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कन्हैयालाल गौड़ एम. ए. साहित्यरत्न, (उज्जैन)
जीवन का नीतियुक्त आचरण ही मनुष्य का चारित्र कहलाता है । चारित्र का संगठन सदाचार से ही होता है । पर सदाचार के लिये यह ज्ञान होना चाहिए कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है तथा इस ज्ञान से अच्छे आचरणों को ग्रहण करके बुरे आचरणों को त्याग देना चाहिए। इस विधि को जैनधर्म में सम्यक् चारित्र का ग्रहण कहा गया है । इस सदाचरण अथवा सम्यक्चारित्र के लिए ग्रहण करने और त्यागने योग्य क्या है ? याज्ञवल्क्य स्मृति के आचार नामक अध्याय में कहा गया है कि
जैन परम्परा के व्रत / उपवासों का आयुर्वैज्ञानिक वैशिष्ट्य
बढ़ सकता है और धीरे-धीरे सच्ची मानवता उसमें आने लगती है । सच्चारित्र्य से स्वास्थ्य में भी वृद्धि होती है ।
वैदिक परम्परा में धर्म के नौ साधन बताये गए हैं और जैन परम्परा में बारह व्रत । इन व्रतों को धारण किये बिना सुचरितवान अथवा सुचारित्र्यवान आयुष्मान / स्वस्थ नहीं बन सकता, रह सकता । जैन परम्परा में कहे हुए बारह व्रतों में प्रारम्भिक पाँच अणुव्रत, लघुव्रत कहलाते हैं । वे सच्चारित्र्यवान, आयुष्मान होने वाले जिज्ञासुओं के लिए ही हैं । बारह व्रतों में प्रथम अहिंसा व्रत के विषय में कहा
पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च,
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रिय - निग्रहः । दानं दया दमः क्षान्तिः सर्वेषां धर्म-साधनम् ।
अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, (चोरी न करना) पवित्रता, इन्द्रिय निग्रह, परोपकार, दया, मन का दमन और क्षमा । यह नौ बातें सबके लिए धर्म का साधन है । इसी प्रकार जैन परम्परा में बारह व्रत बताये गये हैं और इन बारह व्रतों को धारण करने से मनुष्य सदाचारी बन सकता है । इन व्रतों को धारण करने वाले के हृदय में व्रत धारण करते समय जो उच्चाभिलाषाएँ होती हैं, उनके पालन की उसमें सामर्थ्य होनी चाहिए और जब अपने धारण किये हुये व्रत को वह यथोचित प्रकार से पाल सकता है, तभी सच्चारित्र्य में उत्तरोत्तर आगे
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उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः ।
स्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा ॥
प्राणादशैते भगवद्भिरुक्ता,
१ कर्तव्यकौमुदी द्वितीय ग्रन्थ ( खण्ड १-२ ) रचयिता भारतभूषण शतावधानी पं. मुनि श्री रत्नचन्द्रजी
महाराज पृ. ३०-३१
अर्थात् - पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन और काया यह तीन बल, श्वासोच्छवास और आयुष्य - यह दस प्राण कहलाते हैं और इन प्राणों का वियोग करना ही हिंसा कही जाती है। हिंसा जनित पदार्थ जीवों के इन दस प्राणों का वियोग करने से ही उत्पन्न होते हैं और इसलिए इन वस्तुओं का त्याग अणुव्रत रूप से अहिंसा की प्रतिज्ञा ग्रहण करने वाले को भी करना योग्य है । 1
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अहिंसा का मार्ग प्रदर्शित करते हुए भगवान नीति में भी वाचिक पाप के रूप में केवल असत्यमहावीर ने कहा है-सर्व प्राणों, सर्वभूतों, सर्व- वाद झूठ बोलने को ही नहीं माना; चुगली, कठोर
जीवों और सर्व सत्वों को नहीं मारना चाहिये, न भाषण आदि को भी वाचिक पाप कहा गया है। । पीड़ित करना चाहिए और न उनको मारने की हिंसा स्तेयामन्यथाकामै, बुद्धि से स्पर्श ही करना चाहिए।
