Book Title: Jain Parampara me Purvagyan Ek Vishleshan
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

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Page 5
________________ : ४८३ : जैन-परम्परा में पूर्वज्ञान : एक विश्लेषण श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ३. वीर्यप्रवावपूर्व-इसमें सकर्म और अकर्म जीवों के वीर्य का विवेचन है। पद-परिमाण सत्तर लाख है। ४ अस्ति-नास्ति-प्रवावपूर्व-लोक में धर्मास्तिकाय आदि जो हैं और खर-विषाणादि जो नहीं हैं, उनका इसमें विवेचन है। अथवा सभी वस्तुएं स्वरूप की अपेक्षा से हैं तथा पररूप की अपेक्षा से नहीं हैं, इस सम्बन्ध में विवेचन है । पद-परिमाण साठ लाख है। ५. ज्ञानप्रवाद पूर्व-इसमें मति आदि पांच प्रकार के ज्ञान का विस्तारपूर्वक विश्लेषण है। पद-परिमाण एक कम एक करोड़ है । ६. सत्य-प्रवादपूर्व-सत्य का अर्थ संयम या वचन है। उनका विस्तारपूर्वक सुक्ष्मता से इसमें विवेचन है। पद-परिमाण छः अधिक एक करोड़ है। ७. आत्म-प्रवादपूर्व-इसमें आत्मा या जीव का नय-भेद से अनेक प्रकार से वर्णन है । पदपरिमाण छब्बीस करोड़ है। ८. कर्म-प्रवादपूर्व-इसमें ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों का प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश आदि भेदों की दृष्टि से विस्तृत वर्णन किया गया है। पद परिमाण एक करोड़ छियासी हजार है। ६. प्रत्याख्यानपूर्व-इसमें भेद-प्रभेद सहित प्रत्याख्यान-त्याग का विवेचन है । पद-परिमाण चौरासी लाख है। १०. विद्यानुप्रवादपूर्व–अनेक अतिशय-चमत्कार युक्त विद्याओं का, उनके अनुरूप साधनों का तथा सिद्धियों का वर्णन है । पद-परिमाण एक करोड़ दस लाख है। ११. अवन्ध्यपूर्व-वन्ध्य शब्द का अर्थ निष्फल होता है, निष्फल न होना अवन्ध्य है। इसमें निष्फल न जाने वाले शुभफलात्मक ज्ञान, तप, संयम आदि का तथा अशुद्ध फलात्मक प्रमाद आदि का निरूपण है । पद-परिमाण छब्बीस करोड़ है। १२. प्राणायुप्रवावपूर्व-इसमें प्राण अर्थात् पाँच इन्द्रिय, मानस आदि तीन बल, उच्छ्वासनिःश्वास तथा आयु का भेद-प्रभेद सहित विश्लेषण है । पद-परिमाण एक करोड़ छप्पन लाख है। १३. क्रियाप्रवादपर्व-इसमें कायिक आदि क्रियाओं का. संयमात्मक क्रियाओं का तथा स्वच्छन्द क्रियाओं का विशाल-विपुल विवेचन है । पद-परिमाण नौ करोड़ है। १४. लोकबिन्दुसारपूर्व-इसमें लोक में या श्रुत-लोक में अक्षर के ऊपर लगे बिन्दु की १. अन्तरंग शक्ति, सामर्थ्य, पराक्रम । २. यद वस्तु लोकेस्ति धर्मास्तिकायादि, यच्च नास्ति खरशगादि तत्प्रवदतीत्यस्तिनास्ति प्रवादम् अथवा सर्व वस्तु स्वरूपेणास्ति, पररूपेण नास्तीति अस्तिनास्ति प्रवादम्। -अभिधान राजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ० २५१५ ३. सत्यं संयमो वचनं वा तत्सत्य संयमं वचनं वा प्रकर्षेण सप्रपंचमं वदंतीति सत्यप्रवादम् । -अभिधान राजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ० २५१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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