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जनदृष्टिसे मनुष्यों में उच्च-नीच व्यवस्थाका आधार
जैन संस्कृतिमें समस्त संसारी अर्थात् नारक, तिर्यक्, मनुष्य और देव - इन चारों ही गतियोंमें विद्यमान सभी जीवोंको यथायोग्य उच्च और नीच दो भागों में विभक्त करते हुए यह बतलाया गया है कि जो जीव उच्च होते हैं उनके उच्चगोत्र कर्मका और जो जीव नीच होते हैं उनके नीचगोत्र कर्मका उदय विद्यमान रहा करता है ।
यद्यपि जैन संस्कृतिके माननेवालोंके लिये यह व्यवस्था विवाद या शंकाका विषय नहीं होना चाहिए । परन्तु समस्या यह है कि प्रत्येक संसारी जीवमें उच्चता अथवा नीचताकी व्यवस्था करनेवाले साधनोंका जबतक हमें परिज्ञान नहीं हो जाता, तबतक यह कैसे कहा जा सकता है कि अमुक जीव तो उच्च है और अमुक जीव नीच है ?
यदि कोई कहे कि एक जीवको उच्चगोत्रकर्मके उदयके आधारपर उच्च और दूसरे जीवको नीचगोत्रकर्म के उदयके आधारपर नीच कहने में क्या आपत्ति है ? तो इसपर हमारा कहना यह है कि अपनी वतंमान अल्पज्ञताकी हालत में हम लोगोंके लिये जीवोंमें यथायोग्यरूपसे विद्यमान उच्चगोत्र-कर्म और नीचगोत्रकर्मके उदयका परिज्ञान न हो सकनेके कारण एक जीवको उच्चगोत्र-कर्मके उदयके आधारपर उच्च और दूसरे जीवको नीचगोत्र-कर्म के उदयके आधारपर नीच कहना शक्य नहीं है ।
माना कि जैन संस्कृतिके आगम-ग्रन्थोंके कथनानुसार नरकगति और तिर्यग्गतिमें रहनेवाले संपूर्ण जीवोंमें केवल नीचगोत्रकर्मका तथा देवगतिमें रहनेवाले सम्पूर्ण जीवोंमें केवल उच्चगोत्रकर्मका ही सर्वदा उदय विद्य मान रहा करता है । इसलिए यद्यपि संपूर्ण नारकियों और संपूर्ण तिर्यंचोंमें नीचगोत्रकर्मके उदयके आधारपर केवल नीचताका तथा सम्पूर्ण देवोंमें उच्चगोत्रकर्मके उदयके आधारपर केवल उच्चताका व्यवहार करना हम लोगोंके लिये अशक्य नहीं है । परन्तु उन्हीं जैन आगमग्रन्थोंमें जब संपूर्ण मनुष्योंमेंसे किन्हीं मनुष्योंके तो उच्चगोत्रकर्मका और किन्हीं मनुष्योंके नीचगोत्रकर्म का उदय होना बतलाया है तो जबतक संपूर्ण मनुष्यों में पृथक्-पृथक् यथायोग्य रूपसे विद्यमान उक्त उच्च तथा नीच दोनों ही प्रकारके गोत्रकर्मो के उदयका परिज्ञान नहीं हो जाता तबतक हम यह कैसे कह सकते हैं कि अमुक मनुष्योंमें चूँकि उच्चगोत्र - कर्मका उदय विद्यमान है इसलिए उन्हें तो उच्च कहना चाहिए और अमुक मनुष्योंमें चूँकि नीचगोत्र - कर्मका उदय विद्यमान है इसलिए उसे नीच कहना चाहिए? इसके अतिरिक्त मनुष्योंमें जब गोत्र परिवर्तनकी बात भी उन्हीं आगम-ग्रन्थोंमें स्वीकार की गयी है तो जबतक उनमें (मनुष्यों में ) यथासमय रहनेवाले उच्चगोत्र-कर्म तथा नीचगोत्र-कर्मके उदयका परिज्ञान हमें नहीं हो जाता, तबतक यह भी एक समस्या है कि एक ही मनुष्य को कब तो हमें उच्चगोत्र-कर्मके उदयके आधारपर उच्च कहना चाहिए और उसी मनुष्यको कब हमें नीचगोत्र - कर्मके उदयके आधार पर नीच कहना चाहिए ? एक बात और है । जैन संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार सातों नरकोंके सम्पूर्ण नारकियों में परस्पर तथा एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तककी सम्पूर्ण तिर्यग्जातियों और इनकी उपजातियों में रहनेवाले सम्पूर्ण तियंचोंमें परस्पर उच्चता और नीचताका कुछ न कुछ भेद पाया जानेपर भी यदि सभी नारकी, नरकगति सामान्यकी अपेक्षा और सभी तियंच, तिर्यग्गति सामान्यकी अपेक्षा नीच गोत्र-कर्मके उदयके आधारपर नीच माने जा सकते हैं तो, और इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक नामकी सम्पूर्ण देव जातियों और इनकी उपजातियोंमें रहनेवाले सम्पूर्ण देवोंमें परस्पर उच्चता और नोचताका कुछ न कुछ भेद पाया जानेपर भी यदि सभी देव देवगति सामान्यकी अपेक्षा उच्चगोत्र कर्मके उदयके आधार पर
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१६ : सरस्वती-बरसपत्र०बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
उच्च माने जा सकते हैं तो, फिर मनुष्यगतिमें रहनेवाले सम्पूर्ण मनुष्योंमें भी मनुष्य-गति सम्बन्धी विविध प्रकारकी समानता रहते हए अन्य ज्ञात साधनोंके अभावमें केवल अज्ञात उच्चगोत्र-कर्म और नीचगोत्र-वर्मके उदयके आधारपर पृथक्-पृथक् क्रमशः उच्चता और नीचताका व्यवहार कैसे किया जा सकता है ?
