Book Title: Jain Parampara ke Vrat upvaso ka Ayu Vaigyanik Vaishishtya Author(s): Kanhiyalal Gaud Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 3
________________ माल अथवा वस्तु का उपभोग करने से आयु घटती है । स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है । अस्तेय व्रत की व्याख्या करते हुए कहा है आहृतं स्थापितं नष्टं विस्मृतं पतितं स्थितम् । नाददीताऽस्वकीय स्वमित्यस्तेयमणुव्रतम् ॥ अर्थात् हरण करके लाया हुआ, रखा हुआ, खोया हुआ, भूला हुआ, गिरा हुआ या रहा हुआ किसी दूसरे का धन ग्रहण न करना - यह अस्तेय नाम का अणुव्रत है। जैन परम्परा में पांच अतिचार कह गये हैं, इन अतिचारों को त्याग कर अस्तेय व्रत ग्रहण करने का निर्देश शास्त्रकार देते हैं । वे अतिचार इस प्रकार हैं स्तेनानुज्ञा तदानीतादानं वैरुद्धमामुकम् । प्रतिरूप क्रियामानान्यत्वं वा स्तेय संश्रिता ॥ अर्थात् चोर को आज्ञा देना, चोरी का द्रव्य लेना, राजा की ओर से निषेध किए हुए कामों को करना, किसी एक वस्तु में, दूसरी वस्तु मिलाकर बेचना और झूठे बाँट रखना - यह सब अस्तेय व्रत के दोष हैं । " ( ४ ) ब्रह्मचर्य व्रत - यदि मन भली-भांति दृढ हो तो सर्वथा ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करना चाहिए । और यदि दृढ़ वृत्ति न हो तो स्वदार संतोष वृत्ति रखनी चाहिए । विषयाभिलाषा जब तक जिस काल तक उत्पन्न होती है, तभी तक उसका दमन करना हितावह है - सच्चा व्रत है । व्रत ग्रहण करने से मन और वाणी का यह मार्ग भी बन्द हो जाता है और जब यह दोनों मार्ग बन्द हो जाते हैं तभी ब्रह्मचर्य व्रत का आध्यात्मिक लाभ - इन्द्रिय दमन का परम लाभ प्राप्त होता है । पर-नारी के सेवन से जैसी शारीरिक और आत्मिक हानियाँ होती हैं, वैसी ही हानियाँ अति १ कर्तव्य -कौमुदी [ खण्ड १-२ ] पृ. ३८-३६ ४१८ Jain Education International स्त्री सेवन और विषय कोड़ा से होती है। आयुर्वेद के 'भाव - प्रकाश' नामक ग्रन्थ में कहा गया है । शूल कास ज्वर श्वास कादर्य पाड्वा मय क्षयाः । अति व्यवाया ज्जायन्ते रोगाच्चा शेष कादवः ॥ अर्थात् - अधिक स्त्री सेवन करने से शूल, कास, ज्वर, श्वास, कृशता, पांडुरोग, क्षय और हिचकी आदि रोग होते हैं । इसी प्रकार आसनादि के द्वारा की जाने वाली अनन्त क्रीड़ाएँ भी विषय वृत्ति को बढ़ाने वाली और शरीर तथा आत्मा का अहित करने वाली हैं । ब्रह्मचर्य बन्द द्वार की अर्गला की आवश्यकता तो पूरी करता है । पर इस व्रत के बिना अनेक चतुर मनुष्य भी विषय की अन्धकारमयी खाई में पड़े और ख्वारो खराब हो गये हैं । कहा भी हैविषयार्त मनुष्याणां दुःखावस्था दश स्मृताः । पापान्यपि बहून्यत्र सारं किं मूढ पश्यसि ॥2 अर्थात - विषय पीड़ित मानव की दस दुःखद अवस्थाएँ होती हैं और उनमें अनन्त पाप समाविष्ट है । इन दस अवस्थाओं में दूसरी चिन्ता (८) रोगोत्पत्ति (६) जड़ता (१०) मृत्यु- मुख्य हैं । ये सभी स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं। शरीर में रोगोमें त्पत्ति हो जाने पर अन्त वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । अथर्ववेद में इसका महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा है ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्र विरक्षति । आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते ॥ ११।५।१६ अर्थात् - ब्रह्मचर्य के तप से ही राजा राष्ट्र की रक्षा करने में समर्थ होता है । आचार्य ब्रह्मचर्य के द्वारा ही शिष्य को अपने शिक्षण एवं निरीक्षण में लेने की योग्यता सम्पादन करता है । प्रो. एल्फ्रेड फोनियर शेल्स नगर में १६०२ २ कर्त्तव्य कौमुदी खण्ड १-२ पृ. ४६ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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