Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 9
________________ सन् १९५६ में अपभ्रंश प्रशस्तियों को अनेकान्त की प्रत्येक किरण में एक फार्म रूप से प्रकाशित करने का निश्चय डा० ए० एन० उपाध्ये कोल्हापुर की मम्मति से किया गया, और १४ व वर्ष के अनेकान्त में प्रशस्ति संग्रह के १० फामं छपगए, उसके बाद माथिक कठिनाई आदि के कारण पत्र का प्रकाशन स्थगित हो गया, और मेरा भी संस्था से सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से प्रशस्तियों का प्रकाशन अधूरा ही रह गया । किन्तु सन् ६० में उसे प्रकाशित करने का पुन: निश्चय हुमा, प्रौर बाबू जयभगवान जी एडवोकेट, मंत्री वीर-सेवा-मंदिर सोसाइटी ने मुझ से प्रशस्तियों का मैटर देने तथा प्रस्तावना लिखने की प्रेरणा की। मैने मैटर देने और प्रस्तावना लिखना स्वीकृत कर लिया, मैटर दे दिया गया, परन्तु संस्था में योग्य विद्वान के अभाव में प्रशस्तियों का प्रकाशन दशरा-मशरा हुआ, कुछ मैटर भी प्रेस वाला से गुम गया और एक प्रशस्ति के अन्त का भाग भी प्रकाशित नहीं हुम्रा, फिर भी दूसरी प्रशस्ति प्रकाशित हो गई, श्रावक-श्राविकाओं के नाम वाले परिशिष्ट का पूरा चार पेज का अन्तिम मैटर भी खो गया। मैंने उसे पुनः तय्यार करके दूसरे प्रेम में छपवाया, उममें भी टाइप को विभिन्नता रही । प्रस्तावना का मैटर भी प्रेम में दे दिया गया, परन्तु प्रेस में कार्याधिक्य के कारण ५-६ महीने यों ही पड़ा, रहा, बाद में प्रेरणा पाकर १०-१२ दिन में ८ फार्म छाप दिये गए और फिर कम्पोज रुक गया, इस तरह बड़ी कठिनता से छपाई का कार्य पूरा हो पाया है । यही सब उसके प्रकाशन में विलम्ब का कारण है। प्राभार प्रदर्शन मुझे यह लिखते हुए बड़ी प्रसन्नता होती है कि श्रीमान् डा. वासुदेव शरण जी अग्रवाल हिन्दी विश्वविद्यालय बनारस ने प्राक्कथन लिखने की मेरी प्रार्थना को स्वीकार किया और मित्रवर पं० दरबारीलाल जी कोठिया न्यायानार्य एम० ए० को प्राक्कथन लिखवा कर अनुगृहीत किया, और वह मुझे तत्काल प्राप्त हो गया मैं इसके लिये डाक्टर साहब का और कोठिया जी का बहुत ही प्राभारी हूँ। साथ ही दिल्ली विश्वविद्यालय के नीडर श्रीमान् डा ० ददारथ शर्मा डी लिट् का भी मैं विशेष प्राभारी हैं, जिन्होंने मेरी प्रार्थना को मान्य करते हुए अंग्रेजी भाषा में प्रफेस लिख देने की कृपा की। इनके अतिरिक्त वा. जयभगवान जो एडवोकेट पानीपत, बा० छोटेलाल जी सरावगी कलकत्ता, श्री पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार दिल्ली, पं० दीपचन्द जी पाण्डया ककडी, डा० कस्तूरचन्द जी कासलीवाल जयपुर, और डा० प्रेमसागर जी का प्राभारी हूँ, जिन्होंने उचित मलाह-मशवरा दिया। शास्त्र समुद्र अत्यन्त विशाल और गभीर है याप मैने पूरी सावधानी वतीं है फिर भी मेरे जैसे अल्पयज्ञ का स्खलित हो जाना संभव है । आशा है विद्वज्जन प्रस्तावना का अध्ययन कर मुझे उस सम्बंध में विशेष जानकारी देकर अनुगृहीत करेंगे। परमानन्द जी शास्त्री

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