Book Title: Jain Dharm Sarvodaya tirth Hai Author(s): Bhagchandra Jain Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 9
________________ भववीजांङ्कुरजनना, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै” अनेकान्तवाद और सर्वोदय दर्शन समाज के लिए वस्तुतः एक संजीवनी है। वर्तमान संघर्ष के युग अपने आपको सभी के साथ मिलने जुलने का एक अभेध अनुदान है, प्रगति का एक नया साधन है, पारिवारिक द्वेष को समाप्त करने का एक अनुपम चिंतन है, अहिंसा और सत्य की प्रतिष्ठा का केन्द्रबिन्दु है, मानवता की स्थापना में नींव का पत्थर है, पारस्परिक समझ और सह अस्तित्व के क्षेत्र में एक सबल लेंप पोस्ट है। इनकी उपेक्षा विद्वेष और कटुता का आवाहन है, संघर्षों की कक्षाओं का प्लाट है, विनाश उसका क्लायमेक्स है, विचारों और दृष्टियों की टकराहट तथा व्यक्ति-व्यक्ति के बीच खड़ा हुआ एकलंबा गेप वैयक्तिक और सामाजिक संघर्षों की लांधकर राष्ट्र और विश्वस्तर तक पहुंच जाता है। हर संघर्ष का जन्म विचारों का मतभेद और उसकी पारस्परिक अवमानना से होता है। बुद्धिवाद उसका केन्द्रबिन्दु है। अनेकान्तवाद बुद्धिवादी होने का आग्रह नहीं करता । आग्रह से तो वह मुक्त है ही पर वह इतना अवश्य कहता है कि बुद्धिनिष्ठ बनें। बुद्धिवाद खतरावाद है, विद्वानों की उखाड़ा पछाड़ी है। पर बुद्धिनिष्ठ होना खतरा और संघर्षों से मुक्त होने का साधन है। यही सर्वोदयवाद है। इसे हम मानवतावाद भी कह सकते हैं जिसमें अहिंसा, सत्य, सहिष्णुता, समन्वयात्मकता, सामाजिकता, सहयोग, सद्भाव और संयम जैसे आत्मिक गुणों का विकास सन्नध्द है । सामाजिक और राष्ट्रीय उत्थान भी इसकी सीमा से बहिर्भूत नहीं रखे जा सकते। व्यक्तिगत, परिवारगत, संस्थागत और सम्प्रदायगत विद्वेष की विषैली आग का शमन भी इसी के माध्यम से होना संभव है। अतः सामाजिकता के मानदण्ड में अनेकान्तवाद और सर्वोदयवाद खरे उतरे हैं । ४. एकात्मकता सर्वोदय के साथ एकात्मकता अविछिन्न रूप से जुड़ी हुई है। राष्ट्र का अस्तित्व एकात्मकता की श्रृंखला से संबद्ध है। राष्ट्रीयता का जागरण उसके विकास का प्राथमिक चरण है। जन - मन में शान्ति, सह अस्तित्व और अहिंसात्मकता उसका चरम बिन्दु है। विविधता में पत्ली - पुसी एकता सौजन्य और सौहार्द्र को जन्म देती हुई “परस्परोपग्रहो जीवानाम्” का पाठ पढ़ाती है । भ्रमण व्यवस्था ने उस एकात्मकता को अच्छी तरह परखा भी और संजोया भी अपने विचारों में उसे जैनाचार्यों और तीर्थंकरों ने समता, पुरुषार्थ और स्वावलम्बन को प्रमुखता देकर जीवन को एक नया आयाम दिया। श्रमण संस्कृति ने वैदिक संस्कृति में धोखे धोखे से आयी विकृत परंपराओं के विरोध में जेहाद बोल दिया और देखते ही देखते समाज का पुनः स्थितिकरण कर दिया। यद्यपि उसे इस परिवर्तन में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा पर अन्ततोगत्वा उसने एक नये समाज का निर्माण कर दिया। इस समाज की मूल निधि चारित्रिक पवित्रता और दृढ़ता थी जिसे उसने थाती मानकर कठोर झंझावातों में भी अपने आपको संभाले रखा। भावात्मक एकता के संदर्भ में जैन संस्कृति ने लोकभाषाओं का उपयोग कर जो अनूठा कार्य किया है वह अपने आप में बेमिसाल है। संस्कृति एक वर्ग विशेष की भाषा बनकर रह गयी थी जो सर्वसाधारण परे थी। जैनाचार्यों ने उसे तो अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाया ही पर साथ ही प्राकृत बोलियों का भी भरपुर उपयोग कर साहित्य सृजन किया। ये प्राकृत बोलियाँ वही हैं जिन्होंने भारत की समाज Jain Education. International (१२५) For Private & Personal Use Only" www.jainelibrary.orgPage Navigation
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