Book Title: Jain Drushti se Manushyo me Uccha Niccha Vyavasthaka Adhar
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ १६ : सरस्वती-बरसपत्र०बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ उच्च माने जा सकते हैं तो, फिर मनुष्यगतिमें रहनेवाले सम्पूर्ण मनुष्योंमें भी मनुष्य-गति सम्बन्धी विविध प्रकारकी समानता रहते हए अन्य ज्ञात साधनोंके अभावमें केवल अज्ञात उच्चगोत्र-कर्म और नीचगोत्र-वर्मके उदयके आधारपर पृथक्-पृथक् क्रमशः उच्चता और नीचताका व्यवहार कैसे किया जा सकता है ? ये सब समस्याएँ हैं जिनका जबतक यथोचित समाधान प्राप्त नहीं हो जाता, तबतक जैन संस्कृतिके अनुयायी होने पर भी हम लोगोंके मस्तिष्कमें मनुष्योंको लेकर उच्चता और नीचता सम्बन्धी संदेह पैदा होते रहना स्वाभाविक ही है। षट्खण्डागमके सूत्र १३५ का आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी द्वारा किया गया जो व्याख्यान धवलाशास्त्रकी पुस्तक १३ के पृष्ठ ३८८ पर पाया जाता है, उसे देखनेसे मालूम पड़ता है कि मनुष्योंकी उच्चता और नीचताके विषयमें आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीके समयमें भी विवाद था, इतना ही नहीं आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीके उस व्याख्यानसे तो यहाँ तक भी मालूम पड़ता है कि उनके समयके कोई-कोई विचारक विद्वान् मनुष्य-गतिमें माने गये उच्च और नीच उभयगोत्र कर्मोके उदयके सम्बन्धमें निर्णयात्मक समाधान न मिल सकनेके कारण उच्च और नीच दोनों भेदविशिष्ट व समूचे गोत्र-कर्मके अभाव तकको माननेके लिये उद्यत हो रहे थे, आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीका वह व्याख्यान निम्न प्रकार है: "उच्चैर्गोत्रस्य क्व व्यापारः ? न तावद् राज्यादिलक्षणायां सम्पदि, तस्याः सद्वेद्यतः समुत्पत्तः नापि पंचमहाव्रतग्रहणयोग्यता उच्चैर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तद्ग्रहणं प्रत्यययोग्येषु उच्चर्गोत्रस्योदयाभावप्रसंगात्, न सम्यग्ज्ञानोत्पत्ती व्यापारः ज्ञानावरणक्षयोपशसहाय सम्यग्दर्शनतस्तदुत्पत्तेः। तिर्यग्नारकेष्वपि उच्चर्गोत्रस्योदयः स्यात्, तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्त्वात्, नादेयत्वे, यशसि, सौभाग्ये वा व्यापारः, तेषां नामतः समुत्पत्तेः, नेक्ष्वाकुकुलाद्युत्पत्तौ, काल्पनिकानां तेषां परमार्थतो. ऽसत्त्वात्, विड्ब्राह्मणसाधुष्वपि उच्चर्गोत्रस्योदयदर्शनात्, न सम्पन्नेभ्यो जीवोत्पत्तौ तद्व्यापारः, म्लेच्छराजसमुत्पन्नपृथुकस्यापि उच्चर्गोत्रोदयप्रसंगात्, नाणुबतिभ्यः समुत्पत्तौ तद्व्यापारः, देवेष्वीपपादिकेषु उच्चंर्गोत्रोदयस्यासत्वप्रसंगात्, नाभेयस्य नीचगोत्रतापत्तेश्च, ततो निष्फलमुच्चैर्गोत्रम्, तत एव न तस्य कर्मत्वमपि, तदभावे न नीचैर्गोत्रमपि, द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात्, ततो गोत्रकर्माभाव इति ।" इस व्याख्यानमें प्रथम ही यह प्रश्न उठाया गया है कि जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मका क्या कार्य होता है ? इसके आगे उच्चगोत्र-कर्मके कार्य पर प्रकाश डालनेवाली तत्कालीन प्रचलित मान्यताओंका निर्देश करते हुए उनका खण्डन किया गया है और इस तरह उक्त प्रश्नका उचित समाधान न मिल सकनेके कारण अन्तमें निष्कर्षके रूपमें गोत्र-कर्मके अभावको प्रस्थापित किया गया है, व्याख्यानका हिन्दी विवरण निम्न प्रकार है। शंका-जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मका किस रूप में व्यापार हुआ करता है ? अर्थात् जीवोंमें उच्चगोत्रकर्मका कार्य क्या है ? १. समाधान-जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मका कार्य उनको राज्यादि सम्पत्तिको प्राप्ति होना है। खण्डन-यह समाधान गलत है क्योंकि जीवोंको राज्यादि सम्पत्तिकी प्राप्ति उच्चगोत्र-कर्मके उदयसे न होकर सातावेदनीय कर्मके उदयसे ही हुआ करती है। २. समाधान-जीवोंमें पंच महाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यताका प्रादुर्भाव होना ही उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11