Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 8
________________ विषय-सूची पृष्ठभूमि १-४४ न्यायशास्त्र १, जैन न्याय ४, अकलंक देवके पूर्व जैन न्यायकी स्थिति--आचार्य कुन्दकुन्द ६, आचार्य उमास्वामी ८, स्वामी समन्तभद्र, और सिद्धसेन ८, आचार्य श्रीदत्त २१, स्वामी पात्रकेसरी २२, मल्लवादी और सुमति २५, भट्ट अकलंक २६, अकलंक देवके उत्तरकालीन जैन नैयायिक, कुमारसेन और कुमारनन्दि ३५, आचार्य विद्यानन्द ३६, दो अनन्तवीर्य ३७, अनन्तकोति ३८, आचार्य माणिक्यनन्दि ३९, आचार्य प्रभाचन्द्र ४०, आचार्य वादिराज ४१, अभयदेव ४२, वादि. देवसूरि ४२, आचार्य हेमचन्द्र ४३, यशोविजय ४३ । प्रमाण ४५-१०६ जैनसम्मत प्रमाणलक्षण ४५, प्रमाणलक्षणका विवेचन ४६, ('अपूर्व' पदके सम्बन्धमें जैन नैयायिकोंके मतभेदका विवेचन । जैन दार्शनिकोंमें धारावाही ज्ञानोंके प्रामाण्य अप्रामाण्यको लेकर विचार भेद ५१, ) दर्शनान्तर सम्मत प्रमाणलक्षण और उनकी समीक्षा ५३, १सन्निकर्षवाद ५३ ( पूर्वपक्ष-सन्निकर्षके प्रामाण्यका समर्थन सन्निकर्षके छह प्रकार ), उत्तरपक्ष ५४ ( वस्तुज्ञान कराने में सन्निकर्ष साधकतम नहीं है, योग्यता विचार, सन्निकर्षके सहकारी कारण द्रव्य है या गुण या कर्म ५५, ) चक्षुका प्राप्यकारित्व ५६ ( चक्षु प्राप्यकारी नहीं है, चक्षुको अप्राप्यकारी मानने में आपत्तियां और उनका परिहार, चक्षु तैजस नहीं है ५७, सन्निकर्षको प्रमाण माननेसे सर्वज्ञका अभाव ५८) २कारकसाकल्यवाद ५९, पूर्वपक्ष ५९ ( कारकोंके समूहसे ही ज्ञान उत्पन्न होता है इसलिए कारकसाकल्य ही प्रमाण है, ज्ञान तो फल है ), उत्तरपक्ष ५९ ( कारकसाकल्य मुख्य रूपसे प्रमाण नहीं हो सकता उपचारसे प्रमाण हो सकता है ) ३इन्द्रियवृत्ति समीक्षा ६० ( इन्द्रियवृत्ति ही साधकतम होने से प्रमाण है, पदार्थका सम्पर्क होनेसे पहले इन्द्रियोंका विषयाकार होना इन्द्रियवृत्ति है । सांख्यके उक्त मतकी समीक्षाइन्द्रियवृत्ति अचेतन होनेसे प्रमाण नहीं हो सकती, इन्द्रियवृत्ति है क्या? इन्द्रियोंका पदार्थाकार होना प्रतीतिविरुद्ध है, वह वृत्ति इन्द्रियोंसे भिन्न है या अभिन्न, यदि वृत्ति इन्द्रियोंसे सम्बद्ध है तो दोनोंका कौन सम्बन्ध है ६१) ४ज्ञातृ. व्यापार पूर्वपक्ष ६१ ( ज्ञातृव्यापारके बिना ज्ञान नहीं हो सकता, आत्मा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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