Book Title: Jain Sadhna Paddhati me dhyan
Author(s): Kanhiyalal Gaud
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 11
________________ Jain Education International विलय कराके साक्षात् परम-मोक्ष का देने वाला है । शुक्लध्यान के चार प्रकारों में से प्रारम्भ के दो प्रकार बुत, शब्द और घयं तथा योगमन, वचन, काय के व्यापार का प्रालम्बन करते हैं। यानी प्रथम के दो प्रकार सालम्बन हैं और प्रन्त के दो प्रकार निरालम्बन हैं । अर्थात् प्रथम प्रकार सवितर्क और सविचार है । वितर्क नाम श्रुत का है और विचार शब्द, अर्थ और योग के संक्रमण - परिवर्तन को कहते हैं । दूसरा प्रकार सवितर्क और अविचार है। इसमें श्रुत की एक ही अर्थ की एक ही पर्याय का एक योग द्वारा ध्यान होता है । ये दो प्रकार दवें गुणस्थान से १२वें गुण स्थान तक होते हैं तथा तीसरा प्रकार १३ गुणस्थान में और चौथा प्रकार चौदहवें गुणस्थान में होता है । शब्द, अर्थ और योग का संक्रमण -- शब्द, अर्थ और योग का आश्रय लेकर जिनेश्वरों ने तीन प्रकार का संक्रमण बतलाया है। एक शब्द की आलोचना करके दूसरे शब्द की घोर बढ़ना, शब्द संक्रमण है। इसी प्रकार एक योग का आश्रय लेकर फिर दूसरे योग में प्रवेश करना योग का संक्रमण है और एक अर्थ का विचार करके दूसरे अर्थ की घोर जाना अर्थ संक्रमण है। यानी शब्द संक्रमण, योग संक्रमण तथा संक्रमण हैं । शुक्लध्यान के प्रकार में जो सविचार उक्त संक्रमण के अर्थ में व्यवहार किया गया है। होता है 10 - अर्थ संक्रमण यह वीन प्रकार के शब्द आता है, उसमें विचार शब्द सविचार यानी संक्रमण - सहित यह अर्थ पंचम खंड / ५४ - शुक्लध्यान का दूसरा प्रकार - शुक्लध्यानी की जिस अवस्था में तीन योगों में से एक ही योग होता है, उस समय बहुत्व के प्रभाव से संक्रमण नहीं होता, इसलिए उस समय अविचार नामक शुक्लध्यान का दूसरा प्रकार संभव हो मोहनीय कर्म का सर्वथा उच्छेद होने पर चारों घातिकर्मों का चौतीस प्रतिशयों के साथ निर्मल केवलज्ञान प्रकट होता है ।" सकता है। इस अवस्था में विलय हो जाता है और वीतराग को केवलज्ञान प्राप्त होने पर अपना निज का कल्याण तो हुआ, परन्तु जिनतीर्थंकर नामकर्म के उदय और अनन्त भावश्या के प्रवाह से जगत् का कल्याण करने की ओर थपने आप ही उनकी वृत्ति हो जाती है । इसलिए केवली भगवान् सत्य तत्त्वरूपी श्रमृत की वर्षा करके इस पृथ्वी को परम शीतल बना कर जगत् को मुक्ति का मार्ग दिखलाकर जगत्-सेवा करते हैं। २९. क० कौ० ५८३।२११ ३०. क० कौ० ५८६।२१२-२१३ ३१. क० कौ० ५०९।२१४ शुक्लध्यान का तीसरा प्रकार - जिस अवस्था में केवली भगवान् श्रन्त समय में स्थूल काययोग में रहकर वचनयोग और मनोयोग को सूक्ष्म बना लेते हैं और मन-वचन-योग में रहकर स्थूल काययोग को सूक्ष्म बना लेते हैं और उसमें रहकर भी मन-वचन-योग को रोकते हैं, उस समय केवल सूक्ष्म काय योग की सूक्ष्म क्रिया रहती है। इससे सूक्ष्म क्रिया नामक शुक्लध्यान का तीसरा प्रकार निष्पन्न होता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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