ये सब समस्याएँ हैं जिनका जबतक यथोचित समाधान प्राप्त नहीं हो जाता, तबतक जैन संस्कृतिके अनुयायी होने पर भी हम लोगोंके मस्तिष्कमें मनुष्योंको लेकर उच्चता और नीचता सम्बन्धी संदेह पैदा होते रहना स्वाभाविक ही है।
षट्खण्डागमके सूत्र १३५ का आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी द्वारा किया गया जो व्याख्यान धवलाशास्त्रकी पुस्तक १३ के पृष्ठ ३८८ पर पाया जाता है, उसे देखनेसे मालूम पड़ता है कि मनुष्योंकी उच्चता और नीचताके विषयमें आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीके समयमें भी विवाद था, इतना ही नहीं आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीके उस व्याख्यानसे तो यहाँ तक भी मालूम पड़ता है कि उनके समयके कोई-कोई विचारक विद्वान् मनुष्य-गतिमें माने गये उच्च और नीच उभयगोत्र कर्मोके उदयके सम्बन्धमें निर्णयात्मक समाधान न मिल सकनेके कारण उच्च और नीच दोनों भेदविशिष्ट व समूचे गोत्र-कर्मके अभाव तकको माननेके लिये उद्यत हो रहे थे, आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीका वह व्याख्यान निम्न प्रकार है:
"उच्चैर्गोत्रस्य क्व व्यापारः ? न तावद् राज्यादिलक्षणायां सम्पदि, तस्याः सद्वेद्यतः समुत्पत्तः नापि पंचमहाव्रतग्रहणयोग्यता उच्चैर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तद्ग्रहणं प्रत्यययोग्येषु उच्चर्गोत्रस्योदयाभावप्रसंगात्, न सम्यग्ज्ञानोत्पत्ती व्यापारः ज्ञानावरणक्षयोपशसहाय सम्यग्दर्शनतस्तदुत्पत्तेः। तिर्यग्नारकेष्वपि उच्चर्गोत्रस्योदयः स्यात्, तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्त्वात्, नादेयत्वे, यशसि, सौभाग्ये वा व्यापारः, तेषां नामतः समुत्पत्तेः, नेक्ष्वाकुकुलाद्युत्पत्तौ, काल्पनिकानां तेषां परमार्थतो. ऽसत्त्वात्, विड्ब्राह्मणसाधुष्वपि उच्चर्गोत्रस्योदयदर्शनात्, न सम्पन्नेभ्यो जीवोत्पत्तौ तद्व्यापारः, म्लेच्छराजसमुत्पन्नपृथुकस्यापि उच्चर्गोत्रोदयप्रसंगात्, नाणुबतिभ्यः समुत्पत्तौ तद्व्यापारः, देवेष्वीपपादिकेषु उच्चंर्गोत्रोदयस्यासत्वप्रसंगात्, नाभेयस्य नीचगोत्रतापत्तेश्च, ततो निष्फलमुच्चैर्गोत्रम्, तत एव न तस्य कर्मत्वमपि, तदभावे न नीचैर्गोत्रमपि, द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात्, ततो गोत्रकर्माभाव इति ।"
इस व्याख्यानमें प्रथम ही यह प्रश्न उठाया गया है कि जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मका क्या कार्य होता है ? इसके आगे उच्चगोत्र-कर्मके कार्य पर प्रकाश डालनेवाली तत्कालीन प्रचलित मान्यताओंका निर्देश करते हुए उनका खण्डन किया गया है और इस तरह उक्त प्रश्नका उचित समाधान न मिल सकनेके कारण अन्तमें निष्कर्षके रूपमें गोत्र-कर्मके अभावको प्रस्थापित किया गया है, व्याख्यानका हिन्दी विवरण निम्न प्रकार है।
शंका-जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मका किस रूप में व्यापार हुआ करता है ? अर्थात् जीवोंमें उच्चगोत्रकर्मका कार्य क्या है ?
१. समाधान-जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मका कार्य उनको राज्यादि सम्पत्तिको प्राप्ति होना है।
खण्डन-यह समाधान गलत है क्योंकि जीवोंको राज्यादि सम्पत्तिकी प्राप्ति उच्चगोत्र-कर्मके उदयसे न होकर सातावेदनीय कर्मके उदयसे ही हुआ करती है।
२. समाधान-जीवोंमें पंच महाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यताका प्रादुर्भाव होना ही उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है।
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६ / संस्कृति और समाज : १७
खण्डन-यदि जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मके उदयसे पंचमहाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यताका प्रादुर्भाव होता है तो ऐसी हालतमें देवोंमें और अभव्य जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्म के उदयका अभाव स्वीकार करना होगा, जबकि उन दोनों प्रकारके जीवोंमें, जैन संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार, उच्चगोत्र-कर्मके उदयका तो सद्भाव और पंचमहाव्रतोंके ग्रहण करने की योग्यताका अभाव दोनों ही एक साथ पाये जाते हैं।
३. समाधान-जीवोंमें सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति उच्चगोत्र-कर्मके उदयसे हआ करती है।
खण्डन-यह समाधान भी सही नहीं है क्योंकि जैन संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार जीवोंमें सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति उच्चगोत्र-कर्मका कार्य न होकर ज्ञानावरणकमके क्षयोपशमकी सहायतासे सापेक्ष सम्यग्दर्शनका ही कार्य है, दूसरी बात यह है कि जीवोंमें सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्तिको यदि उच्चगोत्र-कर्मका कार्य माना जायगा तो फिर तिर्यचों और नारकियोंमें भी उच्चगोत्रकर्मके उदयका सदभाव माननेके लिये हमें बाध्य होना पड़ेगा, जो कि अयुक्त होगा, क्योंकि जैनशास्त्रोंकी मान्यताके अनुसार जिन तिर्यंचों और
योंमें सम्यग्ज्ञानका सदभाव पाया जाता है उनमें उच्चगोत्र कर्मके उदयका अभाव ही रहा करता है।
