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पदार्थ शब्द की व्यापक परिभाषा के अनुसार व्यवस्था के अपरिवर्तनीय नियम तथा परिवर्तन के तो प्रत्यय भी पदार्थ की सीमा से परे नहीं है। आधार होते हैं।
अपितु दोनों परम एवं चरम सत्य रूप गम्य तक मूल सिद्धान्तों के निर्धारण में भारतीय विज्ञान ६८ पहँचने की यात्रा के क्रमिक आयाम हैं, क्योंकि के प्रतिपादक वेद, वेदान्त. आस्तिक तथा नास्तिक
पदार्थ के स्वरूप का अनुशीलन तथा विश्लेषण किये दर्शन तथा अन्य शास्त्रों ने श्रद्धापरक तर्क द्वारा
बिना प्रत्यय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पदार्थ और प्रत्यय दोनों के स्वरूप की व्याख्या की। (GNI इस दृष्टि से विज्ञान और दर्शन परस्पर सहयोगी वेदों में विश्वास रखने वाले आस्तिक दर्शनों में म
तथा सम्पूरक हैं । विज्ञान का कार्य, जो वस्तु जसी व्याख्यात्मक जटिलता नास्तिक दर्शनों की अपेक्षा है, उसके यथातथ्य स्वरूप का विश्लेषण है, "
अधिक थी। नास्तिक दर्शनों में जैन दर्शन वस्तूदर्शन उस वस्तु के स्वरूप का बाह्यावरण बेधकर निष्ठ विश्लेषण तथा संश्लेषण दोनों ही दृष्टियों से आन्तरिक तत्व का उद्घाटन कर चरम यथार्थ की जनसामान्य के यथार्थ विषयक दृष्टिकोण के अधिक प्राप्ति का उपाय बताता है। विज्ञान 'क्या' का निकट था, अपि च, इसकी व्याख्याएँ अधिक स्पष्ट उत्तर देता है. तो दर्शन 'क्यों' और 'कैसे' का समा- तथा वैज्ञानिक थीं। यद्यपि जैन दर्शन के बीज ई० र धान ।
पू० ५००-६०० के लगभग पड़ चुके थे, और विक्रम आज के अति विकासवादी यूग का विज्ञान की प्रथम शताब्दी तक उनका अंकुरण भी हो चुका | अभी तक पदार्थ जगत के ही सम्यक तथा आत्य- था। छठी शत
ही सम्यक तथा आत्य- था। छठी शताब्दी तक वैचारिक प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र न्तिक सत्य (तथ्य) के अनुसन्धान तथा विश्लेषण में न्याय, बौद्ध तथा जैन दर्शन प्रबल प्रतिद्वन्द्वियों के में सफल नहीं हो सका है, जिसका प्रमाण है नित्य- रूप में अपने-अपने सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा में लगे परिवर्तनशील वैज्ञानिक सिद्धान्त । जिस सिद्धान्त थे। यद्यपि न्यायदर्शन की वैज्ञानिकता भी कम का प्रतिपादन एक वैज्ञानिक ने किया उसी को नहीं थी, तथापि जैनदर्शन अपने आचार तथा असिद्ध कर अन्य सिद्धान्त का प्रतिपादन दूसरे व्यावहारिक पक्ष की प्रबलता के कारण तथ्य को वैज्ञानिक ने कर दिया। खण्डन-मण्डन की यह अधिक वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत कर सका। आधुपरम्परा भी वर्तमान चिन्तन की देन नहीं है। निक विज्ञान का प्रारम्भ तो चतुर्दश शताब्दी के सहस्रों वर्ष पूर्व हमारे महर्षियों ने, विचारकों ने इस पश्चात् हुआ। परम्परा का सूत्रपात किया था । यह भारतीय शिक्षा जैनदर्शन का चिन्तन तथा अभिव्यक्ति मूर्त तथा 19 की मौलिक पद्धति भी थी, और चिन्तन का दृष्टि- अमूर्त, स्थूल तथा सूक्ष्म, भौतिक तथा अभौतिक कोण भी। परन्तु भारतीय तथा पाश्चात्य वैज्ञानिक सत्ताओं का जिस प्रकार समन्वय करता है, वह दृष्टिकोण में यह अन्तर अवश्य था कि पाश्चात्य निश्चय ही यह मानने के लिए उत्साहित करता है आधुनिक विज्ञान में एक सिद्धान्त कालान्तर में कि जैनदर्शन विज्ञान के आधारभूत घटकों में से एक असिद्ध होकर नये सिद्धान्त को जन्म देता है तथा है। न्यायदर्शन की ही भाँति जैनदर्शन भी उस वह अन्तिम सिद्धान्त ही सर्वमान्य होता है, जबकि प्रत्येक घटक को पदार्थ स्वीकार करता है जो सत्तादार्शनिक सिद्धान्त अपने आप में कभी असिद्ध तथा वान् है, ज्ञेय है तथा अभिधेय है । पदार्थ को बाह्य अमान्य नहीं होते, उन्हें मानने वाले किसी भी तथा सत मानने वाले जैन दार्शनिक पदार्थ-ग्रहण के काल में हो सकते हैं। अतः वैज्ञानिक सिद्धान्तों की विषय में दो धारणाएँ व्यक्त करते हैं। प्रथम के परिवर्तनशील प्रकृति का तर्क बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण अनुसार किसी पदार्थ के गुणों तथा विशेषताओं को | नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वस्तुतः सिद्धान्त पदार्थ से अपृथक रूप से ग्रहण किया जा सकता है। २०२
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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