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मानव सृष्टि के पूर्व तथा पश्चात् जो कुछ भी अस्तित्ववान् था, है | अथवा सम्भावित है, उनके मनन तथा चिन्तन का इतिहास अनादि । है । अनादि परम्परा से सृष्टि की उत्पत्ति तथा विनाश का अर्थ किसी शाश्वत अव्यक्त की अभिव्यक्ति तथा संहार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । चाहे वह वैदिक ऋषियों के गहन प्रयोग और अनुभवपरक प्रमाणित किये गये सिद्धान्त वचन हों; वेदान्त दर्शन तथा नास्तिक दर्शनों की क्रान्तिपूर्ण वैज्ञानिक व्याख्याएँ हों; यूनान, इटली, जर्मनी तथा चीन की दार्शनिक मान्यताएँ हों; अथवा आधुनिक विज्ञान की विभिन्न शाखाएं तथा उनके अध्ययन की सीमाएँ; सबके अध्ययन का विस्तार वहीं तक है, जहाँ तक दृष्टि का, बुद्धि का, मन का प्रसार है । दूसरे
शब्दो में जो कुछ 'अस्ति' की सीमा में आता है, वह सब चिन्तन का INS - जैन पदार्थ-विवेचना में विषय है। हाँ, यह अवश्य है कि अध्ययन की विधि, उद्देश्य तथा
स्वरूप में भिन्नता है । सृष्टि के जड़-चेतन का अथवा जीव-जगत का मूल वैज्ञानिक दृष्टि कारण, मूलभूत तत्व-चाहे वह वेदान्त का ब्रह्म हो अथवा चार्वाकों
का परमाण-स्वभाव, अनादि अनन्त शाश्वत है। चाहे वह एक हो या 8 अनन्त, मूल तत्व या तत्वों की निरन्तर गतिशील परिवर्तन की सहज, स्वाभाविक प्रक्रिया, तत्वों का संचय और प्रचय, विस्तार और संकोच, सब कुछ किसी स्वचालित, स्वाभाविक ऊर्जा के अजस्र-स्रोत की भाँति 13 अविच्छिन्न-गति से निरन्तर चलता रहता है। यह क्रम ही सष्टि को काल के पथ पर ले जाता हुआ प्रलय, महाप्रलय, सृष्टि, स्थिति की नेमि पर (C) घुमाता रहता है, अविराम यात्री की भांति, जिसका पाथेय ही गम्य हो।
उस अव्यक्त तथा उससे व्यक्त पदार्थ जगत् के स्वरूप, कार्य तथा
गति को देखने, निरीक्षण, परिवीक्षण, अन्वीक्षण तथा व्यक्तीकरण -डॉ. नवलता की क्षमता और दृष्टिकोण की विभिन्नता अवश्य ही परिलक्षित होती
है । जो कुछ भी ज्ञय तथा अभिधेय है, वह या तो दृश्य, मूर्त, भौतिक प्रवक्ता-वि. सिं. स. ध. कालेज,
पदार्थ के रूप में है अथवा अमूर्त प्रत्यय के रूप में। पदार्थ और प्रत्यय कानपुर
भिन्न हैं अथवा अभिन्न ? तात्विक दृष्टि से दोनों का साधर्म्य तथा वैधर्म्य किस सीमा तक बोध्य है ? दोनों की वैज्ञानिक व्याख्या के आधार तथा दार्शनिक चिन्तन की पृष्ठभूमि क्या है ? इस विषय में : वैमत्य रहा है । कुछ विचारकों के मतानुसार प्रत्यय मात्र-वेद्य तत्व की प्रधानता तथा तात्विक सत्ता है, कुछ शास्त्रवेत्ता केवल पदार्थ (ज्ञ य वस्तु-आकार) को ही अध्येय तथा व्याख्येय मानते हैं, कुछ ... दार्शनिक पदार्थात्मक प्रत्ययवाद, तो कुछ प्रत्ययात्मक पदार्थवाद के पोषक हैं।
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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पदार्थ शब्द की व्यापक परिभाषा के अनुसार व्यवस्था के अपरिवर्तनीय नियम तथा परिवर्तन के तो प्रत्यय भी पदार्थ की सीमा से परे नहीं है। आधार होते हैं।
अपितु दोनों परम एवं चरम सत्य रूप गम्य तक मूल सिद्धान्तों के निर्धारण में भारतीय विज्ञान ६८ पहँचने की यात्रा के क्रमिक आयाम हैं, क्योंकि के प्रतिपादक वेद, वेदान्त. आस्तिक तथा नास्तिक
पदार्थ के स्वरूप का अनुशीलन तथा विश्लेषण किये दर्शन तथा अन्य शास्त्रों ने श्रद्धापरक तर्क द्वारा
बिना प्रत्यय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पदार्थ और प्रत्यय दोनों के स्वरूप की व्याख्या की। (GNI इस दृष्टि से विज्ञान और दर्शन परस्पर सहयोगी वेदों में विश्वास रखने वाले आस्तिक दर्शनों में म