४.समाधान-जीवोंमें आदेयता, यश और सुभगताका प्रादुर्भाव होना ही उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है ।
खण्डन--यह समाधान भी इसीलिए गलत है कि जीवोंमें आदेयता, यश और सुभगताका प्रादुर्भाव उच्चगोत्र-कर्मके उदयका कार्य न होकर क्रमशः आदेय, यशःकीर्ति और सुभग संज्ञा वाले नामकर्मोका ही कार्य है।
५. समाधान-जीवोंका इक्ष्वाकूकूल आदि क्षत्रियकुलोंमें जन्म लेना उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है ।'
खण्डन-यह समाधान भी उल्लिखित प्रश्नका उत्तर नहीं हो सकता है क्योंकि इक्ष्वाकुकुल आदि जितने क्षत्रियकुलोंको लोकमें मान्यता प्राप्त है वे सब काल्पनिक होनेसे एक तो अतद्रूप ही हैं, दूसरे यदि इन्हें वस्तुतः सद्रूप ही माना जाय तो भी यह नहीं समझना चाहिए कि उच्चगोत्र-कर्मका उदय केवल इक्ष्वाकुकुल आदि क्षत्रियकुलोंमें ही पाया जाता है; कारण कि जैन सिद्धान्तकी मान्यताके अनुसार उक्त क्षत्रियकुलोंके अतिरिक्त वैश्यकुलों और ब्राह्मणकुलोंमें भी तथा सभी तरहके कुलोंसे बन्धनसे मुक्त हुए साधुओंमें भी उच्चगोत्र-कर्मका उदय पाया जाता है।
६. समाधान-सम्पन्न (धनाढ्य) लोगोंमें जीवोंकी उत्पत्ति होना ही उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है ।
खण्डन-यह समाधान भी सही नहीं है क्योंकि सम्पन्न (धनाढ्य) लोगोंमें जीवोंकी उत्पत्तिको यदि उच्चगोत्र-कर्मका कार्य माना जायगा तो ऐसी हालतमें म्लेच्छराजसे उत्पन्न हुए बालकमें भी हमें उच्चगोत्रकर्मके उदयका सद्भाव स्वीकार करना होगा, कारण कि म्लेच्छराजकी सम्पन्नता तो राजकुलका व्यक्ति होनेके नाते निर्विवाद है, परन्तु समस्या यह है कि जैन-सिद्धान्तमें म्लेच्छजातिके सभी लोगोके नियमसे नीचगोत्र-कर्मका ही उदय माना गया है । १. 'नेक्ष्वाकुकुलाद्युत्पत्ती'का हिन्दी अर्थ षट्खण्डागम पुस्तक १३ में 'इक्ष्वाकुकुल आदिको उत्पत्तिमें इसका
व्यापार नहीं होता' किया गया है जो गलत है, इसका सही अर्थ 'इक्ष्वाकुकुल आदि क्षत्रियकुलोंमें
जीवोंकी उत्पत्ति होना इसका व्यापार नहीं है' होना चाहिए। २. यहाँ पर षट्खण्डागम पुस्तक १३ में विड्ब्राह्मणसाधुष्वपि' वाक्यका हिन्दी अर्थ 'वैश्य और ब्राह्मण
साधुओंमें' किया गया है जो गलत है, इसका सही अर्थ 'वैश्यों, ब्राह्मणों और साधुओंमें' होना चाहिए ।
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१८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
___७. समाधान-अणुव्रतोंको धारण करनेवाले व्यक्तियोंसे जीवोंकी उत्पत्ति होना उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है।
खण्डन--यह समाधान भी निर्दोष नहीं है क्योंकि अणुव्रतोंको धारण करनेवाले व्यक्तिसे जीवकी उत्पत्तिको यदि उच्चगोत्र-कर्मका कार्य माना जायगा तो ऐसी हालतमें देवोंमें पुनः उच्चगोत्र-कर्मके उदयका अभाव प्रसक्त हो जायगा, जो कि अयुक्त होगा। देवोंमें एक ओर तो उच्चगोत्र-कर्मका उदय जैनधर्ममें स्वीकार किया गया है तथा दूसरी ओर देवगतिमें अणुव्रतोंके धारण करनेको असंभवताके साथ-साथ मात्र उपपादशय्यापर ही देवोंकी उत्पत्ति स्वीकार की गई है । जीवोंकी अणुवतियोंसे उत्पत्ति होना उच्चगोत्रकर्मका कार्य माननेपर दूसरी आपत्ति यह उपस्थित होती है कि इस तरहसे तो नाभिराजके पुत्र भगवान् ऋषभदेवको भी नीचगोत्री स्वीकार करना होगा क्योंकि नाभिराजके समयमें अणुव्रत आदि धार्मिक प्रवृत्तियोंका मार्ग खुला हुआ नहीं होनेसे जैन-संस्कृतिमें उन्हें अणुव्रती नहीं माना गया है।
इस प्रकार उच्चगोत्र-कर्मके कार्यपर प्रकाश डालने वाले उल्लिखित सातों समाधानोंमेंसे जब कोई भी समाधान निर्दोष नहीं है तो इनके आधारपर उच्चगोत्र-कर्मको सफल नहीं कहा जा सकता है और इस तरह निष्फल हो जानेपर उच्चगोत्र-कर्मको कर्मोके वर्ग में स्थान देना ही अयक्त हो जाता है जिससे इसका (उच्चगोत्रकर्मका) अभाव सिद्ध हो जाता है तथा उच्चगोत्र-कर्मके अभावमें फिर नीचगोत्र-कर्मका भी अभाव निश्चित हो जाता है, कारण कि उच्च और नीच दोनों ही गोत्र-कर्म परस्पर एक-दूसरेसे सापेक्ष होकर ही अपनी सत्ता कायम रक्खे हए हैं। इस प्रकार अंतिम निष्कर्षके रूपमें सम्पूर्ण गोत्र-कर्मका अभाव सिद्ध होता है ।
। उक्त व्याख्यानपर बारीकीसे ध्यान देनेपर इतनी बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीके समयके विद्वान् एक तरफ तो जैन-सिद्धान्त द्वारा मान्य नारकियों और तिर्यंचोंमें नीचताकी व्यवस्थाको तथा देवोंमें उच्चताकी व्यवस्थाको निर्विवाद ही मानते थे लेकिन दूसरी तरफ मनुष्योंमें जैनशास्त्रों द्वारा स्वीकृत उच्चता तथा नीचता सम्बन्धी उभयरूप व्यवस्थाको वे शंकास्पद स्वीकार करते थे। नारकियों और तिर्यचोंमें नीचताकी व्यवस्थाको और देवोंमें उच्चताकी व्यवस्थाको निर्विवाद माननेका कारण यह जान पड़ता है कि सभी नारकियों और सभी तिर्यचोंमें सर्वथा नीचगोत्र-कर्मका तथा सभी देवोंमें सर्वदा उच्चगोत्र-कर्मका उचय ही जैन आगमों द्वारा प्रतिपादित किया गया है और मनुष्योंमें उच्चता तथा नीचता उभयरूप व्यवस्थाको शंकास्पद माननेका कारण यह जान पड़ता है कि चंकि मनुष्योंमें नीचगोत्र-कर्म तथा उच्चगोत्र-कर्मका उदय छद्मस्थों (अल्पज्ञों) के लिये अज्ञात ही रहा करता है। अतः उनमें नीचगोत्र-कर्मके आधारपर नीचताका और उच्चगोत्र-कर्मके उदयके आधारपर उच्चताका व्यवहार करना हम लोगोंके लिये शक्य नहीं रह जाता है।
