Book Title: Jain Lakshanavali Part 2
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 376
________________ परिग्रहपरिमाणाणुव्रतातिचार] ६७८, जैन-लक्षणावली [परिचित परिग्रहपरिमाणाणवतातिचार--१. क्षेत्रवास्तु- २. परिग्रहसंज्ञा-परिग्रहाभिलाषस्तीव्रलोभोदयप्रहिरण्यसुवर्ण-दासीदास-कुप्यप्रमाणातिक्रमः । (त. सू. भव आत्मपरिणामः । इयमपि चतुभिः स्थानरुत्पद्यते । ७-२६)। २. अतिवाहनातिसंग्रह-विस्मय-लोभाति- तद्यथा--- अविवित्तयाए १ लोहोदएणं २ मईए ३ भारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पंच तदट्ठोवनोगेणं ४ । (प्राव. सू. हरि. व. पु. ५८०)। लक्ष्यन्ते ।। (रत्नक. ३-१६) । ३. तयाणंतरं च ३. परिग्रहसंज्ञा चारित्रमोहोदयजनिता परिग्रहाभिणं इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा लाष इति । (स्थाना. अभय. व. ४, ४, ३५६, प. जाणियव्वा, ण समायरियव्वा । तं जहा-खेत्त- २७७)। ४. परिग्रहसंज्ञा लोभविपाकोदयसमत्थवत्थुपमाणाइक्कमे हिरण्ण-सुवण्णपमाणाइक्कमे दुपय- मूपिरिणामरूपा । (जीवाजी. मलय. व. चउप्पयपमाणाइक्कमे धण-धन्नपमाणाइक्कमे कुविय- १३)। ५. स्यात् परिग्रहसंज्ञा च लोभोदयसमदपमाणाइक्कमे। (उवासगद. १-४६, पृ. १०)। भवा । अनाभोगाऽव्यक्तरूपा xxx ॥ (लोकप्र. ४. भेएण खित्त-वत्-हिरण्णमाईसु होइ नायव्वं । ३-४४६) । दपयाईस य सम्म बज्जणमेयस्स पुव्वृत्तं ।। (श्रा. प्र. १विषयभोग की सामग्री के देखने से, उधर उपयोग २७६)। ५. खेत्ताइ-हिरण्णाई-धणाइ-दुपयाइ-कुप्प- के जानेसे, प्रासक्ति से और लोभ कषाय को उदीरणा माणकमे । जोयणपमाणबंधणकारणभावेहि णो से ममत्वबुद्धिपूर्वक जो परिग्रहविषयक अभिलाषा कुणइ ।। (पंचाश. १-१८) । ६. वास्तुक्षेत्राष्टापद- होती है उसका नान परिग्रहसंज्ञा है। हिरण्य-धनधान्य-दासदासीनाम् । कुप्यस्य भेदयोरपि परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान-१. सहाइविसयसाहणपरिमाणातिक्रमाः पञ्च ॥ (पु. सि. १८७)। धणसारक्खणपरायणमणिठें। सव्वाभिसंकणपरोव७. हिरण्य-सुवर्णयोः क्षेत्र-वास्तुनोः धन-धान्ययोः। घायकलुसाउलं चित्तं ।। (ध्यानश. २२) । २. बह्मादासी-दासस्य कूप्यस्य मानाधिक्यानि पञ्च ते ।। रम्झ-परिग्रहेषु नियतं रक्षार्थमभ्युद्यते, यत्संकल्पपर(त. सा. ४-६०)। ८. परिग्रहविरमणव्रतस्य म्परां वितनुते प्राणीह रौद्राशः । यच्चालम्ब्य महत्त्वपञ्चातिकमा भवन्ति-क्षेत्रवास्तु-हिरण्यसुवर्ण- मुन्नतमना राजेत्यहं मन्यते, तत्तर्य प्रवदन्ति निर्मलधनधान्य दासीदास-कुप्यमिति । (चा. सा. पू. ७)। धियो रौद्रं भवाशंसिनाम् ।। (ज्ञाना. २६-२६.प. ६. कृतप्रमाणाल्लोभेन धनाद कसंग्रहः । पञ्चमा- २६७) । ३. पड्विधे जीवनारणारम्भे कृताभिप्रायणव्रतज्यानि करोति गहमेधिनाम् ।। (उपासका. श्चतुर्थं रौद्रम् । (मला. व. ५-१६) । ४.४ ४४४)। १०. धन-धान्यस्य कुप्यस्य गवादेः क्षेत्र-XX स्वं संरक्ष्य विपक्षदूरमदिता तोषोग्रता या वास्तुनः । हिरण्य-हेम्नश्च संख्यातिक्रमोऽत्र परिग्रहे ॥ तु सं-रक्षानन्दमपि स्ववस्तुनिखिलं निरि कर्वे (योगशा. ३-६५)। ११. वास्तु-क्षेत्रे योगाद् धन- इति ।। (प्राचा. सा. १०-२१)। धान्ये बन्धनात् कनक-रूप्ये । दानात् कुप्ये भावान्न १ शब्दादि विषयों के साधनभत धन के संरक्षण गवादौ गर्भतो मितिमतीयात् ।। (सा. ध. ६-६४)। तत्पर रहने से जो कलुषित चित्त होता है वह १क्षेत्र-वास्तु (खेत व गृह आदि), चांदी-सोना, विषयसंरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान कहलाता है। इसे धन-धान्य, (पशु व गेहूं आदि अन्न), दासी-दास परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान भी कहा जाता है। इस और कुप्य (सूती व रेशमी वस्त्र आदि); इनका ध्यान में 'कौन कब क्या करेगा' इस प्रकार की जो प्रमाण किया गया है उसका उल्लंघन करना ये आशंका सभी के प्रति बनी रहती है, जिससे वह पथक पथक परिग्रहपरिमाणवत के पांच अतिचार सभी के घात में ब्याकुलचित्त रहता है। ३ छह होते हैं। २ प्रतिवाहन, अतिसंग्रह, विस्मय, लोभ प्रकार के जीवघातविषयक प्रारम्भ के अभिप्राय को और अतिभारवहन ये पांच परिग्रहपरिमाणाणुव्रत के चौथा रौद्रध्यान कहते हैं। अतिचार हैं। परिचित यत्र यत्र प्रश्नः क्रियते तत्र तत्र पाशुपरिग्रहसंज्ञा-१. उबयरणदंसणेण य तस्सुवोगेण तमवृत्तिः परिचितम्, क्रमेणोत्कमेणानुभयेन च भा. मच्छियाए य। लोहस्सूदीरणाए परिग्गहे जायदे वागमाम्भोधौ मत्स्यवच्चटलतमवत्तिर्जीवो भावागमसण्णा ॥ (ता. पंसं. १-५५; गो. जी. १३७)। श्च परिचितम् । (धव. पु. ६, पृ. २५२) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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