Book Title: Jain Parampara me Kashi
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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Page 2
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ 3 उल्लेख मत्स्यपुराण में है । यद्यपि अलक्ष के अतिरिक्त शंख, कटक, धर्मरुचि नामक काशी के राजाओं के उल्लेख जैन कथा साहित्य में हैं किन्तु ये सभी महावीर और पार्श्व के पूर्ववर्ती काल के बताये गये हैं । अतः इनकी ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में कुछ कह पाना कठिन है । महावीर के समकालीन काशी के राजाओं में अलर्क / अलक्ष के अतिरिक्त जितशत्रु का उल्लेख भी उपासकदशांग में मिलता है 124 किन्तु जितशत्रु ऐसा उपाधिपरक नाम है जो जैन परम्परा में अनेक राजाओं को दिया गया है । अत: इस नाम के आधार पर ऐतिहासिक निष्कर्ष निकालना कठिन है । महावीर के दस प्रमुख गृहस्थ उपासकों में चुलनिपिता और सुरादेव वाराणसी के माने गये हैं- दोनों ही प्रतिष्ठित व्यापारी रहे हैं- उपासकदशांग इनके विपुल वैभव और धर्मनिष्ठा का विवेचन करता है ।" महावीर स्वयं वाराणसी आये थे । उत्तराध्ययन सूत्र में हरिकेशी और यज्ञीय नामक अध्याय के पात्रों का सम्बन्ध भी वाराणसी से है दोनों में जातिवाद और कर्मकाण्ड पर करारी चोट की गई है । " पार्श्वनाथ के युग से वर्तमान काल तक जैन परम्परा को अपने अस्तित्व और ज्ञान प्राप्ति के लिए वाराणसी में कठिन संघर्ष करना पड़े हैं । प्रस्तुत निबन्ध में हम उन सबकी एक संक्षिप्त चर्चा करेंगे । किन्तु इससे पूर्व जैन आगमों में वाराणसी की भौगोलिक स्थिति का जो चित्रण उपलब्ध है उसे दे देना भी आवश्यक है । (२) जैन आगम प्रज्ञापना में काशी की गणना एक जनपद के रूप में की गई है और वाराणसी को उसकी राजधानी बताया गया है। काशी की सीमा पश्चिम में वत्स, पूर्व में मगध, उत्तर में विदेह और दक्षिण में कोसल बतायी गयी है । बौद्ध ग्रन्थों में काशी के उत्तर में कोशल को बताया गया है । ज्ञाताधर्मकथा में वाराणसी की उत्तर-पूर्व दिशा में गंगा की स्थिति बताई गई है। वहीं मृतगंगातीरद्रह (तालाब) भी बताया गया है : 28 यह तो सत्य है कि वाराणसी के निकट गंगा उत्तर-पूर्व होकर बहती है ।' वर्तमान में वाराणसी के पूर्व में गंगा तो है किन्तु किसी भी रूप में गंगा की स्थिति वाराणसी के उत्तर में सिद्ध नहीं होती है । मात्र एक ही विकल्प है वह यह कि वाराणसी की स्थिति राजघाट पर मानकर गंगा को नगर के पूर्वोत्तर अर्थात् ईशानकोण में स्वीकार किया जाये तो ही इस कथन की संगति बैठती है । उत्तराध्ययनचूर्णि में 'मयंग' शब्द की व्याख्या मृतगंगा के रूप में की गई है - इससे यह ज्ञात होता है कि गंगा की कोई ऐसी धारा भी थी जो कि नगर के उत्तर-पूर्व होकर बहती थी किन्तु आगे चलकर यह धारा मृत हो गई अर्थात् प्रवाहशील नहीं रही और इसने एक द्रह का रूप ले लिया । यद्यपि मोतीचन्द्र ने इसकी सूचना दी है किन्तु इसका योग्य समीकरण अभी अपेक्षित है। गंगा की इस मृतधास की सूचना जैनागमों और चूणियों के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं है । यद्यपि प्राकृत शब्द मयंग का एक रूप मातंग भी होता है ऐसी स्थिति में उसके आधार पर उसका एक अर्थ गंगा के किनारे मातंगों की बस्ती के निकटवर्ती तालाब से भी हो सकता है । उत्तराध्ययननियुक्ति में उसके समीप मातंगों ( श्वपाकों) की वस्ती स्वीकृत की गई है । 29 जैनागमों में वाराणसी के समीप आश्रमपद ( कल्पसूत्र ) 31 कोष्टक ( उपासक दशांग ) 31 अम्बशालवन (निरयावलिका ) " काममहावन ( अन्तकृत् दशांग ) 33 और तेंदुक (उत्तराध्ययननियुक्ति ) 3 नामक उद्यानों एवं वनखण्डों के उल्लेख हैं । औपपातिक सूत्र से गंगा के किनारे बसनेवाले अनेक प्रकार के तापसों की सूचना हमें उपलब्ध होती है । विस्तारभय से यहाँ उन सबका उल्लेख आवश्यक नहीं है । किन्तु उससे उस युग की धार्मिक स्थिति का पता अवश्य चल जाता है । ॐ जैनागमों में हमें वाराणसी का शिव की नगरी के रूप में कहीं उल्लेख नहीं मिलता है- —मात्र १४वीं शताब्दी में विविधतीर्थ कल्प में इसका उल्लेख मिलता है जबकि यहाँ यक्षपूजा के प्रचलन के जैन परम्परा में काशी : डॉ० सागरमल जैन | २२३

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