___ यद्यपि धवलाशास्त्रकी पुस्तक १५ के पृष्ठ १५२ पर तिर्यचोंमें भी उच्चगोत्र-कमकी उदीरणाका कथन किया गया है इसलिए मनुष्योंकी तरह तियंचोंमें भी उच्चता तथा नीचताकी दोनों व्यवस्थायें शंकास्पद हो जाती हैं परन्तु वहींपर यह बात भी स्पष्ट कर दी गई है कि तिर्यचोंमें उच्चगोत्र-कर्मकी उदीरणाका सदभाव माननेका आधार केवल उनके (तिर्य चोंके) द्वारा संयमासंयमका परिपालन करना ही है। वह कथन निम्न प्रकार है:
'तिरिक्खेसू णीचागोदस्य व उदीरणा होदि त्ति सव्वत्थ परूविदं, एत्थ पुण उच्चागोदस्स वि उदीरणा परूविदा । तेणं पुण पुव्वावरविरोहो त्ति भणिदे, ण, तिरिक्खेसु संजमासंजमपरि
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. ६/ संस्कृति और समाज : १९
पालयंतेषु उच्चागोत्तुवलंभावो, उच्चागोदे देससयलसंजमणिबंधणे संते मिच्छाइट्ठीसु तदभावो त्ति
णासंकणिज्जं, तत्थवि उच्चागोदजणिदसंजमजोगतावेक्खाए उच्चागोदत्तं पडि विरोहाभावादो'।
यह व्याख्यान शंका और समाधानके रूपमें हैं। इसमें निर्दिष्ट जो शंका है वह इसलिए उत्पन्न हुई है कि इस प्रकरणमें इस व्याख्यानके पूर्व ही तिर्यग्गतिमें भी उच्चगोत्र-कर्मकी उदीरणाका प्रतिपादन किया गया है।' व्याख्यानका हिन्दी अर्थ निम्न प्रकार है
शंका-तिर्यचोंमें नीचगोत्रकर्मको उदीरणा होती है यह तो आगममें सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, लेकिन इस प्रकारमें उनके उच्चगोत्रकर्मकी उदीरणाका भी प्रतिपादन किया गया है इसलिए आगममें पूर्वापर विरोध उपस्थित होता है।
समाधान-यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि संयमासयमका पालन करनेवाले तिर्यचोंमें ही उच्चगोत्रकी उपलब्धि होती है।
शंका-यदि जीवोंमें देशसंयम और सकलसंयमके आधारपर उच्चगोत्रका सदभाव माना जाय तो इस तरह मिथ्यादृष्टियोंमें उच्चगोत्रका अभाव मानना होगा जबकि जैनसिद्धान्तकी मान्यताके अनुसार उनमें उच्चगोत्रका भी सद्भाव पाया जाता है।
समाधान-यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि मिथ्याष्टियोंमें देशसंयम और सकलसंयमकी योग्यताका पाया जाना तो सम्भव है ही इसीलिए उनकी उच्चगोत्रताके प्रति आगमका विरोध नहीं रह जाता है।
यद्यपि घवलाके उक्त शंका-समाधानसे तिर्यग्गतिमें उच्चगोत्रकी उदीरणा सम्बन्धी प्रश्न तो समाप्त हो जाता है परन्तु इससे एक तो देशसंयम और सकलसंयमको उच्चगोत्रकर्मके उदयके सदभाबमें कारण माननेसे पंचम गुणस्थानमें जैनदर्शनके कर्म-सिद्धान्तके अनुसार प्रतिपादित नीचगोत्र कर्मके उदयका सद्भाव मानना असंगत होगा और दूसरे मनुष्यगतिकी तरह तिर्यग्ग तिमें भी देशसंयम धारण करनेकी योग्यताका परिज्ञान अल्पज्ञों के लिये असम्भव रहनेके कारण उच्चगोत्रकर्म और नीचगोत्र-कर्म के उदयकी व्यवस्था करना मनुष्यगतिकी तरह जटिल ही होगा।
उक्त दोनों ही प्रश्न इतने महत्त्वके हैं कि जबतक इनका समाधान नहीं होता तबतक तिर्यग्गतिमें भी उच्चगोत्र और नीचगोत्रकी व्यवस्था सम्बन्धी समस्याका हल होना असंभव ही प्रतीत होता है। विद्वानोंको इनपर अपना दृष्टिकोण प्रकट करना चाहिए । हमारा दृष्टिकोण निम्न प्रकार है
प्रथम प्रश्नके विषयमें हम ऐसा सोचते हैं कि आगम द्वारा तिर्यग्गतिमें उच्चगोत्रकर्मकी उदीरणाका जो प्रतिपादन किया गया है उसे एक अपवाद-सिद्धान्त स्वीकार कर, यही मानना चाहिए कि ऐसा कोई तिर्यंच-जो देशसंयम धारण करनेकी किसी विशेष योग्यतासे प्रभावित हो-उसीके उक्त आगमके आधारपर उच्चगोत्र-कर्मका उदय रह सकता है। इस तरह सामान्यरूपसे देशसंयमको धारण करनेवाला तिर्यच नीचगोत्री ही हुआ करता है।
दूसरे प्रश्नके विषयमें हमारा यह कहना है कि नरकगति, तिर्यग्गति और देवगतिके जीवोंको जीवनवृत्तियोंमें समानरूपसे प्राकृतिकताको स्थान प्राप्त है, इसलिए तिर्यञ्चोंमें उच्चता और नीचताजन्य भेदका सदभाव रहते हुए भी जीवनवृत्तियोंकी उस प्राकृतिकताके कारण नारकियों और देवोंके समान ही सभी तिर्यचों
१. तिरिक्खगईएउच्चागोदस्य जहण्णट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, जट्ठिदि० विसेसाहिया।
धवला, पुस्तक १५, पृष्ठ १५२ ।
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२० : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्य
में परस्पर जीवनवृत्तिजन्य ऐसी विषमताका पाया जाना सम्भव नहीं है जिसके आधारपर उनमें यथायोग्य दोनों गोत्रोंके उदयकी व्यवस्था स्वीकार करनेसे व्यावहारिक गड़बड़ी पैदा होनेकी सम्भावना हो । केवल मानव-जीवन ही ऐसा जीवन है जहाँ जीवनवृत्तिके लिये अनिवार्य सामाजिक व्यवस्थाकी स्वीकृति के आधारपर गोत्रकर्मके उच्च तथा नीचरूप उदयभेदका व्यावहारिक उपयोग होता है । तात्पर्य यह है कि नरकगति, तिर्यग्गति और देवगतिके जीवोंकी जीवनवृत्तियोंमें प्राकृतिकताको जैसा स्थान प्राप्त है वैसा स्थान मनुष्योंकी जीवनवृत्तियों में प्राकृतिकताको प्राप्त नहीं हैं । यही कारण है कि मनुष्यको सामान्यरूपसे कौटुम्बिक संगठन, ग्राम्य संगठन, राष्ट्रीय संगठन और यहाँतक कि मानव संगठन आदिके रूपमें सामाजिक व्यवस्थाओंके अधीन रहकर ही पुरुषार्थ द्वारा अपनी जीवनवृत्तिका संचालन करना पड़ता है । परन्तु यह सब तिर्यंचोंके लिये आवश्यक नहीं है ।
