Book Title: Jain Padarth Vivechana me Vaigyanik Drushti Author(s): Navlata Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 6
________________ हैं ।" यह स्थिति गति की लगभग वही अवस्थिति बतलाती है, जो 'संवर' तथा 'निर्जरा' की है । गति के आत्यन्तिक क्षय के प्रश्न पर विज्ञान मौन है । जिस प्रकारां गति स्वयं सापेक्ष होते हुए पदार्थों की सापेक्षता के लिए उत्तरदायी है, वैसे ही कर्म आस्रवादि पदार्थों की सापेक्ष स्थिति के लिए उत्तरदायी है । जीव के कर्मों का आत्यन्तिक क्षय ही जैन मत में मोक्ष है । वैज्ञानिक गवेषणाएँ अभी तक इस विषय पर प्रयोग तथा निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं . कर पायी हैं, कि अनन्त सृष्टि चक्र के प्रवाह का, अनन्त-चेतन परमाणुओं का पर्यवसान कहीं है अथवा नहीं। भले ही यह अप्रासंगिक तथा अप्राकरणिक प्रतीत हो किन्तु, चिन्तन का विषय अवश्य हो सकता है कि जीव के कर्मों का क्षय किस सीमा तक तथा किस रूप में होता है ? जीवों की संख्या भी न्यूनाधिक होती रहती है अथवा निश्चित रहती है ? जीव विज्ञान के अनुसार प्रत्येक जैविक तन्त्र में - अपने ही समान जैविक तन्त्रों को उत्पन्न करने की क्षमता होती है । 7 ये जैविक तन्त्र भौतिक तन्त्र से सम्पर्क टूटने के पश्चात् ( मृत्यु के पश्चात् ) कहाँ जाते हैं, वे पुनः शरीर धारण किस आधार पर करते हैं ? क्या कोई ऐसा बिन्दु भी है, जहाँ वे जैविक तन्त्र परमाणुरूप में विखण्डित हो जाते हैं ? यदि विज्ञान इन प्रश्नों का उत्तर दे सका, तो जैविक तन्त्रों की गति का विराम विन्दु जैन सम्मत ( तथा अन्य दार्शनिक सम्प्रदायों में भी प्रतिपादित) मोक्ष की समस्या का वैज्ञानिक समाधान प्रस्तुत कर सकेगा । उक्त पाँचों पदार्थों का भोक्तृभाव से जीव तथा भोग्यभाव से अजीव से सम्बन्ध है । जीव तथा अजीव जैन मत में द्रव्य हैं । द्रव्य गुण तथा पर्याय से युक्त पदार्थ है । " द्रव्य 'रहने वाले तथा स्वयं गुणन धारण करने वाले धर्म गुण तथा द्रव्य का भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में जाकर होना पर्याय कह लाता है । गुणधर्म नित्य तथा पर्याय अनित्य है ।" द्रव्य की यह परिभाषा भी वैज्ञानिक है । न्यायादि २०६ Jain Education International दर्शनों की भाँति ही गुण तथा क्रियावान् होना द्रव्य का लक्षण है, यह विज्ञान स्वीकार करता है । मूलतः यह द्रव्य दो प्रकार का है-अस्तिकाय तथा अनस्तिकाय । काल, तम इत्यादि अदृश्य पदार्थ अनस्तिकाय तथा जोव और अजीव अस्तिकाय हैं, क्योंकि ये दृश्य है । जीव भी बद्ध तथा मुक्त भेद से द्विधा है । बद्ध जीवों में एकेन्द्रिय अचर वनस्पति आदि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय (मनुष्य) इन चर जीवों की गणना होती है। यहाँ उल्लेखनीय है कि वनस्पति में जीवन का अनुसन्धान आधुनिक जीव-विज्ञान की खोज समझी जाती है, बल्कि अभी तक यह विवादास्पद विषय है; किन्तु लगभग २ सहस्र वर्ष पूर्व जैन दर्शन ने कितना वैज्ञानिक निर्णय प्रस्तुत किया, इसका प्रमाण द्रव्यों का उक्त वर्गीकरण है। अजीव द्रव्यों के अन्तर्गत धर्म, अधर्म, आकाश, काल पुद्गल को गणना की गई है । धर्म तथा अधर्म की व्याख्या जैन दर्शन क्रमशः गति सहकारी कारणभूत द्रव्यविशेष तथा स्थैर्य सहकारी कारणभूत ' के रूप में करता है जो परम्परागत न होकर पारिभाषिक है। एक गति है तो दूसरा स्थिति । एक प्रेरक है तो दूसरा निष्क्रिय ये अनुमान द्वारा सिद्ध हैं ।" ये जड़ भाव हैं तथा सम्पूर्ण तत्वमीमांसा को प्रभावित करते । विज्ञान की भाँति ही, जैन धर्माधर्म की धारणा समग्र अभिधेय को गति तथा स्थिरता इन दो अवस्थाओं में विभक्त करती है । विज्ञान की शाखाओं के रूप में जिन गतिविज्ञान ( Dynamics) अथवा गति सम्बन्धी विज्ञान ( Kinematics) तथा स्थितिविज्ञान ( Statics) की प्रतिष्ठा है, वे भी पदार्थों की इन दोनों प्रकार की अवस्थाओं का ही अध्ययन करते हैं । न्यूटन ने गति सम्बन्धी जिन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया, उनके अनुसार पदार्थ या तो ऋजु अथवा वक्र गति वाले होते हैं ।" स्थिति गति सापेक्ष है । वस्तुतः यह सम्पूर्ण विश्वप्रपञ्च, जो निरन्तर प्रत्येक क्षण में आविर्भाव और लय को प्राप्त होता है, गति तथा स्थिति के अतिरिक्त कुछ नहीं है । तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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