Book Title: Jain Dharm me Swadhyaya ka Arth evam Sthan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf View full book textPage 1
________________ जैनधर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्थान जैन साधना का लक्ष्य समभाव (सामायिक) की उपलब्धि है और समभाव की उपलब्धि हेतु स्वाध्याय और सत्साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। सत् साहित्य का स्वाध्याय मनुष्य का एक ऐसा मित्र है, जो अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों स्थितियों में उसका साथ निभाता है और उसका मार्ग-दर्शन कर उसके मानसिक विक्षोभों एवं तनावों को समाप्त करता है। ऐसे साहित्य के स्वाध्याय से व्यक्ति को सदैव ही आत्मतोष और आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होती है, मानसिक तनावों से मुक्ति मिलती है। यह मानसिक शांति का अमोघ उपाय है। स्वाध्याय का महत्त्व सत् - साहित्य स्वाध्याय का महत्त्व अति प्राचीन काल से ही स्वीकृत रहा है। औपनिषदिक चिन्तन में जब शिष्य अपनी शिक्षा पूर्ण करके गुरु के आश्रम से बिदाई लेता, तो उसे दी जाने वाली अन्तिम शिक्षाओं में एक शिक्षा होती थी स्वाध्यायान् मा प्रमदः अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद मत करना | स्वाध्याय एक ऐसी वस्तु है जो गुरु की अनुपस्थिति में भी गुरु का कार्य करती थी । स्वाध्याय से हम कोई-न-कोई मार्ग दर्शन प्राप्त कर ही लेते हैं। महात्मा गांधी कहा करते थे कि "जब भी मैं किसी कठिनाई में होता हूँ, मेरे सामने कोई जटिल समस्या होती है, जिसका निदान मुझे स्पष्ट रूप से प्रतीत नहीं होता है। मैं गीता-माता की गोद में चला जाता हूँ, वहाँ मुझे कोई-न-कोई समाधान अवश्य मिल जाता है।" यह सत्य है कि व्यक्ति कितने ही तनाव में क्यों न हो, अगर वह ईमानदारी से सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करता है तो उसे उनमें अपनी पीड़ा से मुक्ति का मार्ग अवश्य ही दिखायी देता है। -- - प्रो. सागरमल जैन ―― जैन परम्परा में जिसे मुक्ति कहा गया है, वह वस्तुतः राग-द्वेष से मुक्ति है, मानसिक तनावों से मुक्ति है और ऐसी मुक्ति के लिए पूर्व कर्म संस्कारों का निर्जरण या क्षय आवश्यक माना गया है। निर्जरा का अर्थ है - मानसिक ग्रन्थियों को जर्जरित करना अर्थात् मन की राग-द्वेष, अहंकार आदि की गांठों को खोलना। इसे ग्रन्थि-भेद करना भी कहते हैं। निर्जरा एक साधना है। वस्तुतः वह तप की ही साधना है। जैन परम्परा में तप साधना के जो 12 भेद माने गए हैं, उनमें स्वाध्याय की गणना आन्तरिक तप के अन्तर्गत होती है। इस प्रकार स्वाध्याय मुक्ति का मार्ग है। जैन साधना का एक आवश्यक अंग है । Jain Education International उत्तराध्ययन सूत्र में स्वाध्याय को आन्तरिक तप का एक प्रकार बताते हुए उसके पाँचों अंगों एवं उनकी उपलब्धियों की विस्तार से चर्चा की गई है। बृहत्कल्पभाष्य में स्पष्ट रूप से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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