यद्यपि हम मानते है कि भोगभूमिगत मनुष्योंकी जीवनवृत्तियोंमें प्राकृतिकता के ही दर्शन होते हैं और यही कारण है कि उन मनुष्योंमें सामाजिक व्यवस्थाओंका सर्वथा अभाव पाया जाता है । इसके अलावा, उनमें केवल उच्चगोत्रकर्मका ही उदय सर्व उदित विद्यमान रहता है । इसलिए उनके जीवन में व्यावहारिक विषमताको स्थान प्राप्त नहीं होता है लेकिन कर्मभूमिगत मनुष्योंकी जीवनवृत्तियोंमें जो अप्राकृतिकता स्वभावतः पायी जाती है उसके कारण उनको अपनी जीवनवृत्तिकी सम्पन्नताके लिये उक्त सामाजिक व्यवस्थाओंकी अधीनता में पुरुषार्थका उपयोग करना पड़ता है और ऐसा देखा जाता है कि उनके द्वारा अपनी जीवनवृत्तिके संचालन के लिये अपनाये गये भिन्न-भिन्न प्रकारके पुरुषार्थों में उच्चता और नीचताका वैषम्य स्वभावतः हो जाता है जिसके कारण उनकी जोवनवृत्तियाँ भी उच्च और नीचके भेदसे दो वर्गोमें विभाजित हो जाती हैं । यद्यपि कर्मभूमिगत मनुष्यों में जीवनवृत्तियोंकी बहुत-सी विविधतायें पायी जाती हैं और जीवनवृत्तियोंकी इन्हीं विविधताओंके आधारपर ही उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णोंकी तथा इन्हीं वर्णोंके अन्तर्गत जीवनवृत्तियों के आधारपर ही यथायोग्य लुहार, चमार आदि विविध जातियोंकी स्थापनाको जैनसंस्कृतिमें स्वीकार किया गया है । परन्तु जीवनवृत्तियोंके आधारपर स्थापित सभी वर्णों और उनके अन्तर्गत पायी जानेवाली उक्त प्रकारकी सभी जातियोंको भी जीवनवृत्तियों में पायी जानेवाली उच्चता और नीचताके अनुसार ही उच्च और नीच दो वर्गों में संग्रहीत कर दिया गया है । इस प्रकार उच्च और नीच दोनों प्रकारकी जीवनवृत्तियोंको ही कमशः उच्चगोत्र कर्म और नीचगोत्र कर्म के उदयका जैन संस्कृतिमें मापदण्ड स्वीकार किया गया है ।
जीवोंमें उच्चगोत्र कर्मका किस रूपमें व्यापार होता है ? अथवा जीवोंमें उच्चगोत्र कर्मका क्या कार्य होता है ? इस प्रश्नका जो समाधान आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने स्वयं किया है और जिसे उन्होंने स्वयं ही निर्दोष माना है उसमें मनुष्योंकी इसी पुरुषार्थप्रधान जीवनवृत्तिको आधार प्ररूपित किया है। आचार्य श्रीवीरसेन स्वमीका वह समाधानरूप व्याख्यान निम्न प्रकार है ।
'न, जिनवचनस्यासत्यत्वविरोधात् । तद्विरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभावतोऽवगम्यते । न च केवलज्ञान विषयीकृतेष्वर्थेषु सकलेष्वपि रजोजुषां ज्ञानानि प्रवर्तन्ते येनानुपलम्भाज्जिनवचनस्याप्रमाणत्वमुच्येत् । न च निष्फलमुच्चैर्गोत्रम्, दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतसंबन्धानां आर्यप्रत्ययाभिधानव्यवहारनिबन्धनानां पुरुषाणां संतानः उच्चगोत्रम्, तत्रोत्पत्तिहेतुः कर्माप्युच्चैर्गोत्रम् । न चात्र पूर्वोक्तदोषाः संभवन्ति, विरोधात्, तद्विपरीतं नीचैर्गोत्रम् । एवं गोत्रस्य द्वे एव प्रकृती भवतः । "
पहले जो समूचे गोत्रकर्मके अभावकी आशंका इस लेखमें उद्धृत धवलाशास्त्रको पुस्तक १३ के पृष्ठ २८८ के व्याख्यानमें प्रकट कर आये हैं, उसीका समाधान करते हुए आगे वहीं पर ऊपर लिखा व्याख्यान आचार्य श्री वीरसेन स्वामीने किया है। उसका हिन्दी अर्थ निम्न प्रकार है
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६ , संस्कृति और समाज : २१
"गोत्रकर्मके अभावकी आशंका करना ठीक नहीं है क्योंकि जिनेन्द्र भगवानने स्वयं ही गोत्रकर्मके अस्तित्त्वका प्रतिपादन किया है और यह बात निश्चित है कि जिनेन्द्र भगवानके वचन कभी असत्य नहीं होते हैं, असत्यताका जिनेन्द्र भगवानके वचनके साथ विरोध है अर्थात् वचन एक ओर तो जिनेन्द्र भगवान्के हों और दुसरी ओर वे असत्य भी हों-यह बात कभी संभव नहीं है, ऐसा इसलिए मानना पड़ता है कि जिन भगवान् के वचनोंको असत्य माननेका कोई कारण ही दृष्टिगोचर नहीं होता है।
जिन भगवान्ने यद्यपि गोत्रकर्मके सद्भावका प्रतिपादन किया है किन्तु हमें उसकी (गोत्रकर्मकी) उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए जिनवचनको असत्य माना जा सकता है, पर ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि केवलज्ञानके विषयभूत सम्पूर्ण पदार्थों में हम अल्पज्ञोंके ज्ञानकी प्रवृत्ति ही नहीं होती।
इस प्रकार उच्चगोत्र-कर्मको निष्फल मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि जो पुरुष स्वयं तो दीक्षाके योग्य साधु आचारवाले हैं ही तथा इस प्रकारके साधु आचारवाले पुरुषोंके साथ जिनका सम्बन्ध स्थापित हो
चुका है उनमें 'आर्य' इस प्रकारके प्रत्यय और 'आर्य' इस प्रकारके शब्द-व्यवहारकी प्रवृत्तिके भी जो निमित्त हैं, उन पुरुषोंके संतान' अर्थात् कुलकी जैन संस्कृतिमें उच्चगोत्र संज्ञा स्वीकार की गयो है तथा ऐसे कुलोंमें जीवके उत्पन्न होनेके कारणभूत कर्मको भी जैन संस्कृतिमें उच्चगोत्र-कर्मके नामसे पुकारा गया है।
