Book Title: Jain Dharm me Swadhyaya ka Arth evam Sthan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 3
________________ प्रो. सागरमल जैन 39 स्वाध्याय का मूल अर्थ तो अपना अध्ययन ही है, स्वयं में झांकना है। स्वयं को जानने और पहचानने की वृत्ति के अभाव से सूत्रों या ग्रन्थों के अध्ययन का कोई भी लाभ नहीं होता है । अन्तर्चक्षु के उन्मीलन के बिना ज्ञान का प्रकाश सार्थक नहीं बन पाता है। कहा भी है सुबहुपि सुयमहीयं किं काही ? चरणविप्पहीणस्स । अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्स कोडिवि ।। अप्पंपि सुयमहीयं पयासयं होई चरणजुत्तस्स । इक्को वि जह पईवी, सचक्खुअस्स पयासेई || - आवश्यकनियुक्ति, 88-89 13 अर्थात् जैसे अंधे व्यक्ति के लिए करोड़ों दीपकों का प्रकाश भी व्यर्थ है - किन्तु आँख वाले व्यक्ति के लिए एक भी दीपक का प्रकाश सार्थक होता है। उसी प्रकार जिसके अन्तर- चक्षु खुल गये हैं, जिसकी अन्तर्यात्रा प्रारम्भ हो चुकी है, ऐसे आध्यात्मिक साधक के लिए स्वल्प अध्ययन भी लाभप्रद होता है, अन्यथा आत्म विस्मृत व्यक्ति के लिए करोड़ों पदों का ज्ञान भी निरर्थक है। स्वाध्याय में अन्तर्चक्षु का खुलना आत्म-द्रष्टा बनना, स्वयं में झांकना, पहली शर्त है, शास्त्र का पढ़ना या अध्ययन करना उसका दूसरा चरण है। 19 Jain Education International स्वाध्याय शब्द की दूसरी व्याख्या सु+आ+अघि+ ईड् - इस रूप में भी की गई है। इस दृष्टि से स्वाध्याय की परिभाषा होती है. शोभनोऽध्यायः स्वाध्यायः अर्थात् सत्-साहित्य का अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। स्वाध्याय की इन दोनों परिभाषाओं के आधार पर एक बात जो उभर कर सामने आती है वह यह कि सभी प्रकार का पठन-पाठन स्वाध्याय नहीं है। आत्म-विशुद्धि के लिए किया गया अपनी स्वकीय वृत्तियों, भावनाओं व वासनाओं अथवा विचारों का अध्ययन या निरीक्षण तथा ऐसे सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन, जो हमारी चैत्तसिक विकृतियों के समझने और उन्हें दूर करने में सहायक हों, ही स्वाध्याय के अन्तर्गत आता है। विषय-वासना वर्द्धक, भोगाकांक्षाओं को उदीप्त करने वाले, चित्त को विचलित करने वाले और आध्यात्मिक शांति और समता को भंग करने वाले साहित्य का अध्ययन स्वाध्याय की कोटि में नहीं आता है। उन्हीं ग्रन्थों का अध्ययन ही स्वाध्याय की कोटि में आता है जिससे चित्त वृत्तियों की चंचलता कम होती हो, मन प्रशान्त होता हो और जीवन में संतोष की वृत्ति विकसित होती हो । —— स्वाध्याय का स्वरूप स्वाध्याय के अन्तर्गत कौन सी प्रवृत्तियां आती हैं, इसका विश्लेषण जैन परम्परा में विस्तार से किया गया है। स्वाध्याय के पाँच अंग माने गए हैं 1. वाचना 2. प्रतिपृच्छना 3. परावर्तना 4. अनुप्रेक्षा और 5 धर्मकथा । —— 1. गुरु के सानिध्य में सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना वाचना है। वर्तमान सन्दर्भ में हम किसी सद्ग्रन्थ के पठन-पाठन एवं अध्ययन को वाचना के अर्थ में ग्रहीत कर सकते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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