Book Title: Jain Parampara ke Vrat upvaso ka Ayu Vaigyanik Vaishishtya Author(s): Kanhiyalal Gaud Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 6
________________ अथ-चित्तं समाधातुन शक्नोपि भवि स्थिरम् । होकर सद्विचार में लीन रहना पौषध व्रत कहलाता अभ्यास-योगेन ततो मामिच्छाप्तु धनंजय !॥ है। 'पौष धर्मस्य धत्ते यत्तद् भवेत्पौषधं व्रतम्' अर्थात् सामायिक का चित्त को स्थिर रखने का लाभ जिसमें धर्म की पुष्टि हो, वह पौषध-व्रत कहलाता अभी अभ्यास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। है। मुमुक्षु-गृहस्थ को पर्वदिनेषु अर्थात् अष्टमी, । चित्त की शुद्धि के लिए सामायिक उपयोगी चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या आदि पर्व-तिथियों है। पर प्रातःकाल मन की समता के लिए जितना में इस व्रत को ग्रहण करना चाहिए और निर्दोषलाभदायक है उतना दूसरा समय नहीं, इसीलिए रीति से आत्मा की विशुद्धि के साथ पालन करना प्रातःकाल में सामायिक को तो 'अवश्यं विदद्यात्' चाहिए। ऐसा कहा है। उपासना के द्वारा मन और तन के (१२) अतिथि दान व्रत-जिस महात्मा ने दोषों को मिटाने की चिकित्सा करने वाले डा० तिथि, पर्व, उत्सव आदि सबका त्याग कर दिया हो, एप्टन सिंक लेयर और डा० मेकफेडन ने भी क्षुधित वह अतिथि कहलाता है। ऐसे अतिथि हमारे आँगन अवस्था में मन को आध्यात्मिक लाभ पहुँचाने में आ पहुँचें, तो उन्हें आदर के साथ अन्न-वस्त्रादि वाली घटना का विशद वर्णन किया है। का दान करना । इस ब्रत को अतिथि संविभाग व्रत (१०) देशावकाश--व्रत-छठे व्रत में दिशाओं कहते हैं । a का जो परिमाण बांधा गया हो, उसे संकुचित अतिथि ऐसा सन्त होना चाहिए कि जिसे धन करके द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से यदि आदरपूर्वक संग्रह करने की इच्छा न हो, केवल शरीर की रक्षा उसकी पुनः सीमा बाँधी जाय और इस प्रकार के लिए जीवन की आवश्यकताएँ एक दिन में एक आश्रय का निरोध किया जाय तो उसे मुनिगण दिन के योग्य ही हों। देशावकाश नाम का ब्रत कहते हैं। वह ब्रत चार अतिथि सत्कार में मुख्यतः अन्नदान का ही घड़ी, एक रात या एक दिन तक इच्छानुसार ग्रहण महत्व समझा जाता है। चूंकि अन्न को प्राण माना १५ करना चाहिए और उसे छ: कोटि से ठीक-ठीक गया है-'अन्नं वैः प्राणः' एवं जल को जीवन कहा पालन करना चाहिए। है, इसीलिए किसी अतिथि का अन्न-जल से सत्कार इस व्रत से पाप की प्रवत्ति में मानव संयम करने का अर्थ होता है उसे प्राण एवं जीवन का दान रखना सीखना है और ज्यों-ज्यों वह अपने गमना- किया जा रहा है। गमन आवश्यकताओं की दिशाओं को कम-से-कम जो भी ज्ञान, चिन्तन की दशा में उन्मुख होता करता जाता है, त्यों-त्यों उसकी अन्तम खता को है, विचारों की गहराई में, उतरता है वह विज्ञान विकसित होने का अवसर मिलता है। कहलाता है। विज्ञान का अर्थ है-विशेष जानकारी। इस दृष्टि से, जैन परम्परा के बारह ब्रतों का (११) पौषध-व्रत-एक प्रातः से लेकर दूसरे आयुर्वैज्ञानिक वैशिष्ट्य स्वतः सिद्ध हो जाता है । प्रातः तक चौबीस घण्टे का उपवास करके सांसा- फिर भी शरीर ही धर्म का मुख्य साधन है-इसरिक वस्त्र, आभूषण, माल्य आदि को त्यागकर, लिए शरीर को संभालकर रखना आवश्यक है। पाप के सभी कर्मों को छोड़कर नियमपूर्वक धर्म- शरीर को स्वस्थ रखना प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्थान में एक अहोरात्रि पर्यन्त धर्म ध्यान-परायण आवश्यक है । १ वही पृष्ठ ७३ ३ वही पृ० २०६ २ साधना के सूत्र : प्रवचनकार युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी पृ. २३६ अतिथि सेवा ४२१ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास Od0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8