इस समाधान में पूर्व प्रदर्शित दोषोंमेंसे कोई भी दोष सम्भव नहीं है क्योंकि इसके साथ उन सभी दोषों का विरोध है। इसी उच्चगोत्रकर्मके ठीक विपरीत ही नीचगोत्रकर्म है। इस प्रकार गोत्रकर्मकी उच्च और नीच ऐसी दो ही प्रकृतियाँ हैं ।
आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मका किस रूपमें व्यापार होता है, इस प्रश्नका समाधान करनेके लिये जो ढंग अपनाया है उसका आशय उन सभी दोषोंका परिहार करना है, जिनका निर्देश ऊपर उद्धृत पूर्व पक्षके व्याख्यानमें आचार्य महाराजने स्वयं किया है। वे इस समाधान में यही बतलाते हैं कि दीक्षाके योग्य साधु-आचारवाले पुरुषोंका कुल ही उच्चगोत्र या उच्चकुल कहलाता है और ऐसे गोत्र या कुलमें जीवकी उत्पत्ति होना ही उच्चगोत्रकर्मका कार्य है । इस प्रकार मनुष्य-गतिमें दीक्षाके योग्य साधु-आचारके आधारपर ही जैन संस्कृति द्वारा उच्चगोत्र या उच्चकुलकी स्थापना की गयी है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्यगतिमें तो जिन कुलोंका दीक्षाके योग्य साधु आचार न हो वे कुल नीच-गोत्र या नीच कुल कहे जाने योग्य हैं, 'गोत्र' शब्दका व्युत्पत्त्यर्थ गोत्र शब्दके निम्नलिखित विग्रहके आधार पर होता है
"गूयते शब्द्यते अर्थात् जीवस्य उच्चता वा नीचता वा लोके व्यवह्रियते अनेन इति गोत्रम्"
इसका अर्थ यह है कि जिसके आधारपर जीवोंका उच्चता अथवा नीचताका लोकमें व्यवहार किया जाय वह गोत्र कहलाता है । इस प्रकार जैन संस्कृतिके अनुसार मनुष्योंकी उच्च और नीच जीवनवृत्तियोंके आधारपर निश्चय किये गए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण तथा लुहार, चमार आदि जातियाँ ये सब गोत्र, कुल आदि नामोंसे पुकारने योग्य है । इन सभी गोत्रों या कुलोंमेंसे जिन कुलोंमें पायी जाने वाली मनुष्योंकी जीवनवृत्तिको लोकमें उच्च माना जाए वे उच्चगोत्र या उच्च कुल तथा जिन कुलोंमें पायी जाने वाली मनुष्योंकी जीवनवृत्तिको लोकमें नीच माना जाए वे नीचगोत्र या नीच कुल कहे जाने योग्य है, इस १. संत तर्गोत्र जननकुलान्यभिजनान्वयौ । वंशोऽन्वायः संतान ।-अमरकोष, ब्रह्म वर्ग । २. 'दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणा' आदि वाक्यका जो हिन्दी अर्थ षट्खण्डागम पुस्तक १३ में किया गया है, वह गलत है, हमने जो यहाँ अर्थ किया है उसे सही समझना चाहिए।
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२२ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्यं अभिनन्दन ग्रन्थ
तरह उच्चगोत्र या कुलमें जन्म लेने वाले मनुष्योंको उच्च तथा नीच गोत्र या कुलमें जन्म लेने वाले मनुष्योंको नीच कहना चाहिए । आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीके उल्लिखित व्याख्यानसे यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि उच्चगोत्र में पैदा होनेवाले मनुष्योंके नियमसे उच्चगोत्र - कर्मका तथा नीचगोत्र में पैदा होनेवाले मनुष्योंके नियमसे नीच गोत्र - कर्मका ही उदय विद्यमान रहा करता है अर्थात् बिना उच्चगोत्र-कर्मके उदयके कोई भी जीव उच्च कुल में और बिना नीचगोत्र - कर्मके उदयके कोई भी जीव नीच कुलमें उत्पन्न नहीं हो सकता है । तत्त्वार्थसूत्रको टीका सर्वार्थसिद्धि में उसके आठवें अध्यायके 'उच्चैर्नीचैश्च' (सूत्र १२) सूत्रकी टीका करते हुए आचार्य श्री पूज्यपादने भी यही प्रतिपादन किया है कि
“यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चेर्गोत्रम् | यदुदयाद् गर्हितेषु कुलेषु जन्म तन्नी चैगोत्रम् ।”
अर्थात् जिस गोत्र-कर्मके उदयसे जीवोंका लोकपूजित (उच्च) कुलोंमें जन्म होता है उस गोत्रकर्मका नाम उच्चगोत्र कर्म है और जिस गोत्रकर्मके उदयसे जीवोंका लोकगर्हित ( नीच ) कुलों में जन्म होता है उस गोत्र कर्मका नाम नीचगोत्र कर्म है ।
जैन संस्कृतिके आचारशास्त्र ( चरणानुयोग ) और करणानुयोग से यह सिद्ध होता है कि सभी देव उच्चगोत्री और सभी नारकी और सभी तिर्यञ्च नीचगोत्री ही होते हैं, परन्तु ऊपर जो उच्चगोत्र-कर्मकी उदीरणा करने वाले तिर्यचोंका कथन किया गया है उन्हें इस नियमका अपवाद समझना चाहिए, मनुष्यों में भी केवल आर्यखण्डमें बसने वाले कर्मभूमिज मनुष्य ही ऐसे हैं जिनमें उच्चगोत्री तथा नीचगोत्री दोनों प्रकारके वर्गोंका सद्भाव पाया जाता है अर्थात् उक्त कर्म-भूमिज मनुष्यों में से चातुर्वण्य व्यवस्थाके अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों और इन वर्णोंके अन्तर्गत जातियोंके सभी मनुष्य उच्चगोत्री ही होते हैं, इनसे अतिरिक्त जितने शुद्र वर्ण और इस वर्णके अन्तर्गत जातियोंके मनुष्य पाये जाते हैं वे सब तथा चातुर्वण्य व्यवस्थासे बाह्य जो शक, यवन, पुलिन्दादिक हैं, वे सब नीचगोत्री ही माने गये हैं । आर्यखण्ड में बसनेवाले इन कर्मभूमिज मनुष्योंको छोड़कर शेष जितने भी मनुष्य लोकमें बतलाये गये हैं उनमेंसे भोगभूमिके सभी मनुष्य उच्चगोत्री तथा पाँचों म्लेच्छखण्डोंमें बसने वाले मनुष्य और अन्तद्वपज मनुष्य नीचगोत्री ही हुआ करते हैं, आर्यखण्डमें बसने वाले शक, यवन, पुलिन्दादिकको तथा पांचों म्लेच्छखण्डों में और अन्तर्दीपोंमें