तथा सम्पूरक हैं । विज्ञान का कार्य, जो वस्तु जसी व्याख्यात्मक जटिलता नास्तिक दर्शनों की अपेक्षा है, उसके यथातथ्य स्वरूप का विश्लेषण है, "
अधिक थी। नास्तिक दर्शनों में जैन दर्शन वस्तूदर्शन उस वस्तु के स्वरूप का बाह्यावरण बेधकर निष्ठ विश्लेषण तथा संश्लेषण दोनों ही दृष्टियों से आन्तरिक तत्व का उद्घाटन कर चरम यथार्थ की जनसामान्य के यथार्थ विषयक दृष्टिकोण के अधिक प्राप्ति का उपाय बताता है। विज्ञान 'क्या' का निकट था, अपि च, इसकी व्याख्याएँ अधिक स्पष्ट उत्तर देता है. तो दर्शन 'क्यों' और 'कैसे' का समा- तथा वैज्ञानिक थीं। यद्यपि जैन दर्शन के बीज ई० र धान ।
पू० ५००-६०० के लगभग पड़ चुके थे, और विक्रम आज के अति विकासवादी यूग का विज्ञान की प्रथम शताब्दी तक उनका अंकुरण भी हो चुका | अभी तक पदार्थ जगत के ही सम्यक तथा आत्य- था। छठी शत
ही सम्यक तथा आत्य- था। छठी शताब्दी तक वैचारिक प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र न्तिक सत्य (तथ्य) के अनुसन्धान तथा विश्लेषण में न्याय, बौद्ध तथा जैन दर्शन प्रबल प्रतिद्वन्द्वियों के में सफल नहीं हो सका है, जिसका प्रमाण है नित्य- रूप में अपने-अपने सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा में लगे परिवर्तनशील वैज्ञानिक सिद्धान्त । जिस सिद्धान्त थे। यद्यपि न्यायदर्शन की वैज्ञानिकता भी कम का प्रतिपादन एक वैज्ञानिक ने किया उसी को नहीं थी, तथापि जैनदर्शन अपने आचार तथा असिद्ध कर अन्य सिद्धान्त का प्रतिपादन दूसरे व्यावहारिक पक्ष की प्रबलता के कारण तथ्य को वैज्ञानिक ने कर दिया। खण्डन-मण्डन की यह अधिक वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत कर सका। आधुपरम्परा भी वर्तमान चिन्तन की देन नहीं है। निक विज्ञान का प्रारम्भ तो चतुर्दश शताब्दी के सहस्रों वर्ष पूर्व हमारे महर्षियों ने, विचारकों ने इस पश्चात् हुआ। परम्परा का सूत्रपात किया था । यह भारतीय शिक्षा जैनदर्शन का चिन्तन तथा अभिव्यक्ति मूर्त तथा 19 की मौलिक पद्धति भी थी, और चिन्तन का दृष्टि- अमूर्त, स्थूल तथा सूक्ष्म, भौतिक तथा अभौतिक कोण भी। परन्तु भारतीय तथा पाश्चात्य वैज्ञानिक सत्ताओं का जिस प्रकार समन्वय करता है, वह दृष्टिकोण में यह अन्तर अवश्य था कि पाश्चात्य निश्चय ही यह मानने के लिए उत्साहित करता है आधुनिक विज्ञान में एक सिद्धान्त कालान्तर में कि जैनदर्शन विज्ञान के आधारभूत घटकों में से एक असिद्ध होकर नये सिद्धान्त को जन्म देता है तथा है। न्यायदर्शन की ही भाँति जैनदर्शन भी उस वह अन्तिम सिद्धान्त ही सर्वमान्य होता है, जबकि प्रत्येक घटक को पदार्थ स्वीकार करता है जो सत्तादार्शनिक सिद्धान्त अपने आप में कभी असिद्ध तथा वान् है, ज्ञेय है तथा अभिधेय है । पदार्थ को बाह्य अमान्य नहीं होते, उन्हें मानने वाले किसी भी तथा सत मानने वाले जैन दार्शनिक पदार्थ-ग्रहण के काल में हो सकते हैं। अतः वैज्ञानिक सिद्धान्तों की विषय में दो धारणाएँ व्यक्त करते हैं। प्रथम के परिवर्तनशील प्रकृति का तर्क बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण अनुसार किसी पदार्थ के गुणों तथा विशेषताओं को | नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वस्तुतः सिद्धान्त पदार्थ से अपृथक रूप से ग्रहण किया जा सकता है। २०२
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उदाहरणार्थ 'यह पुस्तक है' इस कथन में पुस्तक के ही आधारित है तथा दैशिक व कालिक परिवर्तनों साथ उसकी विशेषताएँ भी अपृथक् रूप से ग्राह्य का हेतु है। कोई भी वस्तु इस समय जो है, वह