पैशुन्यं परुषानृते । प्रत्येक जीव स्वतन्त्र होना चाहता है, बन्धन से
संभिन्नालापाव्यापामुक्ति चाहता है, स्वस्थ एवं प्रसन्न रहना चाहता है ।
दमभिध्या - दृग्विपर्ययम् ॥ अहिंसा उसकी इस इच्छा की पूर्ति का अचूक साधन
अर्थात् हिंसा, चोरी तथा अगम्यागमन-यह 5है । सत्यशील व्रत आदि की माता मानी गई है- तीन कथित पाप हैं और पर द्रोह का चिन्तन पर। अहिंसा। जितने भी यम, नियम, व्रत, आराधना, धन की इच्छा और धर्म में दृष्टि का विपर्ययउपासना आदि के विधान धर्म-शास्त्रों में मिलते हैं,
यह मानसिक पाप है। सत्य शब्द का शास्त्रीय उन सबके मूल में अहिंसा है।
अर्थ 'सद्भ्यो हितं सत्यम्' अर्थात् जो सज्जनों के अहिंसा जहाँ मानव को विश्वमैत्री एवं विश्व- लिए हितकारक है वह सत्य है, इसके लिए 'न बन्धुत्व का पाठ पढ़ाती है वहाँ आत्मा पर आच्छा- सत्यमपि भाषेत पर पीडाकरं वचः' अर्थात जिस है। दित कर्म समूह को भी नष्ट करती चलती है और बात से दूसरों को दुख हो, आत्मा का क्षय हो, मोक्ष द्वार को निकट लाती है।
सत्य होने पर भी ऐसी बात न बोलनी चाहिए। . उत्तराध्ययन में अहिंसा की परिभाषा की है।
(३) अस्तेय व्रत-किसी की कोई भी वस्तु घर : मन, वचन, काय तथा कृत-कारित और अनुमोदन
__ में पड़ी हो या मार्ग में या वन में गिर गई हो तो
के से किसी भी परिस्थिति में त्रस, स्थावर जीवों को
___ उसके मालिक की आज्ञा के बिना चोरी के विचार दुखित न करना अहिंसा महाव्रत है।
से मन, वचन और काया इन तीन करणों से उसे ___ व्यावहारिक, सामाजिक, राजनैतिक, राष्ट्रीय उठाना न चाहिए और न किसी के द्वारा उठवाना 9 और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में अहिंसा का प्रयोग चाहिए और न चोरी के काम में किसी प्रकार एवं उपयोग अव्यवहार्य नहीं है।
सहायता न करनी चाहिए-इसका नाम दत्त ___अहिंसा समस्त प्राणियों का विश्राम-स्थल है, व्रत-अस्तेय व्रत है । यह व्रत बुद्धिमान मानव को क्रीड़ा भूमि है और मानवता का शृंगार है। अहिंसा पूर्ण आयु प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति को अवश्य र का सामर्थ्य असीम है।
__ मानना चाहिए। (२) सत्य व्रत-मन, वचन और काया इन जैन-धर्म में इसे अदत्तादान कहते हैं। अदत्त ] तीनों करणों से असत्य का सेवन न करना ही यानी किसी का न दिया हुआ और आदान यानी
सत्य व्रत कहलाता है । सत्य व्रत ग्रहण करने वाले ग्रहण करना-किसी का न दिया हुआ ग्रहण करना, का व्यक्ति को असत्य का त्याग करना चाहिए। शुक्र यही व्रत की दृष्टि से चोरी है। और चोरी का
AIRVANA
१ दैनिक ब्रिगेडियर १२ नवम्बर ८५ लेख भगवान महावीर की शिक्षा में विश्व कल्याण के सूत्र-ले. महासती
श्री उमरावकुवरजी अर्चना । २ मुनि द्वय अभिनन्दन ग्रन्थ १९७३ लेख जैन धर्म का प्राण तत्व अहिंसा पृ० ११८-१२० ले. साध्वी श्री
पुष्पलता जी।
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माल अथवा वस्तु का उपभोग करने से आयु घटती है । स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है । अस्तेय व्रत की व्याख्या करते हुए कहा है
आहृतं स्थापितं नष्टं विस्मृतं पतितं स्थितम् । नाददीताऽस्वकीय स्वमित्यस्तेयमणुव्रतम् ॥ अर्थात् हरण करके लाया हुआ, रखा हुआ, खोया हुआ, भूला हुआ, गिरा हुआ या रहा हुआ किसी दूसरे का धन ग्रहण न करना - यह अस्तेय नाम का अणुव्रत है। जैन परम्परा में पांच अतिचार कह गये हैं, इन अतिचारों को त्याग कर अस्तेय व्रत ग्रहण करने का निर्देश शास्त्रकार देते हैं । वे अतिचार इस प्रकार हैं
