक, अप्रेल-८३, पृष्ठ १० ७. उत्तम संहननस्यै काग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ॥ -त० सूत्र०९।२७
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके nश्वस्त जम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only