Book Title: Jain Parampara me Purvagyan Ek Vishleshan Author(s): Nagrajmuni Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf View full book textPage 1
________________ : ४७६ : जैन-परम्परा में पूर्वज्ञान : एक विश्लेषण जैन - परम्परा में पूर्वज्ञान : एक विश्लेषण श्री जैन दिवाकर स्मृति - ग्रन्थ जैन वाङ्मय में ज्ञानियों की दो प्रकार की परम्पराएँ प्राप्त होती हैं: पूर्वधर और द्वादशांगवेत्ता । पूर्वो में समग्र श्रुत या वाक्-परिणेय समग्र ज्ञान का समावेश माना गया है । वे संख्या में चतुर्दश हैं । जैन श्रमणों में पूर्वधरों का ज्ञान की दृष्टि से उच्च स्थान रहा है जो श्रमण चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान धारण करते थे, उन्हें श्र त केवली कहा जाता था । । १ पूर्व- ज्ञान की परम्परा एक मत ऐसा है, जिसके अनुसार पूर्व ज्ञान भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती समय से चला आ रहा था । महावीर के पश्चात् अर्थात् उत्तरवर्ती काल में जो वाङ् मय सर्जित हुआ, उससे पूर्व का होने से वह (पूर्वात्मक ज्ञान ) 'पूर्व' नाम से सम्बोधित किया जाने लगा । उसकी अभिधा के रूप में प्रयुक्त 'पूर्व' शब्द सम्भवत: इसी तथ्य पर आधारित है । -डॉ० मुनिश्री नगराज जी, डो० लिट्० द्वादशांगी से पूर्व पूर्व रचना एक दूसरे अभिमत के अनुसार द्वादशांगी की रचना से पूर्व गणधरों द्वारा अर्हद्-भाषित तीन मातृका पदों के आधार पर चतुर्दशशास्त्र रचे गये, जिनमें समग्र श्रुत की अवतारणा की गयी..... आवश्यक नियुक्ति में ऐसा उल्लेख 19 द्वादशांगी से पूर्व - पहले यह रचना की गयी, अतः ये चतुर्दश शास्त्र चतुर्दश पूर्वी के नाम से विख्यात हुए । श्र तज्ञान के कठिन, कठिनतर और कठिनतम विषय शास्त्रीय पद्धति से इनमें निरूपित हुए । यही कारण है, यह वाङमय विशेषतः विद्वत्प्रोज्य था । साधारण बुद्धिवालों के लिए यह दुर्गम था । अतएव इसके आधार पर सर्वसाधारण के लाभ के लिए द्वादशांगी की रचना की गयी । आवश्यक नियुक्ति विवरण में आचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में जो लिखा है, पठनीय है । धम्मोवाओ पवयणमहवा पुव्वाई देसया तस्स । सव्व जिणाणा गणहरा चौस पुव्वा उ ते तस्स ॥ सामाइयाइया वा वयजीवनिकाय भावणा पढमं । एस धम्मोवादो जिणेहि सब्बेहि उवइट्ठो ॥ Jain Education International २ - आवश्यक नियुक्ति, गाथा २६२-६३ ननु पूर्वं तावत् पूर्वाणि भगवद्भिर्गणधरैरुपनिबध्यन्ते, पूर्वकरणात् पूर्वाणीति पूर्वाचार्य प्रदर्शितव्युत्पत्तिश्रवणात्, पूर्वेषु च सकलवाङ् मयस्यावतारो, न खलु तदस्ति यत्पूर्वेषु नाभिहितं ततः किं शेषांगविरचनेनांग बाह्य विरचनेन वा ? उच्यते, इह विचित्रा जगति प्राणिनः तत्र ये दुर्मेधसः ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात् तेषां च दुर्मेधत्वात् स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानधिकार एव तासां तुच्छत्वादिदोषबहुलत्वात् । - पृ० ४८, प्रकाशक, आगमोदय समिति, बम्बई For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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