स्तेनानुज्ञा तदानीतादानं वैरुद्धमामुकम् । प्रतिरूप क्रियामानान्यत्वं वा स्तेय संश्रिता ॥
अर्थात् चोर को आज्ञा देना, चोरी का द्रव्य लेना, राजा की ओर से निषेध किए हुए कामों को करना, किसी एक वस्तु में, दूसरी वस्तु मिलाकर बेचना और झूठे बाँट रखना - यह सब अस्तेय व्रत के दोष हैं । "
( ४ ) ब्रह्मचर्य व्रत - यदि मन भली-भांति दृढ हो तो सर्वथा ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करना चाहिए । और यदि दृढ़ वृत्ति न हो तो स्वदार संतोष वृत्ति रखनी चाहिए ।
विषयाभिलाषा जब तक जिस काल तक उत्पन्न होती है, तभी तक उसका दमन करना हितावह है - सच्चा व्रत है । व्रत ग्रहण करने से मन और वाणी का यह मार्ग भी बन्द हो जाता है और जब यह दोनों मार्ग बन्द हो जाते हैं तभी ब्रह्मचर्य व्रत का आध्यात्मिक लाभ - इन्द्रिय दमन का परम लाभ प्राप्त होता है ।
पर-नारी के सेवन से जैसी शारीरिक और आत्मिक हानियाँ होती हैं, वैसी ही हानियाँ अति
१ कर्तव्य -कौमुदी [ खण्ड १-२ ] पृ. ३८-३६
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स्त्री सेवन और विषय कोड़ा से होती है। आयुर्वेद के 'भाव - प्रकाश' नामक ग्रन्थ में कहा गया है । शूल कास ज्वर श्वास कादर्य पाड्वा मय क्षयाः । अति व्यवाया ज्जायन्ते रोगाच्चा शेष कादवः ॥
अर्थात् - अधिक स्त्री सेवन करने से शूल, कास, ज्वर, श्वास, कृशता, पांडुरोग, क्षय और हिचकी आदि रोग होते हैं । इसी प्रकार आसनादि के द्वारा की जाने वाली अनन्त क्रीड़ाएँ भी विषय वृत्ति को बढ़ाने वाली और शरीर तथा आत्मा का अहित करने वाली हैं ।
ब्रह्मचर्य बन्द द्वार की अर्गला की आवश्यकता तो पूरी करता है । पर इस व्रत के बिना अनेक चतुर मनुष्य भी विषय की अन्धकारमयी खाई में पड़े और ख्वारो खराब हो गये हैं । कहा भी हैविषयार्त मनुष्याणां दुःखावस्था दश स्मृताः । पापान्यपि बहून्यत्र सारं किं मूढ पश्यसि ॥2
अर्थात - विषय पीड़ित मानव की दस दुःखद अवस्थाएँ होती हैं और उनमें अनन्त पाप समाविष्ट है । इन दस अवस्थाओं में दूसरी चिन्ता (८) रोगोत्पत्ति (६) जड़ता (१०) मृत्यु- मुख्य हैं । ये सभी स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं। शरीर में रोगोमें त्पत्ति हो जाने पर अन्त वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । अथर्ववेद में इसका महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा है
ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्र विरक्षति । आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते ॥ ११।५।१६
अर्थात् - ब्रह्मचर्य के तप से ही राजा राष्ट्र की रक्षा करने में समर्थ होता है । आचार्य ब्रह्मचर्य के द्वारा ही शिष्य को अपने शिक्षण एवं निरीक्षण में लेने की योग्यता सम्पादन करता है ।
प्रो. एल्फ्रेड फोनियर शेल्स नगर में १६०२
२ कर्त्तव्य कौमुदी खण्ड १-२ पृ. ४६
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ई० में हुई संसार भर के बड़े-बड़े डाक्टरों की सभा मत्सर रूपी षड्रिपुओं से घिरा रहता है और घिरे में स्वीकृत हुए इस प्रस्ताव को उद्धत करते हैं हुये हो मौत के मुख में चला जाता है। आयुर्विज्ञान कि-"नवयुवकों को यह शिक्षा देनी चाहिए कि कहता है यदि मानव को स्वस्थ रह कर आत्मिक ब्रह्मचर्य के पालन से उनके स्वास्थ्य को कोई शांति प्राप्त करनी है तो तृष्णा को त्याग कर परि-8 हानि नहीं पहुँच सकती वरन् वैद्यक और शरीर ग्रह-मर्यादा ब्रत का पालन करना चाहिये। शास्त्र की दृष्टि से तो ब्रह्मचर्य एक ऐसी वस्तु है, तृष्णा का निरोध भी सन्तोष प्राप्ति का द्वार जिसका बड़ी प्रवलता से समर्थन किया जाना है। और संतोष प्राप्ति के मन्दिर में प्रवेश करने चाहिये ।
