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स्वकीय
"कथा" शब्द मनुष्य का उतना ही परिचित है, जितना व्यथा। व्यथा यानी पीड़ा । जहाँ सुख है, वहाँ दुःख-पीड़ा भी है । उसी प्रकार जहाँ मानव है, वहाँ इतिहास भी है, प्रेरणा भी है, आदर्श भी है, मनोरंजन भी है और इन सबका भावात्मक प्रेषण करती है, “कथा"।
कथा--अर्थात् “क-था" कोई था, कुछ था । इस अतीत के रेखांकन में वर्तमान और भविष्य की छवि भी अंकित कर दी जाती है जिसे कहीं रूपक, कहीं संकेत, कहीं शब्द और कहीं सिर्फ ध्वनि के माध्यम से ही प्रकट किया जाता है।
सुदूर अतीत से लेकर आज तक "कथा" मनुष्य का प्रिय विषय रहा है। कथा के मुख्य चार तत्व माने गये हैं-उद्देश्य, वृत्त, पात्र और शैली। आज के कथा साहित्य का मूल्यांकन भी इन्हीं चार तत्वों के आधार पर किया जाता है और प्राचीन से अति प्राचीन कथा साहित्य की सर्जना भी इन्हीं तत्वों को ध्यान में रखकर की जाती थी। कथा केवल मनोरंजन का विषय न आज है, और न ही अतीत में कभी रही । मनोरंजन कथा का सिर्फ एक पक्ष है । “कथा" की सर्जना मानव मस्तिक से हुई है, इसलिए उसमें मानवीय संवेदना, रुचि, लक्ष्य, व्यवहार और मानव-संस्कृति को सम्यग्रीति से संचालित करने की भावना अन्तर्निहित रही है। कथा की शैली और पात्र युग-युग में बदलते रहे हैं, किन्तु कथा का मूल उद्देश्य प्रायः सभी युगों में समान रहा है। चाहे नीति की कथा हो, चाहे धर्म की कथा हो, चाहे लोक कथा हो, चाहे परलोक व भूत-प्रेत से सम्बन्धित गल्प कथा हो। सभी में मनोरंजन, रुचि-संयोजन के साथ ही मानव-जीवन व मानव-संस्कृति को स्वस्थ, प्रसन्न, सुखी तथा आपत्तियों से बचाने की हितकामना ही रही है । इस प्रकार मेरे अनुभव में यह बात सत्य है कि कथा का जन्म ही मानव
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