Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 8
________________ सम्पादकीय वीर-सेवा-मन्दिर एक ऐतिहासिक संस्थान है, जो एक जैन रिसर्च इन्स्टिट्यूट के रूप में प्रसिद्ध है। उम उद्देश्यों में पुरातन-प्रवन्धी का अन्वेषण, पुस्तकालय का संकलन, पुरातन जैनाचार्यों, राजाओं, विद्वानों और भट्टान्को गादि के सम्बन्ध में ऐतिहासिक तथ्यों को प्रकाशित करना भी शामिल है। वीर-सेवा मन्दिर मोमाइटी अपने इस उद्देश्य की पूति के अनुरूप ही कार्य कर रही हैं। उसके मामने 'जैन भाहित्य का इतिहाम, भगवान नेमिनाथ के ममय मे लेकर अब तक ऐतिहासिक प्रमाधनों का संकलन, संयोजन और महत्व की मामग्री के प्रकाशन की ओर रहा है। परन्तु ममाज का पूर्ण महयोग न मिलने से वह जमा चाहिये था वैसा कार्य मम्पन्न करने में नमर्थ न हो सका । पर जितना भी कार्य कर सका वह सब उमकी प्रगति का संसूचक है, उसने अपने प्रतिष्ठित और ख्याति प्राप्त अनेकान्त पत्र द्वारा ऐतिहामिक माहित्यिक एवं पुरातत्व समबन्धी अनुगन्धानात्मक सामग्री को प्रकाशित किया है और कर रहा है प्रावश्यकता जैन माहित्य और संस्कृति का इतिहास लिखने के लिये जिस तरह शिलालेख, ताम्रपत्र, पुरातात्विक अवशेष और भुउत्खनन से प्राप्त विविध सभ्यतानी के अलंकरणों से बड़ी सहायता मिलती है। अतएव अनुसंधान कर्ताओं को विविध भाषाओं के साहित्य से साहाय्य मिलता है । अतएव ऐतिहासिक अनुसन्धत्सुत्रों के लिये भारतीय माहित्य के परिशीलन, मनन, और अनुमधान करने की महती आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक समझा गया कि अपभ्र का जन साहित्य, जो दिल्ली, ग्वालियर, जयपुर, व्यावर, बम्बई, कारंजा, झालरापाटन और नागौर आदि के विवध जैन ग्रन्थागारों में सुरक्षित है उनके ग्रन्थों के आदि द्वन्त भाग का संग्रह कर ऐतिहासिक प्रशस्तियों को प्रकाशित किया जाय। और उनकृतियों के परिचयादि के साथ ग्रन्थकर्ता विद्वानों के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हए उनके ममय की भी चर्चा की जाय । जिमग हिन्दी के आदिकाल पर प्रकाश पड़ मके, और हिन्दी के उद्गम एवं विकास को भी अच्छा संकेत मिल सके। साथ ही, विविध उप जातियों द्वाग ममय ममय पर निर्माण कराये गये और प्रति लिपि कराने वालों का इतिवृत्त भी अंकित हो सके । और उस ममय की धार्मिक जागृति तथा सामाजिक रीति-रिवाजों का भी परिज्ञान हो सके । इन्हीं सब कार्यों को ध्यान में रखते हए अपभ्रंश प्रभारियों के संकलन का विचार स्थिर किया गया । वीर मेवा मन्दिर की इस योजना को कार्य में परिणत करने के लिये मैं मई मन् १९४४ में सरसावा से जयपुर गया, और वहाँ के प्रतिष्ठत विद्वान् पं० चैनसुखदास जी और महावीर तीर्थक्षेत्र कमेटी के मंत्री रामचन्द्र जी खिन्दका आदि महानुभावों के महयोग मे आमेर का भट्टारकीय भंडार जयपुर लाया गया, और सेठ वधीचन्द जी के कमरे में रक्खा गया। मैने बड़े पन्श्रिम से उन गट्ठडा को खोला और ग्रंथों को निकाल कर उनके ग्रादि अन्त भाग का मंकलन शुरु कर दिया; परन्तु बीच में ही मरमावा लौटना पड़ा, जिससे पूग भंडार न देखा जा सका, जिनना देखा और नोट कर मका उसका परिचय अनेकान्त वर्ष ६ किरण ११-१२ के पृष्ठ २७२ में 'जयपुर में एक महीना' नाम के लेख में प्रकाशित कर दिया। और बाद में संस्कृत ग्रन्थों की प्रशस्तियों का संग्रह भी प्रकाशित हो हो गया । अपभ्रश प्रशस्तियों के संकलित मैटर की प्रेस कापी नय्यार की गई, और अन्य अपभ्रंश ग्रन्थों को मंगवा कर उनकी भी प्रेस कापी करली गई, प्रयशन का विचार किया गया किन्तु अार्थिक कठिनाई ने उमे कार्य रूप में परिणत न होने दिया।

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