पर ही परार्थ साधना करने की तत्परता मनुष्य में नूतन जीव शास्त्र के प्रसिद्ध लेखक डॉन काउ- आती है । पाश्चात्य वैज्ञानिक श्री कूपर का कथन | एन एम. डी. कहते हैं-"ब्रह्मचारी को कभी ज्ञात है किही नहीं होता कि व्याधिग्रस्त दिवस कैसा होता
It is content of heart है । उसकी पाचन शक्ति सदैव नियमित होती है ।
gives nature power to please उसकी वृद्धावस्था बाल्यावस्था जैसी ही आनन्दमयी
The mind that feels no smart होती है।"
En-livens all it-sees, डा० जटाशंकर स्वानुभव के आधार पर
आधार पर अर्थात्-जो हृदय संतुष्ट है, वह प्रकृति में कहते हैं- "जिन रोगियों ने चिकित्सा के दौरान आनन्द देखता है और जो मन चंचलता असंतष्टता ब्रह्मचर्य पालन किया था, वे शीघ्र ही रोग मुक्त हो से रहित है। उसे सर्वत्र आनन्द का ही प्रकाश दृष्टि गये थे, और उनके रोग जनित कष्ट दायक चिन्ह गोचर होता है अल्प कष्ट दायक हो गए थे।"
परोपकार करने की इच्छा वाले और अपना । ब्रह्मचर्य पथ को अपनाये बिना कोई भी व्यक्ति ।
जीवन सुख सन्तोष से व्यतीत करने तथा चित्त की अपने उत्कर्ष, जीवन की महत्ता एवं सुख शांति को
निवृत्ति का आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने की प्राप्त नहीं कर सकता।
कामना वाले मनुष्य को अपने सब संयोगों पर ५. परिग्रह मर्यादा व्रत-धन, धान्य, भूमि, घर, विचार करके अनेक प्रकार के परिग्रहों की मर्यादा पशु, नौकर चाकर आदि अनेक वस्तुएँ जगत में निर्धारित करना उचित है। विद्यमान हैं। उनकी मर्यादा सीमा बाँधना परिग्रह (६-७) दिशाओं और भोग्य वस्तुओं की परिमाण व्रत कहलाता है । तृष्णा को जीतने के लिए मर्यादा निर्धारित करने के व्रत-पूर्व और पश्चिम यह व्रत अति ही उपयोगी है। तृष्णा छिन्धि भज आदि दिशाओं का मान करने से सुख देने वाला क्षमा जहि मदम् इत्यादि-तृष्णा को काट डाल, छठा व्रत निष्पन्न होता है और भोग के साधन वस्त्राक्षमा धारण कर, भद त्याग । तृष्णा को काट डालने भषण, खान-पान, औषधि आदि की मर्यादा निर्धाके लिये परिग्रह की मर्यादा का व्रत उपयोगी है। रित करने से सातवाँ व्रत सिद्ध होता है । लकड़ियाँ
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के नाते अन्त जलाकर कोयले बनाना, वनों को कटवाना आदि | तक वह संसार के काम-क्रोध, लोभ, मद, मोह तथा प्रत्येक पापजनक कर्मादान रूपी कहे जाने वाले पंद्रह १ ब्रह्मचर्य विज्ञान-ले. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी. पृ. २२-२३ से उद्धृत २ वही पृ. ४३ ३ कर्तव्य कौमुदी खण्ड १-२ पृ. ६१. पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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प्रकार के कामों का त्याग भी सातवें व्रत में किया द्वेष अथवा कषाय के कारण अपने आत्मा की जो गया है । परिणति हुई हो, उसे दूर करने के लिये समभाव उत्पन्न करने वाले सामायिक व्रत का ग्रहण करना चाहिये | दो घड़ी शुभ ध्यान पूर्वक एक स्थान पर बैठकर शुभचिंतन, धर्म विचार और वृत्ति को उच्चतर बनाने वाले मनन में समय व्यतीत करने को सामायिक कहते हैं ।
