Book Title: Jain Parampara me Kashi
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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Page 6
________________ .. . ............. ... ........ ........... साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ (५) पन्द्रहवीं, सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों में वाराणसी में जैनों की स्थिति के सम्बन्ध में भी हमें पुरातात्विक एवं साहित्यिक दोनों प्रकार के ही साक्ष्य मिलते हैं। प्रथम तो यहाँ के वर्तमान मन्दिरों की अनेक प्रतिमायें इसी काल की हैं। दूसरे, इस काल के अनेक हस्तलिखित ग्रन्थ भी वाराणसी के जैन भण्डारों में उपलब्ध हैं। तीसरे, इस काल की वाराणसी के सम्बन्ध में कुछ संकेत हमें बनारसीदास के के अर्धकथानक से मिल जाते हैं। बनारसीदास जो मूलतः आगरा के रहने वाले थे अपने व्यवसाय के लिए काफी समय बनारस में रहे और उन्होंने अपनी आत्मकथा (अर्धकथानक) में उसका उल्लेख भी किया है। उनके उल्लेख के अनुसार १५६८ ई० में जौनपुर के सूबेदार नवाब किलीच खाँ ने वहां के सभी जौहरियों को पकड़कर बन्द कर दिया था। उन्होंने अर्धकथानक में विस्तार से सोलहवीं शताब्दी के बनारस का वर्णन किया है। यह ग्रन्थ प्रकाशित हो गया है। सत्रहवीं शताब्दी में उपाध्याय यशोविजय नामक जैन श्वेताम्बर मुनि गुजरात से चलकर बनारस अपने अध्ययन के लिए आये थे। वाराणसी सदैव से विद्या का केन्द्र रही और जैन विद्वान् अन्य धर्म-दर्शनों के अध्ययन के लिए समय-समय पर यहाँ आते रहे । यद्यपि यह भी विचारणीय है कि इस सम्बन्ध में उन्हें अनेक बार कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा। सोलहवीं, सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी की जैन मूर्ति या तथा हस्तलिखित ग्रन्थ वाराणसी में उपलब्ध हैं, यद्यपि विस्तृत विवरण का अभाव ही है। उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में वाराणसी में जैनों की संख्या पर्याप्त थी। बिशप हेबर ने उस य जैनों के पारस्परिक झगड़ों का उल्लेख किया है। सामान्यतया जैन मन्दिरों में अन्यों का प्रवेश वजित था। बिशप हेबर को प्रिंसेप और मेकलियड के साथ जैन मन्दिर में प्रवेश की अनुमति मिली थी। उसने अपने जैन मन्दिर जाने का एवं वहाँ जैन गुरु से हुई उसकी भेंट का तथा स्वागत का विस्तार से उल्लेख किया है (देखें-काशी का इतिहास-मोतीचन्द्र, पृ० ४०२-~-४०३) । उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशक में जैन आचार्यों ने इस विद्या नगरी को जैन विद्या के अध्ययन का केन्द्र बनाने के प्रयत्न किये । चंकि ब्राह्मण अध्यापक सामान्यतया जैन को अपनी विद्या नहीं देना चाहते थे अतः उनके सामने दो ही विकल्प थे, या तो छद्म वेष में रहकर अन्य धर्म-दर्शनों का ज्ञान प्राप्त किया जाये अथवा जैन विद्या के अध्ययन-अध्यापन का कोई स्वतन्त्र केन्द्र स्थापित किया जाये। गणेशवर्णी और विजयधर्म सूरि ने यहाँ स्वतन्त्ररूप से जैन विद्या के अध्ययन के लिए पाठशालाएं खोलने का निर्णय लिया। उसी के परिणामस्वरूप अंग्रेजी कोठी में यशोविजय पाठशाला और भदैनी में स्यादवाद महाविद्यालय की नींव रखी गयी । श्वेताम्बर परम्परा के दिग्गज जैन विद्वान् पं० सुखलालजी संघवी, पण्डित वेचरदास जी, पण्डित हरगोबिन्ददास जी आदि जहां यशोविजय पाठशाला की उपज हैं वहीं दिगम्बर परम्परा के मूर्धन्य विद्वान् पण्डित कैलाशचन्द्र जी, पण्डित फूलचन्द्रजी आदि स्यावाद महाविद्यालय की उपज हैं। दिगम्बर परम्परा के आज के अधिकांश विद्वान् स्याद्वाद महाविद्यालय से ही निकले हैं। यशोविजय पाठशाला यद्यपि अधिक समय तक नहीं चल सकी किन्तु उसने जो विद्वान् तैयार किये उनमें पण्डित सुखलाल जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जैन दर्शन के अध्यापक बने और उन्होंने अपनी प्रेरणा से पार्श्वनाथ विद्याश्रम को जन्म दिया, जो कि आज वाराणसी में जैन विद्या के उच्च अध्ययन एवं प्रकाशन का एक प्रमुख केन्द्र बन चुका है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पार्श्वनाथ के युग से लेकर वर्तमान काल तक लगभग अठाईस सौ वर्षों की सुदीर्घ कालावधि में वाराणसी में जैनों का निरन्तर अस्तित्व रहा है और इस नगर ने जैन विद्या और कला के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । जैन परम्परा में काशी : डॉ० सागरमल जैन | २२७ Hal Hernatar P reecenter ... ..... .

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