Book Title: Jain Dharm me Amurtipujak Sampradayo ka Udbhav evam Itihas
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 8
________________ जैनधर्म में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का उद्भव एवं इतिहास पूछने पर यह भी ज्ञात हुआ कि स्वामीजी की इस विचारधारा का समर्थन करने वाले 13 साधु है। इस पर उस समय सिंघीजी के साथ सेक्क जाति का एक कवि भी था। उसने 13 की संख्या के आधार पर स्वामीजी के संघ को "तेरापंथी" नाम से संबोधित करते हुए निम्न दोहा कहा -- "साध साधको गिलो करै, ते आप आपरो मंत। सुणज्यो रे शहर रा लोकां, ए तेरापंथी संत।। जब यह घटना सन्त भीखणजी के पास पहुंची तो उन्होंने तेरापंथी शब्द को नया अर्थ देते हुए कहा-- हे प्रभु ! यह तेरा (तुम्हारा) पंथ है। हम सब निभ्रान्त होकर इस पर चलने वाले हैं। अतः तेरापंथी हैं। तेरह संख्या का औचित्य प्रकट करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति, इस तरह तेरह नियमों की पूर्णरूप से श्रद्धा तथा पालन करने वाले व्यक्ति तेरह-पंथी हैं। सन्त भीखणजी ने स्थानकवासी सम्प्रदाय की तरह ही मूर्तिपूजा का विरोध किया, पर दया, दान सम्बन्धी जो प्रवृत्ति स्थानकवासी समाज में प्रचलित थी, उसका उन्होंने आत्मधर्म के रूप में समर्थन नहीं किया और इससे होने वाले पुण्य को लौकिक धर्म कहा। उन्होंने अहिंसा के नकारात्मक पक्ष अर्थात "मत मारो" पर विशेष बल दिया। मरते हुए को बचाओ, जीवों की रक्षा करो, इसे उन्होंने मोक्ष का कारण नहीं माना। अपने धर्म के प्रचार में इन्हें कई प्रकार के विरोधों का सामना करना पड़ा। मारवाड़, मेवाड़ तथा कच्छ इनका धर्म प्रचार का क्षेत्र रहा। कच्छ प्रदेश में ये स्वयं न जा सके पर इनके श्रावक टीकम डोसी ने इनके मत का प्रचार किया। भीखणजी ने अपने जीवनकाल में 49 साधओं और 56 साध्वियों को दीक्षित किया। जैन तत्त्व की इन्होंने काव्यमय अभिव्यक्ति की। इनकी शताधिक रचनाओं का संकलन 'भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर' में दो भागों में हुआ है। इनकी कविता में दार्शनिकता और लोकतत्त्वों का अनूठा संगम है। इनका निधन सं. 1860 में माघ सुदी तेरस को हुआ। इनके बाद इस पन्थ में जो आचार्य हुए वे हैं -- आचार्य भारमलजी, आचार्य रायचन्दजी, आचार्य जीतमलजी (जयाचार्य), आचार्य मधवागणी, आचार्य मणिकगणी, आचार्य डालगणी, आचार्य कालगणी और आचार्य तुलसी। आचार्य तलुसी ने इस पंथ में कई नये आयाम जोड़े और कई क्रांतिकारी परिवर्तन किये -- आचार-विचार दोनों स्तरों पर। आचार्य तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन के रूप में नैतिक उत्थान और चरित्र निर्माण के उद्देश्य से राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया और जैनधर्म को केवल जैनकुल में जन्मे लोगों तक सीमित न रखकर उसे राष्ट्रव्यापी बनाया। रामाज के विभिन्न वर्गों में सद-संस्कार जागत हों, इसके लिए अणुव्रत के रूप में छोटे-छोटे व्यावहारिक नियम प्रस्तुत किये। विगत वर्षों में तनांव-मुक्ति, मानसिक स्वास्थ्य और जीवन में आन्तरिक रूपान्तरण के लिए प्रेक्षाध्यान के कई नये प्रयोग किये हैं। वर्तमान शिक्षा पद्धति केवल जीव-विज्ञान बनकर न रहे, वह जीवन-विज्ञान बने, इस दृष्टि से शिक्षा को साधना, अहिंसा, ध्यान और सेवा से संयुक्त करने के लिए लाडन में "जैन विश्व भारती" की स्थापना की है। 3. तारणपंथ जैन श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवासी यति परम्परा के समानान्तर जैन दिगम्बर परम्परा में भट्टारक सम्प्रदाय द्वारा धर्म-प्रचार, साहित्य-निर्माण एवं साहित्य-संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया गया, पर धर्म का जो अहिंसा, संयम और तपनिष्ठ रूप था, उसमें विकृति आई और भक्ति के नाम पर प्रदर्शन व आडम्बर बढ़ा। भट्टारक वैभवशाली सामन्त से बन गये और लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति मठ-मन्दिरों में इकट्ठी हो गई। आन्तरिक पवित्रता और सदाचरण का स्थान मन्दिर निर्माण, प्रतिष्ठा-समारोह और द्रव्य पूजा ने ले लिया। पंच कल्याणकों के बड़े-बड़े आयोजन आन्तरिक शुद्धि की बजाय लोक-प्रतिष्ठा के माध्यम बन गये। हवन, जंत्र-मंत्र, टोने-टोटकों में ही धर्माचार उलझकर रह गया। भक्ति के केन्द्र में धर्माचरण नहीं, धन प्रमुख बन गया। इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। श्वेताम्बर परम्परा में जिस प्रकार लोकाशाह ने मूर्तिपूजा का विरोध किया, उसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में तारण स्वामी ने मूर्तिपूजा का विरोध किया। इन्हीं के द्वारा तारणपन्थ का प्रवर्तन 148 हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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