यदि मानव विचित्र विचित्र भर भटकता रहे तो फिर उसके ही होती जाती । ऐसे व्यवहार रूपी खारे समुद्र में तो सम + आय + इक = समत्व का लाभ कराने वाली सामायिक की आवश्यकता जैन परम्परा में ही नहीं वरन् अन्य धर्म परम्परा के धर्माचार्यों ने
चित्त को समता का परिचय कराने के लिए इस की आवश्यकता बतलाई है। गीता में श्री कृष्ण ने कहा है- 'मन ही बंध और मोक्ष का कारण है ।' अतः मन की अधोगति न हो, इसके लिए उसे समता में लीन करने का यत्न करना आवश्यक है । कहा
इन दोनों व्रतों को धारण करने वाला एक प्रकार की तपश्चर्या में ही प्रवेश करता है - ऐसा कहा जा सकता है । इससे गमन की वृत्ति का ओर भोग वस्तुओं के उपभोग की लालसा का अवश्य निरोध होता है । कहा है
जगदा क्रम प्रमाणस्य प्रसरल्लोभ वारिधेः । स्खलनं विद्धे तेन येन दिग्विरतिः कृता ॥
अर्थात् - जो मनुष्य इस दिग्विरति व्रत को ग्रहण करता है, वह इस जगत के आक्रमण करने वाले लोभ रूपी महासमुद्र का स्खलन कर देता हैयह सत्य है ।
परिग्रह की मर्यादा निर्धारित करने से तृष्णा का निरोध होता है, शरीर स्वस्थ रहता है, पर जब तक भोगोपभोग के पदार्थों की मर्यादा निर्धारित न की जा, तब तक मन तथा इन्द्रियों का पूरा निरोध नहीं होता । 1
(८) निष्प्रयोजन पाप निवृत्ति रूप व्रत -अप ध्यान, प्रमाद, हिंसक - शस्त्र संचय और पापोपदेश यह चार अनर्थ दण्ड कहे जाते हैं । इनसे निवृत्त होना अर्थात् चाहे सम्पत्ति की हानि हो, चाहे पुत्रादि की मृत्यु हो जाय, फिर भी मन में तनिक भी सोच न करना, जीवन रक्षणादि के काम में तनिक भी आलस्य न करना, प्राण नाशक शस्त्र और आयुधों का संग्रह न करना तथा किसी भी पापानुष्ठान के विषय में किसी को प्रेरित न करनाकर्म के समूह को रोकने वाले इस व्रत का परिलक्षण है । इस व्रत को ग्रहण करने से मानव निरर्थक पापों से दूर रहने की वृत्ति को प्राप्त करने में समर्थ होता है, चित्त प्रसन्न तथा शरीर निरोग रहता है । (e) सामायिक व्रत - बाह्य प्रवृत्ति में राग१-२-३ वही पृ. ६४, ६६, ६९, ७१
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तप्येद्वर्ष शतैर्यश्च, एक पाद स्थितो नरः । एकेन ध्यान योगेन, कलामार्हति षोडशीम् ॥
वृत्तियों में जीवन मन की अधोगति
अर्थात् - ध्यान योग रूपी सामायिक का मूल्य देह दमन से अधिक आँका गया है। आगे कहा है कि
दिवसे दिवसे लक्खं देई सुवण्णस्स खंडियं एगो । इयरो पुण सामाइयं करेइ न पहुप्पए तस्स ॥
अर्थात् - एक पुरुष दिनों दिन लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान करे और दूसरा सामायिक करे, स्वर्ण का दान सामायिक की बराबरी नहीं कर सकता । चित्त वृत्ति को स्थिर - सम करना, यह एक मानसिक योग का प्रकार है |
वृत्ति को पतित होने से रोक कर अभ्यास से उसे स्थिर भी किया जा सकता है । गीता में श्री कृष्ण ने कहा है
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अथ-चित्तं समाधातुन शक्नोपि भवि स्थिरम् । होकर सद्विचार में लीन रहना पौषध व्रत कहलाता अभ्यास-योगेन ततो मामिच्छाप्तु धनंजय !॥ है। 'पौष धर्मस्य धत्ते यत्तद् भवेत्पौषधं व्रतम्' अर्थात्
सामायिक का चित्त को स्थिर रखने का लाभ जिसमें धर्म की पुष्टि हो, वह पौषध-व्रत कहलाता अभी अभ्यास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। है। मुमुक्षु-गृहस्थ को पर्वदिनेषु अर्थात् अष्टमी, । चित्त की शुद्धि के लिए सामायिक उपयोगी चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या आदि पर्व-तिथियों
