Book Title: Jain Dharm me Swadhyaya ka Arth evam Sthan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 2
________________ यह कहा गया है कि "नवि अत्थि न वि अ होही, सज्झाय समं त्यो कम्मं" अर्थात् स्वाध्याय के समान दूसरा तप न अतीत में कोई था, न वर्तमान में कोई है और न भविष्य में कोई होगा। इस प्रकार जैन परम्परा में स्वाध्याय को आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में विशेष महत्त्व दिया गया है । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि स्वाध्याय से ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है, जिससे समस्त दुःखों का क्षय हो जाता है। वस्तुतः स्वाध्याय ज्ञान प्राप्ति का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। कहा भी है. 38 नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाण- मोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स व संखरणं, एगन्तसोक्खं समुवेई मोक्खं ।। तस्सेस मग्गो गुरु-विद्धसेवा, वज्जणा बालजणस्स दूरा। सज्झाय- एगन्तनिसेवणा य, सुत्तत्यसंचिन्तणया घिई य ।। जैनधर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्थान स्वाध्याय शब्द का सामान्य अर्थ है की व्याख्या दो प्रकार से की गयी है। 11 Jain Education International अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार से, राग-द्वेष के पूर्ण क्षय से जीव एकान्त सुख-रूप मोक्ष को प्राप्त करता है। गुरुजनों की और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के सम्पर्क से दूर रहना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना, स्वाध्याय करना और धैर्य रखना • यही दुःखों से मुक्ति का उपाय है। स्वाध्याय का अर्थ -- - - स्व का अध्ययन । वाचस्पत्यम् में स्वाध्याय शब्द 1. स्व + अधि + ईण् जिसका तात्पर्य है कि स्व का अध्ययन करना, दूसरे शब्दों में स्वाध्याय आत्मानुभूति है, अपने अन्दर झांक कर अपने आप को देखना है । वह स्वयं अपना अध्ययन है। मेरी दृष्टि में अपने विचारों, वासनाओं व अनुभूतियों को जानने व समझने का प्रयत्न ही स्वाध्याय है। वस्तुतः वह अपनी आत्मा का अध्ययन ही है। आत्मा के दर्पण में अपने को देखना है। जब तक स्व का अध्ययन नहीं होगा, व्यक्ति अपनी वासनाओं एवं विकारों का द्रष्टा नहीं बनेगा तब तक वह उन्हें दूर करने का प्रयत्न नहीं करेगा और जब तक वे दूर नहीं होंगे, तब तक आध्यात्मिक पवित्रता या आत्म-1 - विशुद्धि संभव नहीं होगी और आत्म-विशुद्धि के बिना मुक्ति असम्भव है। यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि जो गृहिणी अपने घर की गंदगी को देख पाती है, वह उसे दूर कर घर को स्वच्छ भी रख सकती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी मनोदैहिक विकृतियों को जान लेता है। और उनके कारणों का निदान कर लेता है, वही सुयोग्य वैद्य के परामर्श से उनकी योग्य चिकित्सा करके अन्त में स्वास्थ्य लाभ करता है। यही बात हमारी आध्यात्मिक विकृतियों को दूर करने की प्रक्रिया में भी लागू होती है। जो व्यक्ति स्वयं अपने अन्दर झांककर अपनी चैतसिक विकृतियों अर्थात् कषायों को जान लेता है, वही योग्य गुरु के सानिध्य में उनका निराकरण करके आध्यात्मिक विशुद्धता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार स्वाध्याय अर्थात् स्व का अध्ययन आत्म-विशुद्धि की एक अनुपम साधना सिद्ध होती है। हमें स्मरण रखना होगा उत्तराध्ययनसूत्र, 32/2-3 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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