Book Title: Jain Parampara me Kashi
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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Page 4
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ संघर्ष था । कमठ और पार्श्व के अनुयायियों के विवाद की सूचना बौधायन धर्मसूत्र में भी है। जैन परम्परा और ब्राह्मण परम्परा के बीच दूसरे संघर्ष की सूचना हमें उत्तराध्ययनसूत्र से प्राप्त होती है । यह संघर्ष मूलतः जातिवाद या ब्राह्मणवर्ग की श्रेष्ठता को लेकर था । उत्तराध्ययन एवं उसकी नियुक्ति से हमें यह सूचना प्राप्त होती है कि हरकेशिबल और रुद्रदेव के बीच एवं जयघोष और विजयघोष के बीच होने वाले विवादों का मूल केन्द्र वाराणसी ही था । 2 ये चर्चाएं आगम ग्रन्थों और उनकी नियुक्तियों और चूर्णियों में उपलब्ध हैं और ईसा पूर्व में वाराणसी में जैनों की स्थिति की सूचना देती हैं । (४) गुप्तकाल में वाराणसी में जैनों की क्या स्थिति थी इसका पूर्ण विवरण तो अभी खोज का विषय है। हो सकता है कि भाष्य और चूर्णी साहित्य से कुछ तथ्य सामने आयें । पुरातात्विक प्रमाणोंराजघाट से प्राप्तऋषभदेव की मूर्ति और पहाड़पुर से प्राप्त गुप्त संवत् १५८ (४७९ ई०) के एक ताम्रपत्र से इतना तो निश्चित हो जाता है कि उस समय यहाँ जैनों की वस्ती थी । यह ताम्रपत्र यहाँ स्थित वटगोहाली बिहार नामक जिन मन्दिर की सूचना देता है । इस विहार का प्रबन्ध आचार्य गुणनन्दि के शिष्य करते थे । आचार्य गुणनन्दि पचस्नुपान्वय में हुए हैं ।" पंचस्तूपान्वय श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं से भिन्न यापनीय सम्प्रदाय से सम्बन्धित था । इस ताम्रपत्र से यह भी ज्ञात हो जाता है कि मथुरा के समान वाराणसी में भी यापनीयों का प्रभाव था । गुप्तकाल की एक अन्य घटना जैन आचार्य समन्तभद से सम्बन्धित है । ऐसा लगता है कि गुप्तकाल में वाराणसी में ब्राह्मणों का एकच्छत्र प्रभाव हो गया था । जैन अनुश्रुति के अनुसार समन्तभद्र जो कि जैन परम्परा की चौथी - पाँचवीं शताब्दी के एक प्रकाण्ड विद्वान् थे, उन्हें भस्मक रोग हो गया था और इसके लिए वे दक्षिण से चलकर वाराणसी तक आये थे । अनुश्रुति के अनुसार उन्होंने यहाँ शिवमन्दिर में पौरोहित्य कर्म किया और शिव के प्रचुर नैवेद्य से क्षुधा तृप्ति करते रहे । किन्तु एक बार वे नैवेद्य को ग्रहण करते हुए पकड़े गये और कथा के अनुसार उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए स्वयम्भू स्तोत्र की रचना की और शिवलिंग से चन्द्रप्रभ की चतुर्मुखी प्रतिमा प्रकट की । 14 यह कथा एक अनुश्रुति ही है किन्तु इससे दो-तीन बातें फलित होती हैं । प्रथम तो यह कि सभंतभद्र को अपनी ज्ञान-पिपासा को शान्त करने के लिए और अन्य दर्शनों के ज्ञान को अर्जित करने के लिए सुदूर दक्षिण से चलकर वाराणसी आना पड़ा, क्योंकि उस समय भी वाराणसी को विद्या का केन्द्र माना जाता था । उनके द्वारा शिव मन्दिर में पौरोहित्य कर्म को स्वीकार करना सम्भवतः यह बताता है कि या तो उन्हें जैन मुनि के वेश में वैदिक परम्परा के दर्शनों का अध्ययन कर पाना सम्भव न लगा हो अथवा यहाँ पर जैनों की बस्ती इतनी नगण्य हो गयी हो कि उन्हें अपनी आजीविका की पूर्ति के लिए पौरोहित्य कर्म स्वीकार करना पड़ा । वस्तुतः उनका यह छद्मवेष का धारण विद्या अर्जन के लिए ही हुआ होगा, क्योंकि ब्राह्मण पंडित नास्तिक माने जाने वाले नग्न जैन मुनि को विद्या प्रदान करने को सहमत नहीं हुए होंगे । इस प्रकार जैनों को विद्या अर्जन के लिए भी वाराणसी में संघर्ष करना पड़ा है । जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि गुप्तकाल में काशी में जैनों का अस्तित्व रहा है । यद्यपि यह कहना अत्यन्त कठिन है कि उस काल में इस नगर में जैनों का कितना - क्या प्रभाव था ? पुरातात्विक साक्ष्य केवल हमें यह सूचना देते हैं कि उस समय यहां जैन मन्दिर थे । काशी से जो जैन जैन परम्परा में काशी : डॉ० सागरमल जैन | २२५.

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