Book Title: Jain Purano Me Varnit Prachin Bharatiya Abhushan Author(s): Deviprasad Mishr Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 5
________________ १३२ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन ९. पट्ट४ . -बृहत्संहिता४१ में बराहमिहिर ने पट्ट का स्वर्ण-निर्मित होना उल्लेख किया है। इसी स्थल पर इसके निम्नलिखित पाँच प्रकारों का भी वर्णन है१. राजपट्ट (तीन शिखाएँ), २. महिषीपट्ट (तीन शिखाएँ), ३. युवराजपट्ट (तीन शिखाएँ), ४. सेनापतिपट्ट (एक शिखा), ५. प्रसादपट्ट (शिखा विहीन)। शिखा से तात्पर्य कलगी से है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि यह स्वर्ण का ही होता था और पगड़ी के ऊपर इसको बाँधा जाता था ४२ | आजकल भी विवाह के शुभावसरों पर पगड़ी के ऊपर पट्ट (कलगी) बाँधते हैं। (ब) कर्णाभूषण-कानों में आभूषण धारण करने का प्रचलन प्राचीनकाल से चला आ रहा है। स्त्री-पुरुष दोनों के ही कानों में छिद्र होते थे और इसको दोनों धारण करते थे। कुण्डल, अवतंस, तालपत्रिका, बालियाँ आदि कर्णाभूषण में परिगणित होते हैं । इसके लिए कर्णाभूषण एवं कर्णाभरण ४४ शब्द प्रयुक्त हैं। १. कुण्डल ४'-यह कानों में धारण किया जाने वाला सामान्य आभूषण था। अमरकोश के अनुसार कानों को लपेटकर इसको धारण करते थे ४६ । महापुराण में वर्णित है कि कुण्डल कपोल तक लटकते थे४७ । पद्मपुराण में उल्लिखित है कि शरीर के मात्र हिलने से कुण्डल भी हिलने लगता था४८ । रत्न या मणि जटित होने के कारण कुण्डल के अनेक नाम भेद जैन पुराणों में मिलते हैं-मणिकुण्डल, रत्नकुण्डल, मकराकृतकुण्डल, कुण्डली, मकरांकित कुण्डल ९ । इसका उल्लेख समराइच्चकहा", यशस्तिलक, अजन्ता की चित्र-कला २ तथा हम्मीर महाकाव्य में भी उपलब्ध है। ४०. महा, १६।२३३; ४१. बृहत्संहिता, ४८।२४ । ४२. नेमिचन्द्र शास्त्री-आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० २१० । ४३. पद्म, ३।१०२; ४४. वही, १०३।९४ । ४५. पद्म, ११८।४७; महा, ३।७८, १५।१८९, १६।३३; ३३।१२४; ७२।१०७, - हरिवंश, ७।८९ । ४६. कुण्डलम् कर्णवेष्टनम् ।-अमरकोष, २.६.१०३ । ४७. रत्नकुण्डलयुग्मेन गण्डपर्यन्तचुम्बिना ।-महा, १५।१८९ । ४८. चंचलो मणिकुण्डलः । पद्म, ७१।१३ । ४९. महा, ३।७८, ३।१०२, ४११७७, १६३१३३, ९।१९०; ३३।१२४ । ५०. समराइच्चकहा, २, पृ० १००; ५१. यशस्तिलक, पृ० ३६७ । ५२. वासुदेवशरण अग्रवाल-हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, फलक २०, चित्र ७८ । ५३. दशरथ शर्मा-अर्ली चौहान डाइनेस्टीज, पृ० २६३ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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