Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 355
________________ पञ्चेद्रिय जातिनाम ] ६५७, रूपाणीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः । (कर्मवि. दे. स्वो वृ. ४८ ) । १ जो वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्द के ज्ञाता हैं ऐसे देव, मनुष्य, नारकी तथा जलचर, थलचर, नभचर व बलवान् तियंच जीवों को पञ्चेन्द्रिय कहते हैं । जैन - लक्षणावली पञ्चेन्द्रिय जातिनाम- १. जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं पंचिदियजादिभावेण समाणत्तं होदि तं पंचिदियजादिणामकम्मं । ( धव. पु. ६, पृ. ६८ ) ; पंचिदियभावणिव्बत्तयं जं कम्मं तं पंचिदियजादिणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६३) । २. यदुदयात् प्राणी पञ्चेन्द्रिय इति कथ्यते तत्पञ्चेन्द्रियजातिनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११ ) । १ जिस कर्म के उदय से जीवों में पंचेन्द्रिय जातिस्वरूप से समानता होती है उसे पंचेन्द्रिय जातिनामकर्म कहते हैं । पञ्जर - तित्तिर- लावक - हरिणादिधरणार्थं विरचितं ग्रन्थिविशेषकलितरज्जुमयं जालं पञ्जरः । (गो. जो. मं. प्र. व जी. प्र. टी. ३०३ । तीतर, लावक (पक्षी विशेष ) और हरिण श्रादि के पकड़ने के लिए रस्सी में गांठें लगाकर बनाये गये जाल को पञ्जर कहते हैं । पटबुद्धि— पटवत् विशिष्टवक्तृवनस्पतिविसृष्टविविघप्रभूतसूत्रार्थ - पुष्प - फलग्रहणसमर्थतया बुद्धिः पटबुद्धि: । ( श्रपपा. अभय वृ. १५, पृ. २८ ) । पट के समान विशिष्ट वक्तारूप वनस्पति (कपास) के द्वारा छोड़े गये ( दिये गये ) अनेक प्रकार के प्रचुर सूत्र- अर्थरूप पुष्प और फलों के ग्रहणविषयक सामर्थ्य से युक्त बुद्धि को पटबुद्धि कहा जाता है । पटह-पटह प्रतोद्यविशेषः, स च किंचिदायत उपर्यधश्च समप्रमाणः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३३, ३१६, पृ. ५४२) । कुछ लम्बे और ऊपर-नीचे समान प्रमाण वाले वादित्रविशेष (ढोल) को पटह कहते हैं । पट्टन - वररयणाणं जोणी पट्टणणामं विणिद्दिट्ठ | ( ति. प. १३६६ ) । उत्तम रत्नों के योनिभूत ( उत्पादक) स्थान का नाम पट्टन है । ल. ८३ Jain Education International पतङ्गवींथिका पण्डित - १. देहविभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ । परमसमाहिपरिट्टियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥ ( परमा. १-१४) । २. पापाड्डीनः पण्डितः, पण्डा वा बुद्धिः, तया इतः अनुगतः पण्डितः । (उत्तरा. चू. पृ. १३१) । ३. पण्डिताः सम्यग्ज्ञानवन्तः, × × × अन्ये व्याचक्षते X XX पण्डिता वान्तभोगासेवनदोषज्ञाः । ( दशवे. हरि. वृ. सू. २- ११, पृ. ६६ )। ४. एतत्पाण्डित्यप्रकर्षरहितं पाण्डित्यं पण्डित उच्यते । ( भ. प्रा. विजयो. २६) । ५. पण्डा हि रत्नत्रयपरिणता बुद्धिः संजाता प्रस्येति पण्डितः । ( भ. प्रा. मूला. २६) । ६. पापात् डीन :- पलायितः पण्डितः । अथवा पण्डा बुद्धिः, सा संजाता अस्येति पण्डितः । ( वृहत्क. भा. मलय. बृ. १६६) । यस्य स १ जो आत्मानुभूतिरूप परम समाधि में स्थित होकर शरीरसे भिन्न ज्ञानमय परमात्मा को जानता है उसे पण्डित—अन्तरात्मा कहा जाता है । २ पाप से जो डीन प्रर्थात् दूर रहता है उसे पण्डित कहते हैं, अथवा 'पण्डा' नाम बुद्धि का है, उससे जो युक्त हो उसे पण्डित जानना चाहिए । ४ पण्डित के पाण्डित्यप्रकर्ष से रहित — उसकी अपेक्षा हीनपाण्डित्य से जो सहित हो वह पण्डित कहलाता है । पण्डितपण्डित - अतिशयितं पाण्डित्यं यस्य ज्ञानदर्शन -चारित्रेषु स पण्डितपण्डित इत्युच्यते । (भ. श्री. विजयो. २६) । ज्ञान, दर्शन और चारित्रविषयक पाण्डित्य जिसका अतिशय को प्राप्त है उसे पण्डितपण्डित कहा है । पण्डितमरण - देखो पण्डित । पंडिताण मरणं पंडितमरणम्, विरतानामित्यर्थः । ( उत्तरा चू. पू. १२८)। पण्डितों का विरतों (संयतों) का - मरण पण्डितमरण कहलाता है । पण्यस्त्री --- पण्यस्त्री तु प्रसिद्धा या वित्तार्थं सेवते नरम् । तन्नाम दारिका दासी वेश्या पत्तननायिका । (लाटीसं. २- १२९ ) । जो धन के लिए पुरुष का सेवन करती है वह पण्यस्त्री के नाम से प्रसिद्ध है। पतङ्गवीथिका - यस्यां तु त्रि- चतुरादीनि गृहाणि : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452