Book Title: Jain Padarth Vivechana me Vaigyanik Drushti
Author(s): Navlata
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 5
________________ यहाँ परमाणुसृष्टि की विशद व्याख्या का अव- जन्ममरणचक्र आस्रव के समकक्ष ही है । जीवविज्ञान काश तथा आवश्यकता नहीं है अपितु इतना ही तथा भौतिक जीव विज्ञान के अनुसार परमाणु में विचारणीय है कि जिस प्रकार कर्म आश्रवादि का चैतन्य उत्पन्न होने पर उसमें अनेक ऐसे गुण उत्पन्न कारण होता है उसी प्रकार सम्भवतः गतिज ऊर्जा हो जाते हैं,जो उसे जड़ से भिन्न करते हैं । वे चेतन अथवा तीव्र विद्य त आवेश तथा भौतिक परमाणु असीमकाल तक गतिशील होते हुए गति क परमाणुओं के संयोग से जैविक सृष्टि (जन्ममरण) द्वारा ही नियन्त्रित होते हुए चक्रवत् स्थित रहते प्रारम्भ होती है । जैविक सृष्टि विषयक विशेष हैं। भौतिक तन्त्रों का संसर्ग होते ही इनका भोग चर्चा जीव पदार्थ के विवेवन का विषय है । भावा- की ओर चुम्बकीय आकर्षण हो जाता है । विचारस्रव तथा द्रव्यास्रव के लक्षणों पर विचार करने से णीय है, क्या 'बन्ध' का वैज्ञानिक स्वरूप इस कर्म और भोग की अविरल गतिशील परम्परा स्वाभाविक प्राकृतिक चेतन सृष्टि प्रक्रिया में देखा 0 सुस्पष्ट होती है । जीव का जन्मादिभाव कर्मपुद्गलों जा सकता है ? के प्रवेश के बिना भोक्तत्व नहीं प्रदान कर सकता तथा कर्मों के द्वारा जन्मादि का निर्धारण होता है। परमाणुओं की स्थिति सदा एक सी नहीं रहती, जहाँ परमाणु सृष्टि का प्रश्न उपस्थित होता है, अपितु निरन्तर गतिशीलता के कारण उसके स्वरूप वहाँ जैन दर्शन अन्य दर्शनों के विपरीत विज्ञान की में उसके अन्दर स्थित प्रोटॉनों की संख्या में तथा भाँति ही परमाणुओं की समरूपता तथा समगुणवत्ता ऊर्जा में भी परिवर्तन होता रहता है । किसी तत्व एव को स्वीकार करता है। इसका तात्पर्य यह है कि विशेष के परमाणुओं में तीव्र गति वेग के कारण । प्रत्येक परमाणु में किसी भी भौतिक पदार्थ को उनकी ऊर्जा दूसरे तत्व में परिणत हो सकती है । उत्पन्न करने की शक्ति रहती है । वे ही परमाणु ऊर्जा का निरन्तर क्षय होता रहता है । तत्व परि27 पार्थिव सृष्टि करते हैं, जो वायवीय, जलीय अथवा वर्तन की यह स्थिति बहुत समय पश्चात् आती है। तैजस सृष्टि । पदार्थ की भिन्नता में परमाणु-क्रमाङ्क सम्भवतः जैविक, भौगोलिक, आनुवंशिक यहाँ तक प्रभावी होते हैं । 'परमाणु क्रमाङ्क' वे सकेत विशेष कि सांस्कृतिक परिवर्तनों में भी किसी सीमा तक हैं, जो किसी तत्व (Element) के परमाणु में यह कारण रहता हो । जैसे कोई चक्र वेगपूर्वक प्रोटानों तथा इलेक्ट्रॉनों की संख्या का निर्धारण घमाकर छोड़ दिए जाने पर अपने अधिकतम वेग करते हैं। जैसा कि, पूर्व चर्चा की जा चुकी है कि, तक पढेचकर पुनः विपरीत वेग से गतिमान हात प्रोटॉन न्यूट्रॉनों द्वारा एकत्रीभूत होते हैं । पार्थिवादि हा स्थिर हो जाता है, स्थिरता के बिन्दु पर पहुँचते परमाणुओं के परिणाम में गतिज ऊर्जा भी कारण दीपनः वही क्रम प्रारम्भ हो सकता है, उसी प्रकार होती है । ऊर्जा के वेग में अन्तर तथा परमाण- अपरिमित काल तक ऊर्जा का क्षरण शून्यता के क्रमाङ्क के कारण ही कुछ परमाण पाथिव पदार्थ बिन्द तक पहुँचता है, पुनः संकोच-विस्तार चलता की सृष्टि करते हैं तो कुछ तैजस आदि की। रहता है। शुन्यता का यह बिंदु इस प्रकार विनाश यद्यपि कर्म और गति की जैनसम्मत तथा का बिन्दु न होकर ऊर्जा का तत्त्वान्तर में परिवर्तित विज्ञान प्रतिपादित परिभाषाएँ भिन्न हैं तथापि होने का बिन्दु है। यही वह बिन्दु है, जहाँ कुछ स्वरूप की दृष्टि से कुछ अधिक अन्तर नहीं । गति विशेष परिस्थितियों में द्रव्य के गुण-धर्म परिवर्तित र में स्वभाव कारण होता है तथा कर्म स्वतः सिद्ध हो सकते हैं। परमाणु क्रमाङ्क अधिक होने से उसमें होते हुए भी उत्प्रेर्य होता है। परमाणुओं में विक्षप से स्वतः विकिरणें निर्गत होने लगती हैं, जिनका 1 गति या कर्म के ही कारण होता है। इस प्रकार निर्धारण प्रोटॉनों की संख्या देखकर किया जाता ansaANJFPRs. २०५ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For private. Derson Olim.com www.jainelibrary.org

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