है। पर प्रातःकाल मन की समता के लिए जितना में इस व्रत को ग्रहण करना चाहिए और निर्दोषलाभदायक है उतना दूसरा समय नहीं, इसीलिए रीति से आत्मा की विशुद्धि के साथ पालन करना प्रातःकाल में सामायिक को तो 'अवश्यं विदद्यात्' चाहिए। ऐसा कहा है। उपासना के द्वारा मन और तन के (१२) अतिथि दान व्रत-जिस महात्मा ने दोषों को मिटाने की चिकित्सा करने वाले डा० तिथि, पर्व, उत्सव आदि सबका त्याग कर दिया हो, एप्टन सिंक लेयर और डा० मेकफेडन ने भी क्षुधित वह अतिथि कहलाता है। ऐसे अतिथि हमारे आँगन अवस्था में मन को आध्यात्मिक लाभ पहुँचाने में आ पहुँचें, तो उन्हें आदर के साथ अन्न-वस्त्रादि वाली घटना का विशद वर्णन किया है।
का दान करना । इस ब्रत को अतिथि संविभाग व्रत (१०) देशावकाश--व्रत-छठे व्रत में दिशाओं कहते हैं । a का जो परिमाण बांधा गया हो, उसे संकुचित अतिथि ऐसा सन्त होना चाहिए कि जिसे धन
करके द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से यदि आदरपूर्वक संग्रह करने की इच्छा न हो, केवल शरीर की रक्षा उसकी पुनः सीमा बाँधी जाय और इस प्रकार के लिए जीवन की आवश्यकताएँ एक दिन में एक आश्रय का निरोध किया जाय तो उसे मुनिगण दिन के योग्य ही हों। देशावकाश नाम का ब्रत कहते हैं। वह ब्रत चार अतिथि सत्कार में मुख्यतः अन्नदान का ही
घड़ी, एक रात या एक दिन तक इच्छानुसार ग्रहण महत्व समझा जाता है। चूंकि अन्न को प्राण माना १५ करना चाहिए और उसे छ: कोटि से ठीक-ठीक गया है-'अन्नं वैः प्राणः' एवं जल को जीवन कहा पालन करना चाहिए।
है, इसीलिए किसी अतिथि का अन्न-जल से सत्कार इस व्रत से पाप की प्रवत्ति में मानव संयम करने का अर्थ होता है उसे प्राण एवं जीवन का दान रखना सीखना है और ज्यों-ज्यों वह अपने गमना- किया जा रहा है। गमन आवश्यकताओं की दिशाओं को कम-से-कम जो भी ज्ञान, चिन्तन की दशा में उन्मुख होता करता जाता है, त्यों-त्यों उसकी अन्तम खता को है, विचारों की गहराई में, उतरता है वह विज्ञान विकसित होने का अवसर मिलता है।
कहलाता है। विज्ञान का अर्थ है-विशेष जानकारी।
इस दृष्टि से, जैन परम्परा के बारह ब्रतों का (११) पौषध-व्रत-एक प्रातः से लेकर दूसरे आयुर्वैज्ञानिक वैशिष्ट्य स्वतः सिद्ध हो जाता है । प्रातः तक चौबीस घण्टे का उपवास करके सांसा- फिर भी शरीर ही धर्म का मुख्य साधन है-इसरिक वस्त्र, आभूषण, माल्य आदि को त्यागकर, लिए शरीर को संभालकर रखना आवश्यक है। पाप के सभी कर्मों को छोड़कर नियमपूर्वक धर्म- शरीर को स्वस्थ रखना प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्थान में एक अहोरात्रि पर्यन्त धर्म ध्यान-परायण आवश्यक है ।
१ वही पृष्ठ ७३ ३ वही पृ० २०६
२ साधना के सूत्र : प्रवचनकार युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी पृ. २३६ अतिथि सेवा
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जो सन्त-महात्मा-गृहस्थ-साधु इन बारह व्रतों उपवास करके सतत् तपस्या आरम्भ करनी चाहिए, को धारण कर नियमपूर्वक उनका पालन करते हैं- पश्चात् एक-एक दिन के अन्तर से उपवास करना वे स्वस्थ एवं चिरायु होते हैं, उनके शरीर का चाहिए और ज्यों-ज्यों शक्ति बढ़ती जाय, त्यों-त्यों Va संस्थान सुन्दर एवं सुडौल हो जाता है, उनके तपस्या में वृद्धि करते जाना चाहिए और अन्त में शारीरिक अवयव सुदृढ हो जाते हैं, वे तेजस्वी और