Book Title: Jain Padarth Vivechana me Vaigyanik Drushti
Author(s): Navlata
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 7
________________ चाहे वह त्रिगुणों की साम्यावस्थारूप प्रकृति हो, जगत की उत्पत्ति करता है, जो रसायन विज्ञान की शान्त अवस्था में स्थित परमाणु हो, माया हो अथवा यौगिकों की धारणा के ही समान है । जिस प्रकार र पुद्गल हों ! भेद केवल नाम-रूप का है, चिन्तन के जैन मत में संघात या स्कन्ध से ही स्थूल जगत दृष्टिकोण का है, मूल रूप में एक ही शाश्वत अवि- की उत्पत्ति होती है। उसी प्रकार रसायन विज्ञान नाशी तत्व विद्यमान है, जो अव्यक्त रूप से व्यक्त प्रत्येक पदार्थ को कुछ विशेष मूल तत्वों (Elements) होता है जैसा कि छान्दोग्योपनिषद् का मत के यौगिक के रूप में विश्लेषित करता है। है। जैन आकाश को द्रव्य मानकर अनुमान से उसकी ये पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण से युक्त सिद्धि मानते हैं क्योंकि पुद्गलों की व्यापकता के लिए होते हैं । भौतिक पदार्थों का निष्पादन करने वाले 3 कोई आधार अवश्य मानना पडेगा। विज्ञान आकाश इन अणुओ का अपना निश्चित परिमाण तथा को नहीं मानता, वह दिक और काल (Space and आकार नहीं होता। इनमें गुणगत ध्वंस विद्यमान Time) की सत्ता स्वीकार करता है। आकाश तो है।" वस्तुतः वह सम्पूर्ण रिक्त स्थान है जहाँ कोई पदार्थ नहीं है। यहाँ विज्ञानवेत्ताओं का तर्क हो सकता यह ध्वंस विनाश (प्रध्वंसाभाव) न होकर क्षय है कि परमाण सधन अथवा विरल रूप में सर्वत्र या क्षरण रूप है। परमाण का विरलत्व या सघनत्व व्याप्त हैं; अतः उस आकाश की सिद्धि नहीं होती, वस्तु के आकार को प्रभावित करता है। विज्ञान इस जो रिक्त स्थान का पर्याय है। इसका उत्तर यह तथ्य को मानता है। यही कारण है कि समान दिया जा सकता है कि परमाणुओं का संघनित संख्यक परमाणुओं वाले दो पदार्थ अथवा समान 5 होना दृश्य पदार्थ की स्थिति है। विरल रूप में पर- भार वाले दो पदार्थ परमाणुओं के बिरलत्व या का माणुओं के होते हुए भी पदार्थ एक स्थान से दूसरे संघनत्व के कारण भिन्न आकार के होते हैं। स्थान पर बिना किसी अवरोध के गतिमान होते हैं, क्योंकि परमाणुओं का अपना कोई निश्चित आकार नहीं होता, इसी से आकाश की सिद्धि होती है। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दार्शनिकों ने HO उपाधिभेद से वही घटाकाश इत्यादि के रूप में जिन सिद्धान्तों की स्थापना की तथा पदार्थों का KC __ अभिधेय होता है। जिस प्रकार विवेचन किया वह वैज्ञानिक पद्धति है । जो वर्तमान विज्ञान-वेत्ता विकासवाद का मिथ्या 3 ___अन्तिम अजीव द्रव्य पुद्गल है । 'पूरयन्ति उद्घोष करते हुए आधुनिक वैज्ञानिक अनुसन्धानों गलंति च' इस व्युत्पत्ति के आधार पर पुद्गल वे द्रव्य को मानव को चमत्कारपूर्ण बुद्धि का परिणाम हैं; जो अणुओं के विश्लेषण या संघात से स्कन्धादि मानते हैं, वे अपने सहस्रों वर्ष पूर्व प्रतिपादित किए। की उत्पत्ति के कारण होते हैं। ये दो प्रकार गए दार्शनिक विचारों को पुरातन इतिहास कहकर के होते हैं-अणु तथा स्कन्ध या संघात । उनका उपहास करते हैं, किन्तु उन दार्शनिक विज्ञान की भाषा में इन्हें क्रमशः Atomic विचारों को कितने विचार मन्थन के पश्चात् प्रस्तुत तथा Compound कहा जा सकता है । अणु अत्यन्त किया गया था, यह विचार का विषय है । दर्शन सूक्ष्म होने के कारण उपभोग्य नहीं हैं । दयणुक से का क्षेत्र विज्ञान के क्षेत्र से अधिक व्यापक है क्योंकि आरम्भ करके स्कन्धों का निर्माण होता है । पुद्गल विज्ञान ब्रह्माण्ड से भो परे उसे नियन्त्रित करने उपादान तथा मूल इकाई है। संघात ही दृश्य वाली शक्ति के विषय में मौन है जबकि दर्शन किसी। तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन २०७ ( (C) साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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