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શ્રી જૈન ધર્મ પ્રકાશ
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सम्राट अकबर से जैन विद्वानों का घनिष्ट सम्बंध इतिहासप्रसिद्ध है। इस सम्बन्ध का प्रारंभ नागपुरीय तपागच्छ के पद्मसुन्दरजी के गुरु का बाबर से होता है पर जैनसमाज को इस से विशेष लाभ हीरविजयसूरिजी एवं जिनचन्द्रसूरिजी आदि के मिलने से होते है। तपागच्छीय उपाध्याय भानुचन्द्र के शिष्य सिद्धिचन्द्र का पारसी भाषा पर अच्छा अधिकार होने का उल्लेख "सूरीश्वर
और सम्राट् ” में पाया जाता है'। खरतरगच्छ के कविवर समयसुंदरजी एवं अयसोमजी का फारसी भाषा पर अधिकार उनकी रचनाओं से स्पष्ट है । जयसोमजीरचित फुट कर पद्यों में से २ पद्य फारसी भाषा के उपलब्ध है। कविवर समयसुन्दरजी के प्रशिष्य राजसोमजीरचित " पार्श्वजिनस्तवन ” को हमने कई वर्ष पूर्व “जैनज्योति” वर्ष २, अंक ७ में प्रकाशित किया था। जैसलमेर भंडार का अवलोकन करते हुए पारसी भाषा के ३-४ स्तवन और भी उपलब्ध हुए हैं जिन में से आदिनाथ स्तवन गा. २० ( अन्य प्रतियों में २ पद्य अधिक है) महिमासमुद्र (बेगड़ खरतर गच्छाचार्य जिनसमुद्रसूरि ) रचित है। एक अन्य स्तवन अपूर्ण प्राप्त है, यह भी संभवतः इन्हीके रचित है। गौड़ी पार्श्वनाथ के ३ स्तवन गा. ५-५-२ के प्राप्त हैं जिनमें से १ अर्थसह उपलब्ध है और वह किसी मोहन नामक यति का रचित है। मुनियों के अतिरिक्त श्रावक मूलकचन्दने तिव्वसहाणी नामक वैदक विषयक फारसी ग्रन्थ का हिन्दी में पद्यानुबाद “वैद्यहुलास" के नाम से किया हुआ मिलता है।
जैन भंडारों का अवलोकन करते हुए मुझे कई फारसी के ग्रन्थों की प्रतिलिपियें प्राप्त हुई हैं एवं कई पत्रों में फारसी शब्दों पर अपनी भाषा में टिप्पनी लिखी हुइ प्रतियें मिली है अत एव और भी कई जैन विद्वानों ने फारसी भाषा को सीखने एवं पढ़ने का प्रयत्न किया है, सिद्ध होता हैं। मेरे संग्रह में खालकबारी नाममाला की प्रति जैन यति की लिखित उपलब्ध है अतः उनकी और भी रचनायें मिलना संभव हैं । जैनविद्वानों का फारसी का अध्ययन स्वार्थप्रेरित नहीं पर उदारतासूचक है।
१-जैनज्योति वर्ष ३, अं. ११, पृ. ४०५ में साराभाइ का “फारसी भाषानुं जिनस्तवन" शीर्षक लेख छपा है। मेरे पास उक्त अंक न होने के कारण यह स्तवन किस के रचित है, अज्ञात है । साराभाइ को पूछा गया पर उत्तर नहीं मिला।