संस्तारक तक पहुँचना चाहिए। यदि नित्य या अति शक्तिशाली होते हैं । भोजन के अपच होने की एक-एक दिन के अन्तर से भी उपवास की शक्ति न ८ शिकायत नहीं होती और न ही खट्टी डकारें आती हो तो प्रतिदिन ऊनोदरी तप करना चाहिए । यानी 8 हैं । रक्त-चाप कम-ज्यादा नहीं होता । नाड़ी-संस्थान, जितना भोजन नित्य किया जाता है, उसको कम आमाशय और हृदय की गति सुचारु रूप से अपना- कर देना चाहिए । वस्त्रादि उपकरणों को भी घटा अपना काम करती हैं। शरीर में रक्त-संचालन देना तथा क्रोधादि कषायों में भी कमी करनी (Blood Circulation) बिना किसी रुकावट होता चाहिए । है जिससे चेहरा प्रसन्नता से खिला रहता है। यही इन्द्रियों-वत्तियों पर कठोर प्रहार करके उन्हें कारण है कि हमारे प्राचीन ऋषि मुनि दीघायु होत ग्लान बना देना तप का देत नहीं है और न इससे का) थे, उन्हें किसी प्रकार की औषधि एवं उपचार की तप सिद्ध होता है। आवश्यकता नहीं पड़ती थी। व्रत-ग्रहण करने से
रस रुधिर मांस-भेदोऽस्थिमज्जा आहार में कमी आती है। आयुर्वेद विज्ञान की
शुक्राण्यनेन तप्यन्ते । सूक्ति है-स्वल्पाहारी स जीवति-स्वल्प आहार
कर्माणि चाशुभानीत्य तस्तपो करने वाला दीर्घ-जीवी होता है। ___ जो मनुष्य हिताहारी हैं, मिताहारी एवं अल्पाहारी हैं उन्हें किसी वैद्य से चिकित्सा कराने की।
___ अर्थात्-रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा 13 आवश्यकता नहीं, वे स्वयं ही अपने वैद्य हैं, स्वयं
और शुक्र तथा अशुभ कर्म इससे तपित हो जाते हैं, ही स्वयं के चिकित्सक हैं। दस प्रकार के सखों इसलिए इसका नाम तप रखा गया है। शक्ति से में-आरोग्य पहला सुख माना गया है। आरोग्य
आ बाहर, दबते हुए या जबर्दस्ती सहन करते हुए उप-10 ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है, सबसे बड़ा लाभ है।
, वासादि तपस्या करना बिल्कुल अनिष्टकारक है, | महषि धन्वन्तरि ने स्वास्थ्य की परिभाषा करते इसीलिए कहा ह हुए लिखा है जिसके देह में वात-पित-कफ तीनों सो अ तवो कायव्वो जेण मनोमंगलं न चितेइ। ) दोष, अग्नि, रस, रक्त आदि सातों धातुओं की जेण न इंदिय हाणी जेण जोगा न हायंति ॥ मल क्रिया ये सब सम हैं, तथा जिसकी आत्मा, अर्थात्-जिस तप के करने से मन दुष्ट न हो, मन एवं इन्द्रियाँ प्रसन्न हैं, वह स्वस्थ कहलाता है। इन्द्रियों की हानि न हो, और योग भी नष्ट हो, व्रत से समस्त प्रकार के विकार दूर होते हैं। वही तप करना चाहिए । इस प्रकार शान्ति समाधि ___ शारीरिक वर्चस्व/बौद्धिक प्रतिभा/स्मरण शक्ति पूर्वक तप करना और उसमें आगे बढ़ने के लिए। (ज्ञान तन्तु) का विकास होकर जीवन में उत्कृष्ट धीरे-धीरे कदम बढ़ाना चाहिए। पहले कई दिनों सफलता मिलती है।
में उपवास करना चाहिए। फिर एक-एक दिन के ____ उपवास-तप के इच्छुक को पहले कभी-कभी अन्तर से करना चाहिए और बाद में एक साथ दो,
नाम नरुक्तम् ॥
१-२. वही पृष्ठ २२६-२२७ । ४२२
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________________ फिर तीन, फिर चार इस प्रकार धीरे-धीरे आगे आयु को बढ़ाने वाला है / जैन परम्परा में उपवास बढ़कर, ज्यों-ज्यों तप करने की शक्ति बढती जाये, अनशन तप के दो मुख्य प्रकार बतलाये गये हैंत्यों-त्यों छहों प्रकार के बाह्य तप सिद्ध करना एक स्वल्प समय के अनशन का और दूसरा जीवन KC चाहिए, अन्तिम संस्तारक तक पहुँचना चाहिए। भर के अनशन का। इन दोनों के अनेक उपभेद हैं। इस विधान में सतत् शब्द का हेतु