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जनदृष्टिसे मनुष्यों में उच्च-नीच व्यवस्थाका आधार
जैन संस्कृतिमें समस्त संसारी अर्थात् नारक, तिर्यक्, मनुष्य और देव - इन चारों ही गतियोंमें विद्यमान सभी जीवोंको यथायोग्य उच्च और नीच दो भागों में विभक्त करते हुए यह बतलाया गया है कि जो जीव उच्च होते हैं उनके उच्चगोत्र कर्मका और जो जीव नीच होते हैं उनके नीचगोत्र कर्मका उदय विद्यमान रहा करता है ।
यद्यपि जैन संस्कृतिके माननेवालोंके लिये यह व्यवस्था विवाद या शंकाका विषय नहीं होना चाहिए । परन्तु समस्या यह है कि प्रत्येक संसारी जीवमें उच्चता अथवा नीचताकी व्यवस्था करनेवाले साधनोंका जबतक हमें परिज्ञान नहीं हो जाता, तबतक यह कैसे कहा जा सकता है कि अमुक जीव तो उच्च है और अमुक जीव नीच है ?
यदि कोई कहे कि एक जीवको उच्चगोत्रकर्मके उदयके आधारपर उच्च और दूसरे जीवको नीचगोत्रकर्म के उदयके आधारपर नीच कहने में क्या आपत्ति है ? तो इसपर हमारा कहना यह है कि अपनी वतंमान अल्पज्ञताकी हालत में हम लोगोंके लिये जीवोंमें यथायोग्यरूपसे विद्यमान उच्चगोत्र-कर्म और नीचगोत्रकर्मके उदयका परिज्ञान न हो सकनेके कारण एक जीवको उच्चगोत्र-कर्मके उदयके आधारपर उच्च और दूसरे जीवको नीचगोत्र-कर्म के उदयके आधारपर नीच कहना शक्य नहीं है ।
माना कि जैन संस्कृतिके आगम-ग्रन्थोंके कथनानुसार नरकगति और तिर्यग्गतिमें रहनेवाले संपूर्ण जीवोंमें केवल नीचगोत्रकर्मका तथा देवगतिमें रहनेवाले सम्पूर्ण जीवोंमें केवल उच्चगोत्रकर्मका ही सर्वदा उदय विद्य मान रहा करता है । इसलिए यद्यपि संपूर्ण नारकियों और संपूर्ण तिर्यंचोंमें नीचगोत्रकर्मके उदयके आधारपर केवल नीचताका तथा सम्पूर्ण देवोंमें उच्चगोत्रकर्मके उदयके आधारपर केवल उच्चताका व्यवहार करना हम लोगोंके लिये अशक्य नहीं है । परन्तु उन्हीं जैन आगमग्रन्थोंमें जब संपूर्ण मनुष्योंमेंसे किन्हीं मनुष्योंके तो उच्चगोत्रकर्मका और किन्हीं मनुष्योंके नीचगोत्रकर्म का उदय होना बतलाया है तो जबतक संपूर्ण मनुष्यों में पृथक्-पृथक् यथायोग्य रूपसे विद्यमान उक्त उच्च तथा नीच दोनों ही प्रकारके गोत्रकर्मो के उदयका परिज्ञान नहीं हो जाता तबतक हम यह कैसे कह सकते हैं कि अमुक मनुष्योंमें चूँकि उच्चगोत्र - कर्मका उदय विद्यमान है इसलिए उन्हें तो उच्च कहना चाहिए और अमुक मनुष्योंमें चूँकि नीचगोत्र - कर्मका उदय विद्यमान है इसलिए उसे नीच कहना चाहिए? इसके अतिरिक्त मनुष्योंमें जब गोत्र परिवर्तनकी बात भी उन्हीं आगम-ग्रन्थोंमें स्वीकार की गयी है तो जबतक उनमें (मनुष्यों में ) यथासमय रहनेवाले उच्चगोत्र-कर्म तथा नीचगोत्र-कर्मके उदयका परिज्ञान हमें नहीं हो जाता, तबतक यह भी एक समस्या है कि एक ही मनुष्य को कब तो हमें उच्चगोत्र-कर्मके उदयके आधारपर उच्च कहना चाहिए और उसी मनुष्यको कब हमें नीचगोत्र - कर्मके उदयके आधार पर नीच कहना चाहिए ? एक बात और है । जैन संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार सातों नरकोंके सम्पूर्ण नारकियों में परस्पर तथा एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तककी सम्पूर्ण तिर्यग्जातियों और इनकी उपजातियों में रहनेवाले सम्पूर्ण तियंचोंमें परस्पर उच्चता और नीचताका कुछ न कुछ भेद पाया जानेपर भी यदि सभी नारकी, नरकगति सामान्यकी अपेक्षा और सभी तियंच, तिर्यग्गति सामान्यकी अपेक्षा नीच गोत्र-कर्मके उदयके आधारपर नीच माने जा सकते हैं तो, और इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक नामकी सम्पूर्ण देव जातियों और इनकी उपजातियोंमें रहनेवाले सम्पूर्ण देवोंमें परस्पर उच्चता और नोचताका कुछ न कुछ भेद पाया जानेपर भी यदि सभी देव देवगति सामान्यकी अपेक्षा उच्चगोत्र कर्मके उदयके आधार पर
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