Book Title: Jain Parampara me Purvagyan Ek Vishleshan Author(s): Nagrajmuni Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf View full book textPage 2
________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ दृष्टिवाद में पूर्वो का समावेश द्वादशांगी के बारहवें भाग का नाम दृष्टिवाद है। वह पांच भागों में विभक्त है—१. परि कर्म, २० सूत्र, ३. पूर्वानुयोग, ४. पूर्वगत और ५. चूलिका । चतुर्थ विभाग पूर्वगत में चतुर्दश पूर्वज्ञान का समावेश माना गया है। पूर्वज्ञान के आधार पर द्वादशांगी की रचना हुई, फिर भी पूर्व-ज्ञान को छोड़ देना सम्भवतः उपयुक्त नहीं लगा । यही कारण है कि अन्ततः दृष्टिवाद में उसे सन्निविष्ट कर दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि जैन तत्त्वज्ञान के महत्त्वपूर्ण विषय उसमें सूक्ष्म विश्लेषण पूर्वक बड़े विस्तार से व्याख्यात थे। विशेषावश्यक भाष्य में उल्लेख है कि यद्यपि भूतवाद या दृष्टिवाद में समग्र उपयोग - ज्ञान का अवतरण अर्थात् समग्र वाङ् मय अन्तर्भूत है परन्तु अल्पबुद्धि वाले लोगों तथा स्त्रियों के उपकार के हेतु उससे शेष श्रुत का निर्ग्रहण हुआ, उसके आधार पर सारे वाङ् मय का सर्जन हुआ। स्त्रियों के लिए दृष्टिवाद का वर्जन उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि स्त्रियों को दृष्टिवाद का शिक्षण देना वर्जित था । इस सम्बन्ध में विशेषावश्यकभाष्य में जो उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है - स्त्रियाँ तुच्छ, गर्वोसत और चंचलेन्द्रिय होती हैं। उनकी मेधा अपेक्षाकृत दुर्बल होती है, अतः उत्थान समुत्यान आदि अतिशय या चमत्कार-युक्त अध्ययन तथा दृष्टिवाद का ज्ञान उनके लिए नहीं है। भाष्यकार ने स्त्रियों की किन्हीं तथाकथित दुर्बलताओं की ओर लक्ष्य किया है । उनका तुच्छ, गर्वबहुल स्वभाव, चपलेन्द्रियता और बुद्धिमान्य भाष्यकार के अनुसार वे हेतु हैं, जिनके कारण उन्हें दृष्टिवाद का शिक्षण नहीं दिया जा सकता । २ विशेषावश्यकमाध्य की गाथा ५५ की व्याख्या करते हुए मलधारी आचार्य हेमचन्द्र ने जो लिखा है, उसका सारांश इस प्रकार है-स्त्रियों को यदि किसी प्रकार दृष्टिवाद त करा दिया जाए, तो तुच्छता आदि से युक्त प्रकृति के कारण वे भी दृष्टिवाद की अध्येता है, इस प्रकार मन में अभिमान लाकर पुरुष के परिभव तिरस्कार आदि में प्रवृत्त हो जाती हैं। फलतः उन्हें दुर्गति प्राप्त होती है। यह जानकर दया के सागर, परोपकार-परायण तीर्थंकरों ने उत्थान, समुत्थान आदि अतिशय चमत्कार-युक्त अध्ययन तथा दृष्टिवाद स्त्रियों को देने का निषेध किया है। स्त्रियों को श्रुतज्ञान प्राप्त कराया जाना चाहिए। यह उन पर अनुग्रह करते हुए शेष ग्यारह अंग आदि वाङमय का सर्जन किया गया । माध्यकार आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण तथा वृत्तिकार आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने Jain Education International चिन्तन के विविध बिन्दु ४५० जहवि य भूयावाए सध्वस्स वभोगवस्स ओयारो । निज्जूहणा तहावि हु दुम्मेहे पप्प इत्थी व ॥ तुच्छा गारवबहुला चलिदिया दुम्बला थिईए य । इति आइसेसज्झयणा भूयावाओ य नो त्थीणं ॥ For Private & Personal Use Only - विशेषावश्यकभाष्य गाथा ५५१ 1 - विशेषावश्यकभाव्य गाथा ५५२ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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