Book Title: Jain Darshan me Paryavaran Samrakshan Author(s): Kanhaiyalal Lodha Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 8
________________ महा -यतीन्द्रसूरि माय आधुनिक सन्दर्भ में मर्म - रहा है। उन वस्तुओं के लाभकारी गुण या तत्त्व तो नष्ट हो ही करता है, वह भी दूषण है। गृहस्थ-जीवन की सुंदरता व सार्थकता ते हैं साथ ही वे स्वास्थ्य तथा आर्थिक दृष्टि से भी हानिकारक अपनी न्यायपूर्वक उपार्जित सामग्री से बालक, वृद्ध, रोगी, सेवक, होती हैं। अतः वे अनर्थदण्ड रूप ही हैं। यही नहीं तली हुई संत-महात्मा आदि उन लोगों की सेवा करने में है जो उपार्जन चटपटी मिर्च, मसालेदार वस्तुओं को भी अनर्थदण्ड के रूप में करने में असमर्थ हैं। लिया जा सकता है, क्योंकि ये शरीर के लिए हानिकारक होती जैन-धर्म में तप का बड़ा महत्त्व है। तप में (१) अनशन हैं, पाचनशक्ति बिगड़ती है। आस्ट्रेलिया, यूरोप आदि देशों के (२) अनादरी भूख से कम खाना (३) आयंबिल रस का विकसित नागरिक स्वास्थ्य के लिए ऐसी तली हुई मिर्च मसालेदार - परित्याग आदि है। ये सभी तप भोजन से होने वाले प्रदूषणों को हानिकारक वस्तुओं का उपयोग व उपभोग प्रायः नहीं करते हैं। दर करते हैं। उदर को अतिभोजन तथा गरिष्ठ भोजन के पचने में सिंथेटिक वस्त्र भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इसलिए अब कठिनाई होती है। जिससे पाचन-शक्ति कमजोर हो जाती है विदेशों में पुन: सूती वस्त्रों को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है, तथा पेट में सडाँध पैदा हो जाती है जो गैस बनाती है जिससे जिससे इसकी मांग बढ़ी है। यदि अनर्थदण्ड विरमण व्रत का अनेक रोग पैदा होते हैं। कहा जाता है कि सभी रोगों की जड पालन किया जाए तो इन सब प्रदूषणों से बचा जा सकता है। उदर-विकार है, पेट की खराबी है। यह पेट की खराबी तथा (९) सामायिक (१०) देशावकासिक (११) पौषध व्रत इससे संबंधित अगणित रोग, उपवास, उणोदरी तथा आयंबिल ये तीनों व्रत मानसिक एवं आत्मिक विकारों प्रदषणों से से जाते हैं। रूस में तो सभी रोगों के उपचार के लिए उपवास बचने तथा गुणों का पोषण करने के लिए है। अनुकूल, प्रतिकूल, न चिकित्सा पद्धति प्रचलित ही है। पूज्य श्री घासीलाल म.सा. ने परिस्थितियों में समभाव से रहना, उनसे प्रभावित न होना, उनके हजारों रोगियों का रोग आयंबिल तप से ही दूर किया था। प्रति राग द्वेष न करना, मन का संतुलन न खोना सामायिक है। आयंबिल में एक ही प्रकार का घृत तेल आदि से रहित भोजन इससे व्यक्ति परिस्थिति से अतीत हो जाता है, ऊपर उठ जाता किया जाता है। जिससे जितनी भूख है उससे अधिक भोजन से है, अत: सांसारिक सुख-दुःख के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। बचा जा सकता है। एक ही रस के भोजन में आमाशय को (१०) देशावकासिक व्रत छठे दिशा तथा सातवें भोग-परिभोग ऐनजाइम जिनसे भोजन पचता है, बनाने में कठिनाई नहीं होती परिमाण व्रत इन दोनों व्रतों का ही विशेष रूप है। छठे तथा है। इसीलिए आस्ट्रेलिया-निवासी प्रायः एक समय में एक ही सातवें व्रतों में दिशा व भोग वस्तुओं की जीवन पर्यंत के लिए रस का भोजन करते हैं। यदि मीठे स्वाद की वस्तुएँ खाते हैं तो मर्यादा की गई है। उसे प्रतिदिन के लिए और सीमित करना उनके साथ खट्टे, नमकीन आदि स्वाद की वस्तुएँ नहीं खाते हैं। देशावकासिक व्रत का उद्देश्य है। पौषध व्रत में सांसारिक । तात्पर्य यह है कि शारीरिक रोगों व प्रदूषणों को दूर करने की दृष्टि प्रवृत्तियों से एक दिन के लिए विश्राम लेना है। इसमें साधुत्व । से तप का बड़ा महत्त्व है। का आचरण करना है, साधुत्व का रस चखना है। विश्राम से इसी प्रकार रात्रि-भोजन-त्याग, मांसाहार-त्याग, मद्य-त्याग, शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, विवेक का उदय होता है, संवेदन शिकार-त्याग आदि जैन-दर्शन के सिद्धांतों से शारीरिक, सामाजिक, शक्ति का विकास होता है अर्थात् आत्मिक गुणों का पोषण पारिवारिक तथा आर्थिक प्रदूषणों से बचा जा सकता है। लेख के होता है। विस्तार के भय से इन पर यहाँ विवेचन नहीं किया जा रहा है। (१२) अतिथि-संविभाग व्रत - उपसंहार-प्राणी के जीवन के विकास का संबंध प्राणशक्ति गृहस्थ जीवन में दान का बहुत महत्त्व है। गृहस्थ जीवन के विकास से है न कि वस्तुओं के उत्पादन से तथा न भोग - का भूषण ही न्यायपूर्वक उत्पादन व उपार्जन करना तथा उसे परिभोग सामग्री की वृद्धि से है। आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक, आवश्यकता वाले लोगों में वितरण करना है। जो उत्पादन व भौतिक, पारिवारिक, सामाजिक क्षेत्र के पर्यावरणों में प्रदूषण उपार्जन नहीं करता है. वह अकर्मण्य व आलसी है वह गहस्थ की उत्पत्ति, प्राप्त वस्तुओं के दुरुपयोग से व भाग से होता है। जीवन के लिए दषण है। इसी प्रकार जो उत्पादन करके संग्रह क्योंकि भोग से ही समस्त दोष पनपते हैं, जो प्रदूषण पैदा करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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