अगले क्षण नहीं रहेगी। जबकि सत्य त्रिकालाबाद्वितीय धारणा के अनुसार पदार्थों से पृथक धित अव्यय होता है; और विज्ञान भी अभी तक एक गुणों का ग्रहण होता है। यह धारणा सभी पदार्थ- किसी ऐसे तत्त्व की खोज नहीं कर पाया है, जो वादी प्राच्य और पाश्चात्य विचारकों तथा वैज्ञा- अव्यय तथा अविनाशो हो। हाँ परमाणओं की मूल निकों को मान्य है । वर्तमान भौतिक विज्ञान किसी स्थिति अविनाशी है, किन्तु गति की स्वाभाविक भी पदार्थ में आकृति, परिमाण तथा गति को अव- सहज क्रिया के कारग उनमें भी निरन्तर कुछ-नश्य ही स्वीकार करता है। ये तीनों ही गुणधर्म कुछ परिवर्तन अवश्य होता है। इस दृष्टि से कोई पृथक सत्ता वाले होते हुए भी पदार्थ में आधेय भाव भी वस्तु त्रिकाल में सत्य नहीं होती। इसी प्रकार (0 से रहते हैं। कोई भी पदार्थ जव ग्रहणविषयता इन्द्रियाँ एक ही समय में किसी वस्तु के पूर्ण स्वरूप TARA वाला होता है, तो उसका परिमाण, आकृति तथा को ग्रहण नहीं कर पातीं। क्योंकि इन्द्रिय का पदार्थ गति ही ग्राह्य होती है।
के सभी पक्षों से सन्निकर्ष एक ही क्षण में नहीं हो जैनदर्शन अपने जिस मौलिक सिद्धान्त के
पाता । इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता कारण लोकविख्यात है. वह है स्याद्वाद या अनेका
है-जिस प्रकार किसी गोले को सामने रखा हआ न्तवाद । स्याद्वाद वस्तुतः पदार्थ के स्वरूप विश्लेषण
दीपक पूर्णरूप से प्रकाशित नहीं करता, अपितु 3 की वस्तुनिष्ठ कल्पना है जो भौतिक विज्ञान के जहा तक आलोक को पहुँच है, वहीं तक गोले को नियमों से तुलनीय है। अनेकान्तवाद के अनुसार
देखा जा सकता है. उसी प्रकार इन्द्रिय का पदार्थ के । कोई भी वस्तु त्रिकाल में न तो पर्ण सत्य है और न
जिस भाग से संन्निकर्ष होता है उसी का ग्रहण हो पूर्णरूप में उसका ग्रहण किया जा सकता है। पाता है। पदार्थ के स्वरूप के सम्बन्ध में सात प्रकार की इस प्रसंग में विज्ञान यथार्थ का उद्घाटन सम्भावनाएं हो सकती हैं, जो सप्तभंगीनय के नाम अन्यान्य भौतिक तथा रासायनिक प्रयोगों द्वारा से विख्यात है।
करता है, जबकि अन्य दर्शनों की भाँति जैन दर्शन सप्तभंगीनय में सम्भवतः वैज्ञानिक सम्भावना- उसका कारण खोजता है, जिसका पर्यवसान 'जीव' वाद के बीज निहित हों। स्याद्वाद की व्याख्या के के 'अज्ञानाभाव' में होता है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह लिए हस्ति का उदाहरण प्रसिद्ध है। जिस प्रकार 'अज्ञान' ही सत्य की खोज की अविच्छिन्न परम्परा कोई नेत्रहीन विशालकाय हाथी के संड, कान, पैर को प्रेरित करता है। जैन दर्शन निरपेक्ष सत्य की आदि का स्पर्श करके उन-उन अंगों को ही हाथी प्राप्ति त्रिरत्नों के द्वारा मानता है । ये त्रिरत्न हैं - समझने लगता है उसी प्रकार अज्ञान के आवरण के सम्यकदर्शन, सम्यक ज्ञान तथा सम्यकचारित्र । कारण जीव पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को जान सापेक्षतावादी वैज्ञानिक विचारधारा उस निरपेक्ष नहीं पाता । यह अज्ञान इन्द्रियों के सर्वत्र गमन की तत्त्व तक अपनी दृष्टि का विस्तार अभी तक नहीं अक्षमता ही है। स्याद्वाद का सिद्धान्त वैज्ञानिक कर पाई है, यद्यपि कुछ वैज्ञानिक-दार्शनिक इस सापेक्षतावाद की पृष्ठभूमि है। आधुनिक भौतिक दिशा की ओर प्रयत्नशील हैं। स्थूल से सूक्ष्म की विज्ञान के क्षेत्र में क्रान्ति का सूत्रपात करने वाले ओर गमन का नियम विज्ञान को सूक्ष्मतम व्यक्त आइस्टीन महोदय ने प्रत्येक पदार्थ को गति का तक तो पहुँचाने में समर्थ हुआ है, किन्तु अव्यक्त परिणाम बताया। सापेक्षता भी मूलरूप से गति पर की सत्ता को स्वीकार करते हुए भी उसके स्वरूप, तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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गुणधर्म की स्पष्ट और सुनिश्चित व्याख्या अभी करता है । आस्रव की भाँति ही यह भी दो प्रकार - SI तक विज्ञान की सीमा से परे है। रत्नत्रय (सम्यक् का होता है । जीव के जन्मादिभाव का क्षय भाव
