Book Title: Jain Dharm Sarvodaya tirth Hai
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 1
________________ जैनधर्म सर्वोदयतीर्थ है 82363 38800388% • डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' 888888800300308388% धर्म और उसकी आवश्यकता क्यों? - धर्म जीवन है और जीवन धर्म है। जीवन पवित्रता का प्रतीक है। उसकी पवित्रता संसार के राग-रंगों से दूषित हो गई है। इसलिये उस दूषण को दूर करने के लिए तथा जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए धर्म का अवलम्बन लिया जाता है। यह अवलम्बन साधन है। साध्य और साधन की पवित्रता धर्म की अन्तश्चेतना है। अन्तश्चेतना विवेक का जागरण करती है और जागरण से व्यक्ति नई सांस लेता है। नई प्रतिध्वनि से उसका हृदय गूंज उठता है। गंभीरता, उदारता, दयालुता, सरलता, निरहंकारिता आदि जैसे मानवीय गुण उसमें स्वतः स्फुरित होने लगते हैं। जीवन अमृत-सरिता में डुबकी लेने लगता है। देश, काल, स्थान आदि की सीमाएं समाप्त हो जाती है और विश्वबन्धुत्व तथा सर्वोदय की भावना का उदय हो जाता है। मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा हो जाती है। जैनधर्म इस दृष्टि से वस्तुतः जीवनधर्म है। मानव धर्म है। वह जीवन को सही ढंग से जीना सिखाता है, जात-पांत के भेदभाव के ऊपर उठकर अपने सहज स्वभाव को पहिचान करने का मूलमन्त्र देता है, श्रमशीलता का आव्हानकर पुरुषार्थ को जाग्रत करता है, विवाद के घेरों में न पड़कर सीधा-सादा मार्ग दिखाता है, संकुचित और पतित आत्मा को ऊपर उठाकर विशालता की ओर ले जाता है, सद्वृत्तियों के विकास से चेतना का विकास करता है, और आत्मा को पवित्र, निष्कलंक व उन्नत बनाता है। यही उसकी .. विशेषता है यही जैनधर्म है और यही सर्वोदयतीर्थ है। कटघरों को तैयार करनेवाला धर्म, धर्म नहीं हो सकता। भेदभाव की कठोर दीवाल खड़ीकर खेत उगाने की बात करनेवाला संकीर्णता के विष से वाधित हो जाता है, तुरन्त फल का लोभ दिखाकर जनमानस को शंकित और उद्विग्न कर देता है. दसरों को दःखी बनाकर अपने क्षणिक सख की कल्पनाकर आल्हादित होता है, विसंगतियों के बीज बोकर समाज के गर्त में ढकेल देता है, बिखराव खड़ाकर साम्प्रदायिकता की भीषण आग जला देता है और सारी सामाजिक व्यवस्था को चकनाचूर कर नया बखेड़ा शुरू कर देता है। इन काले कारनामों से धर्म की आत्मा समाप्त हो जाती है। धर्म का मौलिक स्वरूप नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है और बच जाता है उसका मात्र कंकाल जो किसी काम का नहीं रहता। जैनधर्म व्यक्ति और समाज को धर्म की इस कंकाल मात्रता से ऊपर उठाकर ही बात करता है। उसका मुख्य उद्देश्य जीवन के यथार्थ स्वरूप को उद्घाटित कर नूतन पथ का निर्माण करना रहा है। वहीं धारण करनेवाला तत्व है जिसका अस्तित्व धर्म के अस्तित्व से जुड़ा है और जिसके दूर जाने से मानवता का सूत्र भी कट जाता है। मानव-मानव के बीच कटाव के तत्वों को समाप्त कर सर्वोदय के मार्ग को प्रशस्त करना धर्म की मूल भावना है। व्यक्ति और समाज के उत्थान की भूमिका में धर्म नींव का पत्थर होता है। (१९७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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