Book Title: Jain Purano Me Varnit Prachin Bharatiya Abhushan
Author(s): Deviprasad Mishr
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf
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जैनपुराणों में वर्णित प्राचीन भारतीय आभूषण ३. हार, ४. देवच्छन्द, ५. अर्द्धहार, ६. रश्मिकलाप, ७. गुच्छ, ८. नक्षत्रमाला, ९. अर्द्धगुच्छ, १०. माणव, ११. अर्द्धमाणव.६ । महापुराण में वर्णित है कि इन्द्रच्छन्द आदि हारों के मध्य में जब मणि लगी होती है तब उनके नामों के साथ माणव शब्द संयुक्त हो जाता है। इस प्रकार इनके नाम इन्द्रच्छन्द माणव, विजयच्छन्द माणव, हारमाणव, देवच्छन्द माणव आदि हो जाते हैं । उपर्युक्त पुराण के अनुसार ये सभी हार की कोटि में आते हैं। किन्तु नेमिचन्द्र शास्त्री ने इसी इन्द्रच्छन्द माणव और विजयच्छन्द माणव की परिगणना यष्टि के ग्यारह भेदों के अन्तर्गत की है। ३. कण्ठ के अन्य आभूषण
गले में धारण करने वाले अन्य आभूषणों के निम्नांकित उल्लेख जैन-पुराणों में द्रष्टव्य हैं-कण्ठमालिका ८ (स्त्री-पुरुष दोनों धारण करते थे), कण्ठाभरण- १ (पुरुषों का आभूषण), स्रक्१० (फूल, स्वर्ण, मुक्ता एवं रत्न से निर्मित), काञ्चन सूत्र ५ (सुवर्ण या रत्नयुक्त), ग्रैवेयक ?, हारलता' ३, हारवल्ली' ४, हारवल्लरी", मणिहार' ६, हाटक ७, मुक्ताहार ८, कण्ठिका ९, कण्ठिकेवास . ० . (लाख की बनी हुई कण्ठी होती थी जिसकी परिगणना निम्न कोटि में होती थी) आदि ।
(ब) कराभूषण-हाथ में धारण करने वाले आभूषणों में अंगद, केयूर, वलय, कटक एवं मुद्रिका आदि प्रमुख हैं। स्त्री-पुरुष दोनों ही इन आभूषणों का प्रयोग करते थे। केवल इनमें यही अन्तर रहता था कि पुरुष वर्ग के आभूषण सादे और स्त्री वर्ग के आभूषणों में धुंघरू आदि लगे होते थे।
१. अंगद ०१-इसे भुजाओं पर बाँधा जाता था। इसको स्त्री-पुरुष दोनों बाँधते थे। अंगद के समान केयूर का प्रयोग जैन-ग्रन्थों में वर्णित है। अमरकोषकार ने अंगद और केयूर को एक-दूसरे का पर्याय माना है। क्षीरस्वामी ने केयूर और अंगद की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है कि 'के बाहूशीर्षे यौति केयूरम्' अर्थात् जो
८६. महा, १६।५५-६१। ८७. महा, १६।६२ । ८८. महा, ६।८। ८९. वही, १५।१९३; हरिवंश, ४७१३८ । ९०. पद्म, ३।२७७, ८८।३१ । ९१. वही, ३३।१८३, महा, २९।१६७ । ९२. महा, २९।१६७; हरिवंश, १११३३ । ९३. वही, १५।१९२। ९४. वही, १५।१९३। ९५. वही, १५।१९४ । ९६. वही, १४।११। ९७. पद्म, १००।२५। ९८. महा, १५।८१ । ९९. वही, ९।१०५। १००. वही, १।६९ । १०१. महा, ५।२५७, ९।४१, १४।१२, १५।१९९, हरिवंश, ११।१४ ।
परिसंवाद-४
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