ज्ञान, सम्यकदृष्टि तथा सम्यक्चारित्र) बिना संवर तथा कर्मपद्गलों का जीव में न आना द्रव्यअव्यक्त ऊर्जा रूप स्फोटात्मक शक्ति सम्भव नहीं संवर कहलाता है। कर्मफल को जीर्ण कर देना ही जो वर्तमान आविष्कृत परमाण ऊर्जा से भी शत- निर्जरा है। कर्मों का आत्यन्तिक क्षय मोक्ष है सहस्र गुणा सूक्ष्म है तथा जो 'परा' स्थिति है। जीव और अजीव द्रव्य हैं।
___यह तो हुआ पदार्थ के ग्रहण का विज्ञान । अब परवर्ती भौतिक विज्ञान के आविष्कारों तथा A. प्रश्न है पदार्थों की संख्या तथा उनके विश्लेषण अनुसन्धानों द्वारा पदार्थ के विवेचन में आकृति, का । विज्ञान पदार्थ (Matter) को कुछ मूल तत्वों
परिमाण तथा गति को प्रमुख तत्व स्वीकार किया ESS (Elements) के यौगिक के रूप में परिभाषित गया। आकृति तथा परिमाण दोनों गति द्वारा
करता है, किन्तु पदार्थों की संख्या सुनिश्चित नहीं प्रभावित होते हैं। गतिसिद्धान्त आधुनिक भौतिक समझी जा सकती, क्योंकि नवीन अनुसन्धानात्मक विज्ञान का आधारभूत सिद्धान्त है। वैज्ञानिक प्रयागा द्वारा मूल तत्वा का सख्या हा बढ़ता जा पदार्थ मीमांसा के लिए गति का विश्लेषण अनिरही है। जैन दर्शन भी यद्यपि पदार्थों की संख्या ।
वार्य है। तुलनात्मक अध्ययन से जैनदर्शनसम्मत अनन्त मानता है, किन्तु गुणधर्मों के आधार पर 'कर्म' और वैज्ञानिक 'गति' किन्हीं बिन्दुओं पर पदार्थों का वर्गीकरण सात भागों में करता है । ये
समकक्ष तथा समवर्ती प्रतीत होते हैं । जिस प्रकार सात पदार्थ हैं आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष,
आस्रव से लेकर अजीव तक सभी पदार्थों की अभिजीव तथा अजीव। जैनदर्शनसम्मत ये पदार्थ वैशे- व्यक्ति और तिरोधान कर्माश्रित है, उसी प्रकार षिक सप्त पदार्थों से भिन्न हैं। कुछ जैन दार्शनिक
विज्ञान-प्रतिपादित गति समस्त पारमाणविक तथा केवल जीव तथा अजीव को ही पदार्थ मानते हैं ।
स्थूल भौतिक संरचना परिवर्तन (परिणाम) और किन्तु विश्लेषण के आधार पर सात पदार्थ स्वीकार
ध्वंस के लिए उत्तरदायी है। गति के कारण ही करना ही उपयुक्त प्रतीत होता है। इनमें से प्रथम
पदार्थ में निहित ऊर्जा व्यक्त होती हैं। परमाणु पाँच पदार्थ तथा अन्तिम दो मूर्त तथा भौतिक सत्ता
में स्थित न्यूक्लियस या नाभिक के आस-पास ऋण वाले होते हैं। जीव के कर्म ही सभी पदार्थों को
विद्य न्मय कण (इलेक्ट्रान) चक्कर लगाते रहते हैं। प्रभावित करने वाले मूल तत्व घटक हैं।
नाभिक में प्रोटान की स्थिति होती है, जो विभिन्न जनसम्मत उक्त सप्त पदार्थों का स्वरूप तत्वों में विविध संख्याओं में होते हैं। इनके अतिविशुद्ध दार्शनिक होते हुए भी वैज्ञानिक विश्लेषण रिक्त न्यूट्रान विद्य तरहित कण तथा पाजिट्रान का अविषय नहीं हैं। संक्षेप में इन पदार्थों की धनात्मक विद्य तयुक्त कण भी परमाणु में पाये व्याख्या करने पर ज्ञात होता है कि प्रथम पदार्थ जाते हैं। यह विद्य त ऊर्जा रूप तथा अपने से आस्रव कर्मों का जीव में प्रवेश अथवा जन्ममर- अधिक ऊर्जा की उत्पादिका होती है। गति के णादि है । यह दो प्रकार का होता है-भावास्रव कारण प्रत्येक कण परस्पर एक दूसरे को आकर्षित
