Book Title: Jain Nyaya Author(s): Kailashchandra Shastri Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 9
________________ जैन - न्याय इन्द्रिय, मन और अर्थ इन चारोंका मेल होनेपर ज्ञाताका व्यापार होता है उसीसे ज्ञान होता है अतः वही प्रमाण है ), उत्तरपक्ष ६२ ( ज्ञातृव्यापार किसी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता, न प्रत्यक्षसे, न अनुमानसे, न अर्थापत्ति से ६२ ) ५ निर्वि कल्पक ज्ञान ६४ पूर्वपक्ष ( जो ज्ञान अर्थसे संसृष्ट शब्दको वाचक रूपसे ग्रहण करता है वही सविकल्पक है, अन्य नहीं । यह बात प्रत्यक्ष ज्ञानमें सम्भव नहीं है अत: निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही प्रमाण है ६५, निर्विकल्पमें सविकल्पक ज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्ति है अतः उसके द्वारा वह समस्त व्यवहारोंमें कारण होता है ६५, सविकल्पक प्रमाण नहीं है क्योंकि उसका विषय नवीन नहीं है, निर्विकल्पकके विषय दृश्य और विकल्पके विषय विकल्प्य में एकत्वाध्यवसाय होनेसे भ्रमवश सविकल्पक ज्ञान होता है ६५ ), उत्तरपक्ष ६६ ( दिग्नागने प्रत्यक्षके लक्षण में अभ्रान्त पद नहीं रखा था, धर्मकीर्तिने कल्पनारहित अभ्रान्त ज्ञानको प्रत्यक्ष माना ६६, कल्पनारहितत्वका निराकरण ६६, निर्विकल्पक ज्ञान व्यवहार में उपयोगी नहीं है ६७, विकल्प के सिवा निर्विकल्पककी प्रतीति स्वप्न में नहीं होती ६८, दोनोंका एकत्वाध्यवसाय कौन करता है ६९, जो स्वयं निर्विकल्पक है वह सविकल्पकको कैसे उत्पन्न कर सकता है ६९, यदि सविकल्पकको उत्पन्न करनेपर ही निर्वि कल्पक प्रमाण है तो सविकल्पकको ही प्रमाण क्यों नहीं मान लेता ७२ ) । मिथ्याज्ञानके तीन भेद ७३, विपर्ययज्ञानको लेकर भारतीय दार्शनिकोंके मतभेदका क्रमशः निरूपण और समीक्षा ७३, १विवेकाख्याति, पूर्वपक्ष ७३, ( सोपमें 'यह चाँदी है' ये दो ज्ञान हैं प्रत्यक्ष और स्मरण | सामने वर्तमान सीपमें और पहले देखी चाँदीमें भेद ग्रहण न होनेसे इसे विवेकाख्यातिका स्मृति प्रमोष कहते हैं ७४ ), उत्तरपक्ष ७४, ( यह दो ज्ञान नहीं, एक ही है अत: विपरीतख्याति है स्मृति प्रमोष नहीं ७६, स्मृतिका प्रमोष क्या वस्तु है ७६ - ७८ ) २ अख्यातिवाद ( सोपमें 'यह चाँदी है' इस ज्ञानमें कुछ भी प्रतिभ. समान नहीं होता इसीलिए इसे अख्याति कहते हैं यह arafter मत समीचीन नहीं है ७९, यह अख्याति क्या है ७९, ) ३ असत्ख्यातिवाद ७९ ( बौद्ध सौत्रान्तिक और माध्यमिकोंका कथन है कि सीप में 'यह चाँदी है' इस ज्ञानमें असत्का ही प्रतिभास होता है इसलिए इसे असत्ख्याति कहते हैं ८०, यह कथन ठीक नहीं है असत् और प्रतिभास दोनों विरुद्ध हैं ८०, ऐसे ज्ञानों में कौन-सा अर्थक्रियाकारित्व नहीं होता ज्ञानसाध्य या ज्ञेयसाध्य ८० ), ४प्रसिद्धार्थरूपातिवाद ८१ ( सांख्य मानता है कि विपर्यय ज्ञानमें प्रतीतिसिद्ध अर्थका ही प्रतिभास होता है किन्तु जैनोंका कहना है कि ऐसा माननेसे भ्रान्त और अभ्रान्त व्यवहार ही नष्ट हो जायेगा ८१ ), ५ आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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