बसने वाले मनुष्यों को जैन संस्कृति में म्लेच्छ संज्ञा दी गयी है और यह बतलाया गया है कि ऐसे म्लेच्छोंको भी उच्चगोत्री समझना चाहिए, जिनका दीक्षाके योग्य साधु आचारवालोंके साथ सम्बन्ध स्थापित हो चुका हो और इस तरह जिनमें 'आर्य' ऐसा प्रत्यय तथा 'आर्य' ऐसा शब्द व्यवहार भी होने लगा हो। इससे जैन संस्कृति में मान्य गोत्रपरिवर्तन के सिद्धान्तकी पुष्टि होती है, गोत्रपरिवर्तनके सिद्धान्तको पुष्ट करने वाले बहुतसे लौकिक उदाहरण आज भी प्राप्त हैं । जैसे—यह इतिहासप्रसिद्ध है कि जो अग्रवाल आदि जातियाँ पहले किसी समय में क्षत्रिय वर्ण में थीं वे आज पूर्णतः वैश्य वर्ण में समा चुकी हैं, जैनपुराणोंमें अनुलोम और प्रतिलोम विवाहोंका उल्लेख है, वे उल्लेख स्त्रियोंके गोत्र-परिवर्तनकी सूचना देते हैं। आज भी देखा जाता है कि विवाहके अनन्तर कन्या पितृपक्ष - के गोत्रकी न रहकर पतिपक्षके गोत्रकी हो जाती है। इस संपूर्ण कथनका अभिप्राय यह है कि यदि परिवर्तित गोत्र उच्च होता है तो नीचगोत्र में उत्पन्न हुई कन्या उच्चगोत्रकी बन जाती है और यदि परिवर्तित गोत्र नीच होता है तो उच्चगोत्र में उत्पन्न हुई नारी भी नीचगोत्रकी बन जाती है और परिवर्तित गोत्रके अनुसार ही नारीके यथायोग्य नीचगोत्र कर्मका उदय न रहकर उच्चगोत्र कर्मका उदय तथा उच्चगोत्रका उदय समाप्त होकर नीचगोत्र कर्मका उदय आरम्भ हो जाता है । इसी प्रकार मनुष्य में जीवनवृत्तिका परिवर्तन न होनेपर
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६ / संस्कृति और समाज : २३
भी गोत्र परिवर्तन हो जाता है। जैसा कि अग्रवाल आदि जातियोंका उदाहरण ऊपर दिया गया है ।
पहले कहा जा चका है कि आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने 'उच्चगोत्र-कर्मका जीवोंमें किस रूप में व्यापार होता है। इस प्रश्नका समाधान करनेके लिये जो ढंग बनाया है उसका उद्देश्य उन सभी दोषोंका परिहार करना है जिनका निर्देश पूर्व पक्षके व्याख्यानमें किया है। इससे हमारा अभिप्राय यह है कि आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने उच्चगोत्रका निर्धारण करके उसमें जीवोंकी उत्पत्तिके कारणभूत कर्मको उच्चगोत्र-कर्म नाम दिया है। उन्होंने बतलाया है कि दीक्षाके योग्य साधु आचारवाले पुरुषोंका कुल ही उच्चगोत्र कहलाता है और ऐसे कुलमें जीवकी उत्पत्ति होना ही उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है। इसमें पूर्वोक्त दोषोंका अभाव स्पष्ट है क्योंकि इससे जैन संस्कृति द्वारा देवोंमें स्वीकृत उच्चगोत्र-कर्म के उदयका और नारकियों तथा तिर्यंचोंमें स्वीकृत नीचगोत्रकर्मके उदयका व्याघात नहीं होता है, क्योंकि इसमें उच्चगोत्रका जो लक्षण बतलाया गया है वह मात्र मनुष्यगतिसे ही सम्बन्ध रखता है और इसका भी कारण यह है कि उच्चगोत्र-कर्मके कार्यका यदि विवाद है तो वह केवल मनुष्यगतिमें ही सम्भव है, दूसरी गतियोंमें याने देव, नरक और तिर्यक्न मिकी गतियोंमें, कहाँ किस गोत्र-कर्मका, किस आधारसे उदय पाया जाता है, यह बात निर्विवाद है । इस समाधानसे अभव्य मनुष्योंके भी उच्चगोत्र-कर्मके उदयका अभाव प्रसक्त नहीं होता है क्योंकि अभव्योंको उच्च माने जानेवाले कूलोंमें जन्म लेनेका प्रतिबन्ध इससे नहीं होता है । म्लेच्छखण्डोंमे बसनेवाले मनुष्योंके नीचगोत्र-कर्मके उदयकी ही सिद्धि इस समाधानसे होती है क्योंकि म्लेच्छण्डोंमें जैन संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार धर्म-कर्मकी प्रवृत्तिका सर्वथा अभाव विद्यमान रहनेके कारण दीक्षाके योग्य साधु आचारवाले उच्चकुलोंका सद्भाव नहीं पाया जाता है। इसी आधारपर अन्तर्वीपज और कर्मभूमिज म्लेच्छके भी केवल नीचगोत्र-कर्मके उदयकी ही सिद्धि होती है। आर्यखण्डके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य संज्ञावाले कुलोंमें जन्म लेनेवाले मनुष्योंके इस समाधानसे केवल उच्चगोत्र-कर्मके उदयकी ही सिद्धि होती है क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य संज्ञावाले सभी कुल दीक्षा योग्य साधु आचारवाले उच्चकुल ही माने गये हैं। साधुवर्ग में उच्चगोत्र-कर्मके उदयका व्याघात भी इस समाधानसे नहीं होता है क्योंकि जहाँ दीक्षायोग्य साधु आचारवाले कुलों तकको उच्चता प्राप्त है वहाँ जब मनुष्य, कुलव्यवस्थासे भी ऊपर उठकर अपना जीवन आदर्शमय बना लेता है तो उसमें केवल उच्चगोत्र-कर्मके उदयका रहना ही स्वाभाविक है, शुद्रोंमें इस समाधानसे नीचगोत्र-कर्मके उदयकी ही सिद्धि होती है क्योंकि उनके कौलिक आचारको जैन संस्कृतिमें दीक्षायोग्य साधु आचार नहीं माना गया है। यही कारण है कि पूर्वमें उद्धत धवलाशास्त्रकी पुस्तक १३ के पष्ठ ३८८ के 'विड़ब्राह्मणसाधष्वपि उचैर्गोत्रस्योदयदर्शनात्' वाक्यमें वैश्यों. ब्राह्मणों और साधुओंके साथ शूद्रोंका उल्लेख आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने नहीं किया है । यदि आचार्यश्रीको शूद्रोंके भी वैश्य, ब्राह्मण और साधु पुरुषोंकी तरह उच्चगोत्रके उदयका सद्भाव स्वीकार होता तो शूद्रशब्दका भी उल्लेख उक्त वाक्यमें करनेसे वे नहीं चूक सकते थे । उक्त वाक्यमें क्षत्रियशब्दका उल्लेख न करनेका कारण यह है कि उक्त वाक्य उन लोगों की मान्यताके खण्डनमें प्रयुक्त किया गया है जो लोग उच्चगोत्र-कर्मका उदय केवल क्षत्रिय कुलोंमें मानना चाहते थे।