तथा द्रव्यास्रव । जीव का जन्मादिभाव भावास्रव करता है । यह आकर्षण ही परमाणु संयोग या हो तथा कर्मपुद्गलों का जीव में प्रवेश द्रव्यास्रव कह- परमाणु संघात का कारण होता है। परमाणओं के
लाता है। कर्मों द्वारा जीव को जकडना ही बन्ध संघात के लिए न्यूट्रान है । आस्रव के विपरीत कर्ममार्ग का अवरोध संवर है क्योंकि उसके बिना प्रोटान एकत्र रूप से नहीं कहलाता है । यह जीव को मोक्ष की ओर अग्रसर रह सकते ।' २०४
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यहाँ परमाणुसृष्टि की विशद व्याख्या का अव- जन्ममरणचक्र आस्रव के समकक्ष ही है । जीवविज्ञान काश तथा आवश्यकता नहीं है अपितु इतना ही तथा भौतिक जीव विज्ञान के अनुसार परमाणु में विचारणीय है कि जिस प्रकार कर्म आश्रवादि का चैतन्य उत्पन्न होने पर उसमें अनेक ऐसे गुण उत्पन्न कारण होता है उसी प्रकार सम्भवतः गतिज ऊर्जा हो जाते हैं,जो उसे जड़ से भिन्न करते हैं । वे चेतन अथवा तीव्र विद्य त आवेश तथा भौतिक परमाणु असीमकाल तक गतिशील होते हुए गति क परमाणुओं के संयोग से जैविक सृष्टि (जन्ममरण) द्वारा ही नियन्त्रित होते हुए चक्रवत् स्थित रहते प्रारम्भ होती है । जैविक सृष्टि विषयक विशेष हैं। भौतिक तन्त्रों का संसर्ग होते ही इनका भोग चर्चा जीव पदार्थ के विवेवन का विषय है । भावा- की ओर चुम्बकीय आकर्षण हो जाता है । विचारस्रव तथा द्रव्यास्रव के लक्षणों पर विचार करने से णीय है, क्या 'बन्ध' का वैज्ञानिक स्वरूप इस कर्म और भोग की अविरल गतिशील परम्परा स्वाभाविक प्राकृतिक चेतन सृष्टि प्रक्रिया में देखा 0 सुस्पष्ट होती है । जीव का जन्मादिभाव कर्मपुद्गलों जा सकता है ? के प्रवेश के बिना भोक्तत्व नहीं प्रदान कर सकता तथा कर्मों के द्वारा जन्मादि का निर्धारण होता है। परमाणुओं की स्थिति सदा एक सी नहीं रहती, जहाँ परमाणु सृष्टि का प्रश्न उपस्थित होता है, अपितु निरन्तर गतिशीलता के कारण उसके स्वरूप वहाँ जैन दर्शन अन्य दर्शनों के विपरीत विज्ञान की में उसके अन्दर स्थित प्रोटॉनों की संख्या में तथा भाँति ही परमाणुओं की समरूपता तथा समगुणवत्ता ऊर्जा में भी परिवर्तन होता रहता है । किसी तत्व एव को स्वीकार करता है। इसका तात्पर्य यह है कि विशेष के परमाणुओं में तीव्र गति वेग के कारण । प्रत्येक परमाणु में किसी भी भौतिक पदार्थ को उनकी ऊर्जा दूसरे तत्व में परिणत हो सकती है ।
उत्पन्न करने की शक्ति रहती है । वे ही परमाणु ऊर्जा का निरन्तर क्षय होता रहता है । तत्व परि27 पार्थिव सृष्टि करते हैं, जो वायवीय, जलीय अथवा वर्तन की यह स्थिति बहुत समय पश्चात् आती है।
तैजस सृष्टि । पदार्थ की भिन्नता में परमाणु-क्रमाङ्क सम्भवतः जैविक, भौगोलिक, आनुवंशिक यहाँ तक प्रभावी होते हैं । 'परमाणु क्रमाङ्क' वे सकेत विशेष कि सांस्कृतिक परिवर्तनों में भी किसी सीमा तक हैं, जो किसी तत्व (Element) के परमाणु में यह कारण रहता हो । जैसे कोई चक्र वेगपूर्वक प्रोटानों तथा इलेक्ट्रॉनों की संख्या का निर्धारण घमाकर छोड़ दिए जाने पर अपने अधिकतम वेग करते हैं। जैसा कि, पूर्व चर्चा की जा चुकी है कि, तक पढेचकर पुनः विपरीत वेग से गतिमान हात प्रोटॉन न्यूट्रॉनों द्वारा एकत्रीभूत होते हैं । पार्थिवादि हा स्थिर हो जाता है, स्थिरता के बिन्दु पर पहुँचते परमाणुओं के परिणाम में गतिज ऊर्जा भी कारण दीपनः वही क्रम प्रारम्भ हो सकता है, उसी प्रकार होती है । ऊर्जा के वेग में अन्तर तथा परमाण- अपरिमित काल तक ऊर्जा का क्षरण शून्यता के क्रमाङ्क के कारण ही कुछ परमाण पाथिव पदार्थ बिन्द तक पहुँचता है, पुनः संकोच-विस्तार चलता की सृष्टि करते हैं तो कुछ तैजस आदि की। रहता है। शुन्यता का यह बिंदु इस प्रकार विनाश