पूर्वक व्यवहार सामान्य उपवास चाहे कितनी संख्या के हों, वे किया है। अनेक वैज्ञानिकों ने प्रयोगों के द्वारा स्वल्प समय वाले कहे जाते हैं और जीवन भर का सिद्ध किया है। इसमें प्रमुख डॉ० एडवर्ड हुकर अनशन संस्तारक कहा जाता है। मन को बिना AT ने अनेक प्रयोगों के पश्चात अपना अभिमत प्रकट ग्लान किये, सद्बुद्धि से, कर्मबन्धन तोड़ने के उत्साह किया है कि- उपवास से मानसिक बल बिलकूल से जीवन भर का अनशन ग्रहण करना, उल्लासनष्ट नहीं होता। कारण कि मस्तिष्क का पोषण पूर्वक मृत्यु को आलिंगन करने का कार्य है। यह करने वाला तत्व मस्तिष्क में ही उत्पन्न होता है। मन की परम उच्च दशा है और इससे इस तप का उसका पोषण करने के लिए शरीर के और किसी अन्तिम प्रकार माना जाता है। भाग की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसके लिए अन्न आगे कहा गया है यदि पहले समग्र पूर्ण उपवास की भी आवश्यकता नहीं है, कारण कि वह स्वतः कठिन प्रतीत हों और इसके कारण चाहे कोई ऊनोअपना पोषण करता है और अपना काम नियमित दरी तप करे, परन्तु जिन्होंने उपवास करने की रूप में किये जाता है। - शक्ति को विकसित किया है, उन्हें ऊनोदरी तप, से जीवन की समस्त शक्तियों का उद्भव मस्तिष्क साधारण उपवास से कठिन प्रतीत होता है और 7 में ही होता है। जब मस्तिष्क काम करने से थक ऊनोदरी तप को जिसे विद्वानों ने उपवास के बाद जाता है, तब उसकी थकान भोजन से दूर नहीं स्थान दिया है वह उत्तरोत्तर बढ़ती हुई कठिनता NI होती, विश्राम से होती है। निद्रा का विश्राम, का विचार करके ही दिया जाता है। उपवास में मस्तिष्क का उत्तमता से पोषण करता है और दिन भूख मर जाती है और इसमें ऊनोदरी के समान में किये हुए परिश्रम से विगलित हुए शरीर में- परीषह नहीं सहन करना पड़ता / एप्टन सिंक लेयर रात्रि के विश्राम के कारण प्रातःकाल ताजगी नामक वैज्ञानिक ने प्रतिदिन एक छोटा फल खाकर और प्रसन्नता उत्पन्न हो जाती है। कई दिनों तक ऊनोदरी करने का निश्चय किया जब मनुष्य मानसिक चिन्ता या राग-द्वषादि था, परन्तु इससे उपवास से भी अधिक कष्ट मालूम विकारों से घिरा रहता है तब उसकी भूख सबसे होने लगा और इससे उन्होंने फल खाना छोड़कर पहले नष्ट हो जाती है। और शरीर में जब कोई पूर्ण उपवास करना ही पसन्द किया। कहा है रोग-विकार उत्पन्न हो जाता है, तब भी भूख मर कषाय विषयाहार त्यागो यत्र विधोयते / 0) जाती है। भूख का मर जाना, रोग या विकार का उपवासः स विज्ञेयः शेषःलङ घनक SN चिह्न है, मानव की प्रकृति का संघटन कुछ ऐसा है अर्थात् जिस उपवासादि में कषाय, विषय और IKE कि रोग या विकार को मिटाने के लिए ही भूख का आहार का त्याग किया जाय, उसे उपवास समझना / नाश या उपवास, उपचार के लिए निर्मित हए हैं। चाहिए, शेष लंघन है। है। इसी कारण आयुर्वेद विज्ञान ग्रन्थों में भी स्पष्ट कहा व्रत उपवासों से व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का गया है कि शरीर मन और आत्मा की शुद्धि करने विकास सम्भव है। इनसे किसी प्रकार की हानि वाला उपवास रूपी तप एक बड़ो दिव्योषधि है, होने की सम्भावना नहीं है / / 1 कर्तव्य कौमुदी [खण्ड 1-2] पृष्ठ 486, 487, 488, 486, 460, 461 / पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास YNXEA 52 VE Ca.. 038 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jaileducation International Sr Private & Personal use only www.jaintenary.org