Book Title: Jain Dharm Prakash 1952 Pustak 068 Ank 10 Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha View full book textPage 4
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 30 * मोक्ष www.kobatirth.org जीवराज - श्रद्धाञ्जली. जहां जीवका साम्राज्य है, नहीं देहका अनुराग है । जीवराज है ॥ १ ॥ ध्येय है । हैनी निर्ममत्व उनका नाम ही जीवका ही राज पाना, मानवों का देहमें सर्वस्त्र समझना, इसमें नहीं कुछ श्रेय है ॥ २ ॥ हंस करता निज चांचसे, पयसे पृथक् वह नीर है । लखते थे बस जीवराज ऐसे, आत्म और शरीर है ॥ ३ ॥ एकान्त में नित शान्त रहते, जैसे कमल वह पंकसे । अलिप्त थे । निष्णात थे ॥ ५ ॥ रहते थे बस जीवराज ऐसे, इसमें नहीं संदेह है ॥ ४ ॥ ग्रेजुएट होते हुवे भी, भौतिक वादसे तो थे सत्यशोधक तत्त्वगवेषक, न्याय में अनेकान्त से सब धर्मका, करते समन्वय सत्य श्रद्धालु अध्यात्मवादी ही कहाते जिन आगमों को कर हृदयंगम, लिखते लेख आप थे । जैन फिलॉसॉफी के प्रचारका, ही ध्येय रखते आप थे ! ७ ॥ पूज्य कुंवरजी के हरकार्य की, करते सराहना आप थे । आदर्श सन्मुख रख सभा का कार्य करते आप थे ॥ ८ ॥ पूर्ण अनुभव न्यायका कर, कहलाते न्यायाधीश थे । थे सत्यप्रेमी धर्मप्रेमी और इन पंक्ति के लेखक को भी, न्याय के अखिलेश थे ॥ ९ ॥ अनुभव हुवा है आपसे । यह राज - गुण जीवराज - श्रद्धाञ्जली करता समर्पित आप से ||१०|| राजमल भण्डारी - आगर. 30 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only आप थे । आप थे ॥ ६ ॥ ல் ©Page Navigation
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