यद्यपि कर्म और गति की जैनसम्मत तथा का बिन्दु न होकर ऊर्जा का तत्त्वान्तर में परिवर्तित विज्ञान प्रतिपादित परिभाषाएँ भिन्न हैं तथापि होने का बिन्दु है। यही वह बिन्दु है, जहाँ कुछ
स्वरूप की दृष्टि से कुछ अधिक अन्तर नहीं । गति विशेष परिस्थितियों में द्रव्य के गुण-धर्म परिवर्तित र में स्वभाव कारण होता है तथा कर्म स्वतः सिद्ध हो सकते हैं। परमाणु क्रमाङ्क अधिक होने से उसमें
होते हुए भी उत्प्रेर्य होता है। परमाणुओं में विक्षप से स्वतः विकिरणें निर्गत होने लगती हैं, जिनका 1 गति या कर्म के ही कारण होता है। इस प्रकार निर्धारण प्रोटॉनों की संख्या देखकर किया जाता
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हैं ।" यह स्थिति गति की लगभग वही अवस्थिति बतलाती है, जो 'संवर' तथा 'निर्जरा' की है ।
गति के आत्यन्तिक क्षय के प्रश्न पर विज्ञान मौन है । जिस प्रकारां गति स्वयं सापेक्ष होते हुए पदार्थों की सापेक्षता के लिए उत्तरदायी है, वैसे ही कर्म आस्रवादि पदार्थों की सापेक्ष स्थिति के लिए उत्तरदायी है । जीव के कर्मों का आत्यन्तिक क्षय ही जैन मत में मोक्ष है । वैज्ञानिक गवेषणाएँ अभी तक इस विषय पर प्रयोग तथा निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं . कर पायी हैं, कि अनन्त सृष्टि चक्र के प्रवाह का, अनन्त-चेतन परमाणुओं का पर्यवसान कहीं है अथवा नहीं। भले ही यह अप्रासंगिक तथा अप्राकरणिक प्रतीत हो किन्तु, चिन्तन का विषय अवश्य हो सकता है कि जीव के कर्मों का क्षय किस सीमा तक तथा किस रूप में होता है ? जीवों की संख्या भी न्यूनाधिक होती रहती है अथवा निश्चित रहती है ? जीव विज्ञान के अनुसार प्रत्येक जैविक तन्त्र में - अपने ही समान जैविक तन्त्रों को उत्पन्न करने की क्षमता होती है । 7 ये जैविक तन्त्र भौतिक तन्त्र से सम्पर्क टूटने के पश्चात् ( मृत्यु के पश्चात् ) कहाँ जाते हैं, वे पुनः शरीर धारण किस आधार पर करते हैं ? क्या कोई ऐसा बिन्दु भी है, जहाँ वे जैविक तन्त्र परमाणुरूप में विखण्डित हो जाते हैं ? यदि विज्ञान इन प्रश्नों का उत्तर दे सका, तो जैविक तन्त्रों की गति का विराम विन्दु जैन सम्मत ( तथा अन्य दार्शनिक सम्प्रदायों में भी प्रतिपादित) मोक्ष की समस्या का वैज्ञानिक समाधान प्रस्तुत कर सकेगा ।
उक्त पाँचों पदार्थों का भोक्तृभाव से जीव तथा भोग्यभाव से अजीव से सम्बन्ध है । जीव तथा अजीव जैन मत में द्रव्य हैं । द्रव्य गुण तथा पर्याय से युक्त पदार्थ है । " द्रव्य 'रहने वाले तथा स्वयं गुणन धारण करने वाले धर्म गुण तथा द्रव्य का भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में जाकर होना पर्याय कह लाता है । गुणधर्म नित्य तथा पर्याय अनित्य है ।" द्रव्य की यह परिभाषा भी वैज्ञानिक है । न्यायादि
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दर्शनों की भाँति ही गुण तथा क्रियावान् होना द्रव्य का लक्षण है, यह विज्ञान स्वीकार करता है । मूलतः यह द्रव्य दो प्रकार का है-अस्तिकाय तथा अनस्तिकाय । काल, तम इत्यादि अदृश्य पदार्थ अनस्तिकाय तथा जोव और अजीव अस्तिकाय हैं, क्योंकि ये दृश्य है । जीव भी बद्ध तथा मुक्त भेद से द्विधा है । बद्ध जीवों में एकेन्द्रिय अचर वनस्पति आदि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय (मनुष्य) इन चर जीवों की गणना होती है। यहाँ उल्लेखनीय है कि वनस्पति में जीवन