Book Title: Jain Parampara ke Vrat upvaso ka Ayu Vaigyanik Vaishishtya Author(s): Kanhiyalal Gaud Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 5
________________ प्रकार के कामों का त्याग भी सातवें व्रत में किया द्वेष अथवा कषाय के कारण अपने आत्मा की जो गया है । परिणति हुई हो, उसे दूर करने के लिये समभाव उत्पन्न करने वाले सामायिक व्रत का ग्रहण करना चाहिये | दो घड़ी शुभ ध्यान पूर्वक एक स्थान पर बैठकर शुभचिंतन, धर्म विचार और वृत्ति को उच्चतर बनाने वाले मनन में समय व्यतीत करने को सामायिक कहते हैं । यदि मानव विचित्र विचित्र भर भटकता रहे तो फिर उसके ही होती जाती । ऐसे व्यवहार रूपी खारे समुद्र में तो सम + आय + इक = समत्व का लाभ कराने वाली सामायिक की आवश्यकता जैन परम्परा में ही नहीं वरन् अन्य धर्म परम्परा के धर्माचार्यों ने चित्त को समता का परिचय कराने के लिए इस की आवश्यकता बतलाई है। गीता में श्री कृष्ण ने कहा है- 'मन ही बंध और मोक्ष का कारण है ।' अतः मन की अधोगति न हो, इसके लिए उसे समता में लीन करने का यत्न करना आवश्यक है । कहा इन दोनों व्रतों को धारण करने वाला एक प्रकार की तपश्चर्या में ही प्रवेश करता है - ऐसा कहा जा सकता है । इससे गमन की वृत्ति का ओर भोग वस्तुओं के उपभोग की लालसा का अवश्य निरोध होता है । कहा है जगदा क्रम प्रमाणस्य प्रसरल्लोभ वारिधेः । स्खलनं विद्धे तेन येन दिग्विरतिः कृता ॥ अर्थात् - जो मनुष्य इस दिग्विरति व्रत को ग्रहण करता है, वह इस जगत के आक्रमण करने वाले लोभ रूपी महासमुद्र का स्खलन कर देता हैयह सत्य है । परिग्रह की मर्यादा निर्धारित करने से तृष्णा का निरोध होता है, शरीर स्वस्थ रहता है, पर जब तक भोगोपभोग के पदार्थों की मर्यादा निर्धारित न की जा, तब तक मन तथा इन्द्रियों का पूरा निरोध नहीं होता । 1 (८) निष्प्रयोजन पाप निवृत्ति रूप व्रत -अप ध्यान, प्रमाद, हिंसक - शस्त्र संचय और पापोपदेश यह चार अनर्थ दण्ड कहे जाते हैं । इनसे निवृत्त होना अर्थात् चाहे सम्पत्ति की हानि हो, चाहे पुत्रादि की मृत्यु हो जाय, फिर भी मन में तनिक भी सोच न करना, जीवन रक्षणादि के काम में तनिक भी आलस्य न करना, प्राण नाशक शस्त्र और आयुधों का संग्रह न करना तथा किसी भी पापानुष्ठान के विषय में किसी को प्रेरित न करनाकर्म के समूह को रोकने वाले इस व्रत का परिलक्षण है । इस व्रत को ग्रहण करने से मानव निरर्थक पापों से दूर रहने की वृत्ति को प्राप्त करने में समर्थ होता है, चित्त प्रसन्न तथा शरीर निरोग रहता है । (e) सामायिक व्रत - बाह्य प्रवृत्ति में राग१-२-३ वही पृ. ६४, ६६, ६९, ७१ ४२० Jain Education International तप्येद्वर्ष शतैर्यश्च, एक पाद स्थितो नरः । एकेन ध्यान योगेन, कलामार्हति षोडशीम् ॥ वृत्तियों में जीवन मन की अधोगति अर्थात् - ध्यान योग रूपी सामायिक का मूल्य देह दमन से अधिक आँका गया है। आगे कहा है कि दिवसे दिवसे लक्खं देई सुवण्णस्स खंडियं एगो । इयरो पुण सामाइयं करेइ न पहुप्पए तस्स ॥ अर्थात् - एक पुरुष दिनों दिन लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान करे और दूसरा सामायिक करे, स्वर्ण का दान सामायिक की बराबरी नहीं कर सकता । चित्त वृत्ति को स्थिर - सम करना, यह एक मानसिक योग का प्रकार है | वृत्ति को पतित होने से रोक कर अभ्यास से उसे स्थिर भी किया जा सकता है । गीता में श्री कृष्ण ने कहा है पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न ग्रन्थ Pate & Personal Use Only www.jainelibrary forgPage Navigation
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