Book Title: Jain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Vichakshan Smruti Prakashan

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Page 12
________________ मंगलमुखी नहीं बनता। सम्यक्त्व की पकड़ पाकर ही ज्ञान चारित्र में पकता और प्रज्ञा में ढलता है । आज इस बात की बड़ी आवश्यक्ता है कि ज्ञान चित्तवृत्ति की निर्मलता का वाहक बने । सम्यक्त्व के बिना न ज्ञान पारदर्शी बन पाता है और न चारित्र सामर्थ्यवान । . __. विदुषी साध्वी श्री ने सम्यक्त्व जैसे दार्शनिक गूढ विषय को अपने गहन अध्ययन, चिन्तन, सम्यविवेचन-विश्लेषण और अन्तरभेदिनी दृष्टि से सहज-सरल बनाकर प्रस्तुत किया है। जैन परम्परा के श्वेताम्बर. और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में मान्य प्रमुख आगम ग्रन्थों का दोहन कर, लेखिका ने सम्यक्त्व का अर्थ, स्वरूप, लक्षण, अंग, भेद-प्रभेद आदि का न केवल विवेचन किया है, वरन् सम्यक्त्व की मूल-धारणा का समीक्षात्मक ऐतिहासिक विकास भी. रेखांकित किया है। जैन दर्शन के अतिरिक्त बौद्ध, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक एवं वेदांत दर्शन में अभिव्यक्त सम्यक्त्व की अवधारणा पर भी युक्ति-युक्त तुलनात्मक प्रकाश डाला है। दर्शन के अतिरिक्त महाभारत, गीता और श्रीमद् भागवत् जैसे धार्मिक ग्रन्थों एवं ईसाई व इस्लाम धर्मों में अवतरित सम्यक्त्व के समानान्तर भाव-धारा का भी साध्वी श्री ने परीक्षण किया है। साध्वी श्री का यह अध्ययन आत्म-दर्शन और अध्यात्म-साधना की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही, जीवन-व्यवहार में अहिंसा, संयम और तप रूप आस्था-मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने की दृष्टि से भी प्रेरक और सम्बोधक है। विशाल जैन आगम, आगमेतर और जैनेतर साहित्य का तटस्थतापूर्वक दोहन कर, अपनी विलक्षण प्रतिभा और मेघा से उसका मन्थन कर, जो विचार-रत्न साध्वी श्री ने प्रस्तुत किये हैं, निश्चय ही उनसे जड़ता के प्रति मोह भंग होगा और विशुद्ध चेतना के प्रति जन-मन सजग होगा। १ जनवरी १९८८ . डॉ. नरेन्द्र भानावत-जयपुर

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