का अनुसन्धान आधुनिक जीव-विज्ञान की खोज समझी जाती है, बल्कि अभी तक यह विवादास्पद विषय है; किन्तु लगभग २ सहस्र वर्ष पूर्व जैन दर्शन ने कितना वैज्ञानिक निर्णय प्रस्तुत किया, इसका प्रमाण द्रव्यों का उक्त वर्गीकरण है। अजीव द्रव्यों के अन्तर्गत धर्म, अधर्म, आकाश, काल पुद्गल को गणना की गई है । धर्म तथा अधर्म की व्याख्या जैन दर्शन क्रमशः गति सहकारी कारणभूत द्रव्यविशेष तथा स्थैर्य सहकारी कारणभूत ' के रूप में करता है जो परम्परागत न होकर पारिभाषिक है। एक गति है तो दूसरा स्थिति । एक प्रेरक है तो दूसरा निष्क्रिय ये अनुमान द्वारा सिद्ध हैं ।" ये जड़ भाव हैं तथा सम्पूर्ण तत्वमीमांसा को प्रभावित करते । विज्ञान की भाँति ही, जैन धर्माधर्म की धारणा समग्र अभिधेय को गति तथा स्थिरता इन दो अवस्थाओं में विभक्त करती है । विज्ञान की शाखाओं के रूप में जिन गतिविज्ञान ( Dynamics) अथवा गति सम्बन्धी विज्ञान ( Kinematics) तथा स्थितिविज्ञान ( Statics) की प्रतिष्ठा है, वे भी पदार्थों की इन दोनों प्रकार की अवस्थाओं का ही अध्ययन करते हैं ।
न्यूटन ने गति सम्बन्धी जिन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया, उनके अनुसार पदार्थ या तो ऋजु अथवा वक्र गति वाले होते हैं ।" स्थिति गति सापेक्ष है । वस्तुतः यह सम्पूर्ण विश्वप्रपञ्च, जो निरन्तर प्रत्येक क्षण में आविर्भाव और लय को प्राप्त होता है, गति तथा स्थिति के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।
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चाहे वह त्रिगुणों की साम्यावस्थारूप प्रकृति हो, जगत की उत्पत्ति करता है, जो रसायन विज्ञान की शान्त अवस्था में स्थित परमाणु हो, माया हो अथवा यौगिकों की धारणा के ही समान है । जिस प्रकार र पुद्गल हों ! भेद केवल नाम-रूप का है, चिन्तन के जैन मत में संघात या स्कन्ध से ही स्थूल जगत दृष्टिकोण का है, मूल रूप में एक ही शाश्वत अवि- की उत्पत्ति होती है। उसी प्रकार रसायन विज्ञान नाशी तत्व विद्यमान है, जो अव्यक्त रूप से व्यक्त प्रत्येक पदार्थ को कुछ विशेष मूल तत्वों (Elements) होता है जैसा कि छान्दोग्योपनिषद् का मत के यौगिक के रूप में विश्लेषित करता है।
है।
जैन आकाश को द्रव्य मानकर अनुमान से उसकी ये पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण से युक्त सिद्धि मानते हैं क्योंकि पुद्गलों की व्यापकता के लिए होते हैं । भौतिक पदार्थों का निष्पादन करने वाले 3 कोई आधार अवश्य मानना पडेगा। विज्ञान आकाश इन अणुओ का अपना निश्चित परिमाण तथा
को नहीं मानता, वह दिक और काल (Space and आकार नहीं होता। इनमें गुणगत ध्वंस विद्यमान Time) की सत्ता स्वीकार करता है। आकाश तो है।" वस्तुतः वह सम्पूर्ण रिक्त स्थान है जहाँ कोई पदार्थ नहीं है। यहाँ विज्ञानवेत्ताओं का तर्क हो सकता यह ध्वंस विनाश (प्रध्वंसाभाव) न होकर क्षय है कि परमाण सधन अथवा विरल रूप में सर्वत्र या क्षरण रूप है। परमाण का विरलत्व या सघनत्व व्याप्त हैं; अतः उस आकाश की सिद्धि नहीं होती, वस्तु के आकार को प्रभावित करता है। विज्ञान इस जो रिक्त स्थान का पर्याय है। इसका उत्तर यह तथ्य को मानता है। यही कारण है कि समान दिया जा सकता है कि परमाणुओं का संघनित संख्यक परमाणुओं वाले दो पदार्थ अथवा समान 5 होना दृश्य पदार्थ की स्थिति है। विरल रूप में पर- भार वाले दो पदार्थ परमाणुओं के बिरलत्व या का माणुओं के होते हुए भी पदार्थ एक स्थान से दूसरे संघनत्व के कारण भिन्न आकार के होते हैं। स्थान पर बिना किसी अवरोध के गतिमान होते हैं, क्योंकि परमाणुओं का अपना कोई निश्चित आकार नहीं होता, इसी से आकाश की सिद्धि होती है।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दार्शनिकों ने HO उपाधिभेद से वही घटाकाश इत्यादि के रूप में
