Book Title: Jain Drushti se Manushyo me Uccha Niccha Vyavasthaka Adhar Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 7
________________ ६ , संस्कृति और समाज : २१ "गोत्रकर्मके अभावकी आशंका करना ठीक नहीं है क्योंकि जिनेन्द्र भगवानने स्वयं ही गोत्रकर्मके अस्तित्त्वका प्रतिपादन किया है और यह बात निश्चित है कि जिनेन्द्र भगवानके वचन कभी असत्य नहीं होते हैं, असत्यताका जिनेन्द्र भगवानके वचनके साथ विरोध है अर्थात् वचन एक ओर तो जिनेन्द्र भगवान्के हों और दुसरी ओर वे असत्य भी हों-यह बात कभी संभव नहीं है, ऐसा इसलिए मानना पड़ता है कि जिन भगवान् के वचनोंको असत्य माननेका कोई कारण ही दृष्टिगोचर नहीं होता है। जिन भगवान्ने यद्यपि गोत्रकर्मके सद्भावका प्रतिपादन किया है किन्तु हमें उसकी (गोत्रकर्मकी) उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए जिनवचनको असत्य माना जा सकता है, पर ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि केवलज्ञानके विषयभूत सम्पूर्ण पदार्थों में हम अल्पज्ञोंके ज्ञानकी प्रवृत्ति ही नहीं होती। इस प्रकार उच्चगोत्र-कर्मको निष्फल मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि जो पुरुष स्वयं तो दीक्षाके योग्य साधु आचारवाले हैं ही तथा इस प्रकारके साधु आचारवाले पुरुषोंके साथ जिनका सम्बन्ध स्थापित हो चुका है उनमें 'आर्य' इस प्रकारके प्रत्यय और 'आर्य' इस प्रकारके शब्द-व्यवहारकी प्रवृत्तिके भी जो निमित्त हैं, उन पुरुषोंके संतान' अर्थात् कुलकी जैन संस्कृतिमें उच्चगोत्र संज्ञा स्वीकार की गयो है तथा ऐसे कुलोंमें जीवके उत्पन्न होनेके कारणभूत कर्मको भी जैन संस्कृतिमें उच्चगोत्र-कर्मके नामसे पुकारा गया है। इस समाधान में पूर्व प्रदर्शित दोषोंमेंसे कोई भी दोष सम्भव नहीं है क्योंकि इसके साथ उन सभी दोषों का विरोध है। इसी उच्चगोत्रकर्मके ठीक विपरीत ही नीचगोत्रकर्म है। इस प्रकार गोत्रकर्मकी उच्च और नीच ऐसी दो ही प्रकृतियाँ हैं । आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मका किस रूपमें व्यापार होता है, इस प्रश्नका समाधान करनेके लिये जो ढंग अपनाया है उसका आशय उन सभी दोषोंका परिहार करना है, जिनका निर्देश ऊपर उद्धृत पूर्व पक्षके व्याख्यानमें आचार्य महाराजने स्वयं किया है। वे इस समाधान में यही बतलाते हैं कि दीक्षाके योग्य साधु-आचारवाले पुरुषोंका कुल ही उच्चगोत्र या उच्चकुल कहलाता है और ऐसे गोत्र या कुलमें जीवकी उत्पत्ति होना ही उच्चगोत्रकर्मका कार्य है । इस प्रकार मनुष्य-गतिमें दीक्षाके योग्य साधु-आचारके आधारपर ही जैन संस्कृति द्वारा उच्चगोत्र या उच्चकुलकी स्थापना की गयी है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्यगतिमें तो जिन कुलोंका दीक्षाके योग्य साधु आचार न हो वे कुल नीच-गोत्र या नीच कुल कहे जाने योग्य हैं, 'गोत्र' शब्दका व्युत्पत्त्यर्थ गोत्र शब्दके निम्नलिखित विग्रहके आधार पर होता है "गूयते शब्द्यते अर्थात् जीवस्य उच्चता वा नीचता वा लोके व्यवह्रियते अनेन इति गोत्रम्" इसका अर्थ यह है कि जिसके आधारपर जीवोंका उच्चता अथवा नीचताका लोकमें व्यवहार किया जाय वह गोत्र कहलाता है । इस प्रकार जैन संस्कृतिके अनुसार मनुष्योंकी उच्च और नीच जीवनवृत्तियोंके आधारपर निश्चय किये गए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण तथा लुहार, चमार आदि जातियाँ ये सब गोत्र, कुल आदि नामोंसे पुकारने योग्य है । इन सभी गोत्रों या कुलोंमेंसे जिन कुलोंमें पायी जाने वाली मनुष्योंकी जीवनवृत्तिको लोकमें उच्च माना जाए वे उच्चगोत्र या उच्च कुल तथा जिन कुलोंमें पायी जाने वाली मनुष्योंकी जीवनवृत्तिको लोकमें नीच माना जाए वे नीचगोत्र या नीच कुल कहे जाने योग्य है, इस १. संत तर्गोत्र जननकुलान्यभिजनान्वयौ । वंशोऽन्वायः संतान ।-अमरकोष, ब्रह्म वर्ग । २. 'दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणा' आदि वाक्यका जो हिन्दी अर्थ षट्खण्डागम पुस्तक १३ में किया गया है, वह गलत है, हमने जो यहाँ अर्थ किया है उसे सही समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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