यदि कोई यहाँ यह शंका उपस्थित करे कि भोगभूमिके मनुष्योंमें भी तो जैन संस्कृति द्वारा केवल उच्चगोत्र-कर्मका ही उदय स्वीकार किया गया है लेकिन उपर्युक्त उच्चगोत्रका लक्षण तो उनमें वटित नहीं होता है, क्योंकि भोगभूमिमें साधुमार्गका अभाव हो पाया जाता है, अतः वहाँके मनुष्य-कुलोंको दीक्षा-योग्य साधु-आचारवाले कुल कैसे माना जा सकता है ? तो इस शंकाका समाधान यह है कि भोगभूमिके म उच्चगोत्री ही होते हैं, यह बात हम पहले ही बतला आये हैं, जैन-संस्कृतिकी भी यही मान्यता है। इसलिये
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२४ : सरस्वतो-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
वहाँ मनुष्योंकी उच्चता और नीचताका विवाद नहीं होनेके कारण केवल कर्मभूमिके मनुष्योंको लक्ष्यमें रखकर ही उच्चगोत्रका उपर्युक्त लक्षण निर्धारित किया गया है ।
इस प्रकार षट्खण्डागमकी धवला टीकाके आधारपर तथा सर्वार्थसिद्धि आदि महान् ग्रन्थोंके आधारपर यह सिद्धान्त स्थिर हो जाता है कि उच्चगोत्री मनुष्यके उच्चगोत्र-कर्मका और नीचगोत्री मनुष्योंके नीचगोत्रकर्मका ही उदय रहा करता है लेकिन जो उच्चगोत्री मनष्य कदाचित नीचगोत्री हो जाता है अथवा जो नीचगोत्री मनुष्य कदाचित् उच्चगोत्री हो जाता है, उसके यथायोग्य पूर्वगोत्र-कर्मका उदय समाप्त होकर दूसरे गोत्रकर्मका उदय हो जाया करता है।
षटखण्डागमकी धवलाटीकाके आधारपर दुसरा सिद्धान्त यह स्थिर होता है कि दीक्षाके योग्य साधु आचारवाले जो कुल होते हैं याने जिन कुलोंका निर्माण दीक्षाके योग्य साधु-आचारके आधारपर हुआ हो वे कूल ही उच्चकूल या उच्चगोत्र कहलाते है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि कौलिक आचारके आधारपर ही एक मनुष्य उच्चगोत्री और दूसरा मनुष्य नीचगोत्री समझा जाना चाहिए, गोम्मटसार कर्मकाण्डमें तो स्पष्ट
च्चाचरणके आधारपर एक मनष्यको उच्चगोत्री और नीचाचरणके आधारपर दूसरे मनुष्यको नीचगोत्री प्रतिपादित किया है । गोम्मटसार कर्मकाण्डका वह कथन निम्न प्रकार है।
'संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा ।
उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं ॥ १३ ॥ जीवका संतानक्रमसे अर्थात् कुलपरम्परासे आया हुआ जो आचरण है उसी नामका गोत्र समझना चाहिए, वह आचरण यदि उच्च हो तो गोत्रको भी उच्च ही समझना चाहिए, और यदि वह आचरण नीच हो तो गोत्रको भी नीच ही समझना चाहिए।
गोम्मटसार कर्मकाण्डकी उल्लिखित गाथाका अभिप्राय यही है कि उच्च और नीच दोनों ही कुलोंका निर्माण कुलगत उच्च और नीच आचरणके आधारपर ही हुआ करता है। यह कुलगत आचरण उस कुलकी निश्चित जीवनवृत्तिके अलावा और क्या हो सकता है ? इसलिये कुलाचरणसे तात्पर्य उस-उस कुलकी निर्धारित जीवनवृत्तिका ही लेना चाहिये, कारण कि धर्माचरण और अधर्माचरणको इसलिए उच्च और नीच गोत्रोंका नियामक नहीं माना जा सकता है कि धर्माचरण करता हुआ भी जीव जैन-संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार नोचगोत्री हो सकता है । इस प्रकार कर्मभूमिके मनुष्योंमें ब्राह्मणवृत्ति, क्षात्रवृत्ति और वैश्यवृत्तिको जैन-संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार उच्चगोत्रकी नियामक और शौद्रवृत्ति तथा म्लेच्छवृत्तिको नोचगोत्रको नियामक समझना चाहिए।
एक बात और है कि वृत्तियोंके सात्त्विक, राजस और तामस ये तीन भेद मानकर ब्राह्मणवृत्तिको सात्त्विक, क्षात्रवृत्ति और वैश्यवृत्तिको राजस तथा शौद्रवृत्ति और म्लेच्छवृत्तिको तामस कहना भी अयुक्त नहीं है । जिस वृत्तिमें उदात्त गुणको प्रधानता हो वह सात्त्विकवृत्ति, जिस वृत्तिमें शौर्यगुण अथवा प्रामाणिक व्यवहारकी प्रधानता हो वह राजसवृत्ति और जिस वृत्तिमें हीनभाव अर्थात् दीनता या क्रूरताकी प्रधानता हो वह तामसवृत्ति जानना चाहिए । इस प्रकार ब्राह्मणवृत्तिमें सात्त्विकता, क्षात्रवृत्तिमें शौर्य, वैश्यवृत्तिमें प्रामाणिकता, शौद्रवृत्तिमें दीनता और म्लेच्छवृत्तिमें क्रूरताका ही प्रधानतया समावेश पाया जाता है। इन तीन प्रकारकी वत्तियोंमेंसे सात्त्विक वृत्ति और राजसवृत्ति दोनों ही उच्चताकी तथा तामसवत्ति नीचताकी निशानी समझना चाहिए।
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________________ 6 / संस्कृति और समाज : 25 इस लेखमें हमने मनुष्योंकी उच्चता और नीचताके विषयमें जो विचार प्रकट किये हैं उनका आधार यद्यपि आगम है फिर भी यह विषय इतना विवादग्रस्त है कि सहसा समझ में आना कठिन है। हमारा अनुरोध है कि वे भी इस विषयका चिन्तन करें और अपनी विचारधाराके निष्कर्षको व्यक्त करें। यद्यपि इस विषय पर कर्मसिद्धान्तकी दृष्टिसे भी विचार किया जाना था, परन्तु लेखका कलेवर इतना बढ़ चुका है कि प्रस्तुत लेखमें मैंने जो कुछ लिखा है उसमें भी संकोचकी नीतिसे काम लेना पड़ा है। अतः अतिरिक्त विषय कभी प्रसंगानुसार ही लिखनेका प्रयत्न करूँगा। AAXN