जिन सिद्धान्तों की स्थापना की तथा पदार्थों का KC __ अभिधेय होता है।
जिस प्रकार विवेचन किया वह वैज्ञानिक पद्धति है ।
जो वर्तमान विज्ञान-वेत्ता विकासवाद का मिथ्या 3 ___अन्तिम अजीव द्रव्य पुद्गल है । 'पूरयन्ति उद्घोष करते हुए आधुनिक वैज्ञानिक अनुसन्धानों गलंति च' इस व्युत्पत्ति के आधार पर पुद्गल वे द्रव्य को मानव को चमत्कारपूर्ण बुद्धि का परिणाम हैं; जो अणुओं के विश्लेषण या संघात से स्कन्धादि मानते हैं, वे अपने सहस्रों वर्ष पूर्व प्रतिपादित किए। की उत्पत्ति के कारण होते हैं। ये दो प्रकार गए दार्शनिक विचारों को पुरातन इतिहास कहकर के होते हैं-अणु तथा स्कन्ध या संघात । उनका उपहास करते हैं, किन्तु उन दार्शनिक विज्ञान की भाषा में इन्हें क्रमशः Atomic विचारों को कितने विचार मन्थन के पश्चात् प्रस्तुत तथा Compound कहा जा सकता है । अणु अत्यन्त किया गया था, यह विचार का विषय है । दर्शन सूक्ष्म होने के कारण उपभोग्य नहीं हैं । दयणुक से का क्षेत्र विज्ञान के क्षेत्र से अधिक व्यापक है क्योंकि आरम्भ करके स्कन्धों का निर्माण होता है । पुद्गल विज्ञान ब्रह्माण्ड से भो परे उसे नियन्त्रित करने उपादान तथा मूल इकाई है। संघात ही दृश्य वाली शक्ति के विषय में मौन है जबकि दर्शन किसी।
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________________ पूर्ण सत्य, सर्वज्ञ, सर्वशक्त सत्ता अथवा स्थिति को आवश्यकता है। इसके लिए अध्येताओं को मानता है चाहे वह ज्ञान मात्र ही क्यों न हो / जैन प्रोत्साहन तथा प्रेरणा प्रदान कर उनमें दर्शनों के 10 पदार्थ मीमांसा को एक-एक कोण से विज्ञान की वैज्ञानिक अनुशीलन के प्रति अभिरुचि जागृत करने तुला पर रखकर निष्पक्ष समन्वयात्मक समीक्षा की की आवश्यकता है। 1. History of Indian Philosophy-S. N. 10. 'अतएव धर्मास्तिकाय: प्रवत्यनुमेय: अधर्मास्तिकायः Dass Gupta, Page 176 स्थित्यनुमेयः ।'-सर्वदर्शनसंग्रह-पृ. 152 / / 2. भारतीय दर्शन-डॉ० कुवरलाल व्यासशिष्य- 11. ऋज गति Rectilinear Motion तथा वक्रगति पृ. 174 Curvilinear Motion कहलाती है। 3. 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि / ' Handbook of Elementary Physics-N. -तत्त्वार्थसूत्र 1/1 Koshkin and M. Shirkevich-Translated 4. 'अत्र संक्षे पतस्तावज्जीवाजीवाख्ये द्वे तत्वे स्तः / ' by F. Leic Page 17 -सर्वदर्शन संग्रह-पृ. 143 12. वाचारम्भणं विकारोनामधेयम ...... / छा० उ०. 5. द्रव्य के गुण-डा. डी. बी. देवधर-पृ.३ 6. विज्ञान का दर्शन-डा. अजित कुमार सिन्हा- 13. 'रूपरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः / ' पृ. 73 -तत्त्वार्थसूत्र 5/24 7. विज्ञान का दर्शन-पृ. 147 14. भारतीय दर्शन का इतिहास-हरदत्त शर्मा 8. 'गुणपर्यायवद्रव्यम् / ' तत्त्वार्थसूत्र 5/37 पृ. 81 9. सवदर्शन संग्रह पृ. 154 सूचिरं पि अच्छमाणो, वेरुलिओ कायमणिओ मीसे / न य उतेइ कायभाव, पाहन्न गुणे नियएण // -ओघ नि.७७२ वैडूर्य रत्न काच की मणियों में कितने ही लम्बे समय तक क्यों न मिला रहे, वह अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण रत्न ही रहता है, कभी काच नहीं होता। 208 तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन C 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ,