Book Title: Jain Dharm me Amurtipujak Sampradayo ka Udbhav evam Itihas
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 3
________________ प्रो. नरेन्द्र भानावत प्रभवस्वामी, आचार्य शय्यंभव, आचार्य यशोभद्र, आचार्य संभूतिविजय और आचार्य भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हुए। उसके बाद वीरनिर्वाण सं.. 170 से 584 (414 वर्ष) का काल 10 पूर्वधर काल कहलाता है। इस काल में आचार्य स्थूलभद्र, आचार्य महागिरि, आचार्य सुहस्ती जैसे साचार्य हुए। वीरनिर्वाण सं. 584-1000 तक (416 वर्ष) का काल सामान्य पूर्वधर काल है। इस काल में आर्यरक्षित, आचार्य वजसेन, आचार्य नागार्जुन, आचार्य भूतदिन्न, आचार्य देवर्धिक्षमाश्रमण जैसे महान् आचार्य हुए। इस युग तक आते-आते स्मृति दोष के कारण श्रुत परम्परा से चले आये आगम पाठों में मतभेद हो गया। आचार्य देवर्धिक्षमाश्रमण की अध्यक्षता में श्रमण संघ की एक समिति वलभी (गुजरात) में हुई और स्मृति के आधार पर जैन आगम लिपिबद्ध किये गये। वर्तमान में जो जैन आगम प्रचलित हैं, वे इसी समिति की देन है। पारम्परिक दृष्टि से यह माना जाता है कि महावीर के निर्वाण के लगभग 609 वर्षों के बाद जैनधर्म दो भागों में विभाजित हो गया -- दिगम्बर और श्वेताम्बर ! जो मत साधुओं की नग्नता का पक्षधर था, वह दिगम्बर कहलाया अर्थात् दिशायें ही जिनके वस्त्र है। जो मत साधुओं के वस्त्र-पात्र आदि का समर्थक रहा, वह श्वेताम्बर कहलाया अर्थात् श्वेत हैं वस्त्र जिनके। आगे जाकर दिगम्बर मत कई संघों में बँट गया। इनमें मुख्य हैं -- द्राविड़संघ, काष्टासंघ और माथुरसंघ। श्वेताम्बर संघ भी दो भागों में बँट गया -- चैत्यवासी और वनवासी। कालप्रवाह के साथ भगवान महावीर ने जिस शुद्ध आत्मिक क्रांतिमूलक धर्म साधना का मार्ग प्रस्तुत किया, उसमें शुद्धता का भाव गौण होता चला गया और देवर्वाद, मूर्तिवाद तथा उससे उत्पन्न विकृतियाँ घर करती गयीं। इन विकृतियों के कई ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक और नैतिक कारण है। ऐतिहासिक कारणों से दक्षिण भारत में पनपने वाला शैवमत, लिंगायत सम्प्रदाय तथा शंकराचार्य का अद्वैतवाद प्रमुख हैं। व्यापक स्तर पर जैनधर्म और उसके अनुयायियों के खिलाफ विद्रोह का वातावरण बना और इस संघर्ष ने सामूहिक हिंसा तक का स्प ले लिया। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जैन आचार्यों ने हिन्दू धर्म की पूजा-पद्धति, क्रियाकाण्ड और संस्कार विधि को अपना लिया। यहाँ तक कि जनेऊ भी धारण कर ली। भगवान् बुद्ध के मध्यम मार्ग को अपना कर जैनधर्म की कठोर तपश्चर्या विधि का भी सरलीकरण किया गया। इसके फलस्वरूप भी आचार-विचार में शिथिलता आयी। बौद्धधर्म की महायानशाखा में मूर्तिपूजा को स्थान मिला। धीरे-धीरे स्तुति, स्तवन एवं प्रेरणास्प भक्ति ने मूर्तिपूजा का स्थान लिया और कालान्तर में मूर्तिपूजा गुणानुराग भक्ति का प्रेरणा स्पन रह कर द्रव्य पूजा और तज्जन्य आडम्बरों, प्रदर्शनों में उलझकर रह गयी। साधु और श्रावक के लिए आगम ग्रन्थों में जो षट्कर्म संकेतित है। वे हैं-- सामायिक चौबीस स्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। ये षट्कर्म-षडावश्यक कहे गये हैं। इनका मुख्य उद्देश्य पर-पदार्थों से हट कर अन्तर्मुखी होना है। इनमें वीतराग प्रभु की स्तुति और स्तवन का उल्लेख है। मूर्ति प्रतिष्ठा और मूर्तिपूजा का संकेत नहीं है। उपासकदशांग, भगवतीसूत्र, आचारांग, सूत्रकृतांग, ज्ञाताधर्मकथा, समवायांग, ठाणांग आदि आगम ग्रन्थों में जहाँ श्रावकाचार का वर्णन आया है, वहाँ कहीं भी मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं है। चैत्य और यक्षायतन का जहाँ उल्लेख है उसका अर्थ जिन-मूर्तिप्रतिष्ठित मन्दिरों से नहीं है। साधुओं के लिए तो आज भी व्यापक रूप में मन्दिर निर्माण और मूर्तिपूजा का प्रचलन होने पर भी मूर्तिपूजन व्यवहार में नहीं है। 3. मूर्तिपूजा के नाम पर विकृतियाँ जब जैनधर्म अपने आत्म केन्द्र से हट कर परिधि की ओर मुड़ा तो उसमें नाना प्रकार की विकृतियाँ घर कर गयीं। यही नहीं मूल आगम ग्रन्थों की नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टीका, वनिका आदि स्प में जो व्याख्यायें प्रस्तुत की गयीं, उस साहित्य में आचार्यों और भाष्यकारों ने विभिन्न कथाओं, घटनाओं और चरित्र का इस प्रकार विवेचन-विश्लेषण किया, जिनसे जिन-मन्दिर निर्माण, मूर्तिपूजा और विभिन्न प्रतिष्ठा समारोह की पुष्टि होती है। यह लेखन परवर्ती द्रव्य पूजा के प्रभाव का परिणाम लगता है। नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसरि बरा रचित "आगम अट्ठोतरी" की निम्नलिखित गाथा इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है -- 143 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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